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बांस और बबूल से हो रही फसलों की सुरक्षा, मालामाल हो रहे बांस की खेती करने वाले किसान

लखनऊः गांवों में बांस और बल्लियों से छप्पर बनाने की परम्परा धीरे-धीरे कम होती जा रही है। शहरों की तरह ही यहां भी कंक्रीट के मकान बनने लगे हैं। इन गांवों में छप्पर बनाने वाले बांस के पौधे भी लगाया करते थे। इनकी एक-एक कोठियों में सैकड़ों बांस निकला करते थे। करीब तीन दशक पहले हर किसी को बांस की जरूरत पड़ती थी, लेकिन अब बांस उपयोग करने के कार्याें का स्वरूप बदल गया है। ऐसे में बांस की खपत पहले की अपेक्षा बढ़ गई है। जो लोग बांस की खेती कर रहे हैं, वह काफी खुश हैं। खेतों के किनारे लगे कंटीले तारों में उलझकर पशु घायल हो जाते थे, इनको सुरक्षित करने के साथ अपने खेतों की सुरक्षा भी बांस व बबूल के जरिए शुरू करने में कामयाबी हासिल की है।

बदलते समय के साथ बांस की मांग बढ़ती जा रही है, क्योंकि इसका उपयोग तमाम क्षेत्रों में किया जाने लगा है। ज्यादातर बांस शहरों में काम आ रहा है। कुछ लोग इससे फर्नीचर बनाते हैं, तो कुछ लोग इसे बिल्डिंग बनाते समय सीढ़ी, पाढ़ आदि बनाने में इस्तेमाल करते हैं। लखनऊ शहर में परसादीखेड़ा, तेलीबाग, तालकटोरा, बांसमंडी और एवरेडी चैराहा में ऐसा कारोबार अभी चल रहा है। यहां एक बांस की लम्बाई मात्र 20 फिट बताई जाती है। दुकानदार इसकी कीमत 150 रूपए बड़ी आसानी से वसूल लेते हैं, जबकि एक सीढ़ी की कीम 500 रूपयों से ज्यादा ही है। यहां तक कि पांच फिट का पाढ़ 80 रूपए का है जबकि गांवों में बांस की खेती करने वाले जब इसे बेचते हैं, तब इसकी कीमत मात्र 50 रूपए लेते हैं। काटते समय इसकी लम्बाई 30 फीट से ज्यादा होती है।

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शहरों में बांस का कारोबार बढ़ रहा है, तो दूसरी ओर गांवों में किसान भी इसे काफी खपा रहे हैं। शहर के बांस कारोबारी बता रहे हैं कि खेती-किसानी से जुड़े लोग बांस के बाड़ बनाकर इसमें कंटीले तारों की जगह देसी बबूल की झांकर लगाने लगे हैं। इससे कारोबार के लिए बांस कम पड़ जाता है। जिनके पास एक-दो बांस होते थे, वह भी अब इसकी संख्या बढ़ाने में लगे हुए हैं। शहर में दुकानदार बांस के निचले हिस्से की ही अच्छी कीमत लगाते हैं, जबकि किसानों के लिए पूरा बांस उपयोगी है। निचला हिस्सा मोटा होता है, इसलिए इसे जमीन पर गाड़ने में इस्तेमाल किया जाता है। ऊपरी हिस्सा पतला होता है, इसलिए यह बैरियर का काम करता है। इसकी पतली टहनियां भी झाड़ियाें को फंसाकर रखती हैं। इससे पशु खेतों तक नहीं पहुंच पाते हैं। देसी बबूल काफी घना होता है और इसमें कांटे भी काफी होते हैं।

किसान इसे बांस के सहारे लगा देते हैं। इससे तारों में गौवंश के फंसकर घायल होने का डर भी नहीं रहता है, साथ ही कम खर्चीला और खेतों को ज्यादा सुरक्षित रखता है। कई ऐसे गांव हैं, जहां पर आवारा पशुओं की संख्या सैकड़ों में हैं। यहां के लोग परेशान होकर रात के समय पशुओं को इकट्ठा कर दूसरे गांवों में छोड़ आते हैं। यह सिलसिला लखनऊ शहर से सटे हुए गांवों में भी चलता रहता है। कुछ ऐसे भी गांव हैं, जहां पर सभी खेतों को बांस और बबूल से कवर किया गया है। इनमें गाय तो क्या, खरगोश भी आसानी से प्रवेश नहीं कर सकता है। कई किलोमीटर दूरी तक ऐसी कवायद की गई है। हालांकि, इससे जुताई के समय काफी परेशानी भी उठानी पड़ती है।

  • शरद त्रिपाठी की रिपोर्ट

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