मानव जाति का काल बना प्रदूषण

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लगातार बढ़ते हुए प्रदूषण (Pollution) से कई बड़े महानगरों का जीवन संकट में पड़ गया है। दमघोंटू वातावरण से दमे और फेफड़ों के रोगियों की संख्या भी बढ़ रही है। इस प्रदूषण से धरती गर्म हो रही है। गर्माती धरती से पूरी दुनिया की जलवायु तेजी से बदल रही है। इससे इस धरती पर जीवों की कई प्रजातियां लुप्त हो गई हैं। कई प्रजातियों के सामने अस्तित्व का खतरा पैदा हो गया है। ग्रीनलैंड और अंटार्कटिक में पिघलती बर्फ अगामी कुछ ही दशकों में इस धरती पर प्रलय का नजारा दिखा सकती है। ग्रीनलैंड में इस साल रिकॉर्ड गर्मी पड़ी, जिससे भारी मात्रा में बर्फ पिघली। यूरोपीय संघ और जापान के वैज्ञानिकों की ओर से जारी आंकड़ों ने गर्म होती धरती को लेकर चिंताएं बढ़ा दी हैं।

वैज्ञानिकों का कहना है कि 2023 रिकॉर्ड पर सबसे गर्म साल होगा और 2024 उससे भी अधिक गर्म हो सकता है। इससे पहले इस साल के जुलाई और अगस्त पृथ्वी पर सबसे गर्म महीने रहे हैं। भारत सहित दुनिया भर में सितंबर रिकॉर्ड पर सबसे गर्म रहा है। सितंबर में दक्षिण अमेरिका में रिकॉर्ड तोड़ गर्मी पड़ी और न्यूयॉर्क में रिकॉर्ड बारिश हुई। महासागर का तापमान बढ़ गया। अत्यधिक तापमान के कारण दुनिया भर में हीटवेव और जंगल की आग की घटनाएं बढ़ रही हैं। हमनें अपनी ही करतूतों से प्रकृति का संतुलन बिगाड़ दिया है। विकास के नाम पर प्रकृति के अत्यधिक दोहन ने मानव जाति सहित कई जीवों के जीवन और अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर दिया है।

उपग्रहों से मिली ताजी तस्वीरों से पता चला है कि अंटार्कटिक के चारों ओर बर्फ काफी कम हो गई है। कम होती समुद्री बर्फ ने पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। वैज्ञानिक इस घटना पर चिंता जता रहे हैं क्योंकि इसका असर सारी दुनिया पर पड़ेगा है तथा भारत और बांग्लादेश जैसे उष्णकटिबंधीय देशों पर ज्यादा होगा। बर्फ के पिघलने का सबसे बड़ा कारण इस बार गर्मी का ज्यादा पड़ना है। गर्मी ने पिछले 143 साल के रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेस स्टडीज के वैज्ञानिकों ने यह खुलासा किया है। साल 2023 के गर्मी के मौसम के तीन महीने जून, जुलाई और अगस्त सबसे ज्यादा गर्म रहे। तीनों महीने संयुक्त तौर पर 0.23 डिग्री सेल्सियस ज्यादा गर्म रहे।

नासा के रिकॉर्ड के मुताबिक 1951 से 1980 के बीच सबसे गर्म मौसम का औसत तापमान 1.2 डिग्री सेल्सियस है, लेकिन इस साल का अगस्त महीना 1.2 डिग्री सेल्सियस ज्यादा गर्म था। धरती के उत्तरी गोलार्ध में जून से अगस्त महीने तक गर्मी रहती है। इस गर्मी की वजह से कनाडा और हवाई में भयानक जंगली आग लगी। वहीं, दक्षिणी अमेरिका, जापान और यूरोप में भयानक हीटवेव चली, जबकि इटली, ग्रीस और मध्य यूरोप में बेमौसम तेज बारिश हुई। नासा प्रमुख बिल नेल्सन के अनुसार 2023 की गर्मी के महीनों ने नया रिकार्ड बनाया है। ये सिर्फ नंबर्स नहीं है।

यह दुनिया को बता रहा है कि हम लगातार बढ़ते तापमान की ओर जा रहे हैं। यह दुनिया जलती जा रही है। इस बढ़ते तापमान की वजह से कनाडा के जंगलों में भयानक आग लगी जबकि यूरोप और एशिया को भयानक बाढ़ का सामना करना पड़ा। जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग (Climate change and global warming) की वजह से हमारे ग्रह और अगली पीढ़ियां खतरे में आती जा रही हैं। नासा ने तापमान रिकार्ड करने के लिए जमीन, पानी और हवा तीनों जगहों पर यंत्र और स्टेशन लगा रखे हैं।

अल-नीनो सबसे अहम वजह

समुद्र का तापमान अल-नीनो की वजह से इस साल की गर्मी के महीनो में बहुत ज्यादा हो गया। इसी वजह से गर्मी ने इस साल रिकार्ड तोड़ डाला।

समुद्र का तापमान अल-नीनो की वजह से इस साल की गर्मी के महीनो में बहुत ज्यादा हो गया। इसी वजह से गर्मी ने इस साल रिकार्ड तोड़ डाला। अल-नीनो की वजह से ही इस बार अमेरिका, यूरोप और एशिया में भयानक मौसमी बदलाव देखने को मिले, इसी वजह से मरीन हीटवेव बढ़ रहा है यानी समुद्री हीटवेव। इसकी वजह से बेमौसम तूफान आ रहे हैं। कहीं अचानक बाढ़ आ जा रही है तो कहीं जंगलों में आग लग जा रही है। दिन लगातार गर्म और हृयूमिडिटी वाले होते जा रहे हैं। अलनीनो का सबसे बुरा असर अगले साल फरवरी, मार्च और अप्रैल में देखने को मिलेगा। इसकी वजह से हवाओं में परिवर्तन होगा।

समुद्र का गर्म पानी, अमेरिका की तरफ बढ़ेगा। जिसकी वजह से पूरे दक्षिण-पश्चिम अमेरिका, पश्चिमी प्रशांत, इंडोनेशिया और ऑस्ट्रेलिया तक असर देखने को मिलेगा। वैज्ञानिकों के मुताबिक दुःख की बात ये है कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है। ऐसे में अगर और बुरी हालत बनती है तो इसके नतीजे भुगतने के लिए सभी जीवों को तैयार रहना पड़ेगा क्योंकि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर रोकथाम हो ही नहीं रही है। उससे पूरा वायुमण्डल खराब (Pollution) होता जा रहा है। इसी गर्मी की वजह से इस साल दुनिया के कई इलाकों में जंगल में आग लगी, तूफान आये, चक्रवाती तूफानों की संख्या बढ़ गई। बाढ़ तो आई ही। फ्लैश फ्लड के कई मामले देखने को मिले।

अगले कुछ सालों में गंगा और मेकॉन्ग के जो बाढ़ वाले मैदानी इलाके हैं, उनमें तेज तूफान आयेंगे। ऐसे ट्रॉपिकल तूफानों की संख्या तो कम होगी, लेकिन उनकी ताकत बहुत ज्यादा होगी। हाल ही में यह स्टडी न्यूकैसल यूनिवर्सिटी के पर्यावरणविदों ने की है यानि तूफान कम होंगे, लेकिन उनकी ताकत ज्यादा हो जायेगी। गंगा की घाटी, मैदानी इलाकों और बाढ़ वाले क्षेत्रों में भविष्य में ज्यादा ताकत वाले तूफान आयेंगे। यही हाल मेकॉन्ग के इलाकों का भी होने वाला है। साल 2050 तक ऐसे तूफानों की ताकत बढ़ती चली जायेगी। सबसे ज्यादा ट्रॉपिकल तूफान यानी उष्णकटिबंधीय तूफानों का असर भारत, बांग्लादेश, चीन, म्यांमार, थाईलैंड और कम्बोडिया पर होगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि इन देशों की जैव विविधता बहुत ज्यादा है।

यहां का मौसम जलवायु परिवर्तन के लिए बेहद संवेदनशील है। सबसे ज्यादा दिक्कत बांग्लादेश, वियतनाम और भारत के पूर्वी तट के इलाकों में होगी। यहां पर तेज बारिश की वजह से मिट्टी की सतह में बदलाव आयेगा। इससे ग्राउंडवाटर लेवल और खेती की जमीन में बदलाव आयेगा। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में पिछले सालों में कोरोना के कारण लगाये गये लॉकडाउन में प्रकृति में जिस तरह से निखार आया था, उसने दिखा दिया है कि अगर हम पर्यावरण को तबाह करना बंद कर दें तो अभी भी शायद परिस्थिति को संभाला जा सकता है, लेकिन अभी भी यदि हम नहीं संभले तो शायद जल्दी ही वापस लौटने के लिए बहुत ही देर हो चुकी होगी।

जलवायु परिवर्तन की चपेट में 3.6 बिलियन आबादी

मौसम पर जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव पर शीर्ष विशेषज्ञों की यही राय है कि ग्रीष्म लहर ग्लोबल वार्मिंग का सीधा और स्पष्ट पैमाना बन गया है।

मौसम पर जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव पर शीर्ष विशेषज्ञों की यही राय है कि ग्रीष्म लहर ग्लोबल वार्मिंग का सीधा और स्पष्ट पैमाना बन गया है। संयुक्त राष्ट्र के एक पैनल, इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने भी पाया था कि मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन प्रकृति में खतरनाक और व्यापक व्यवधान पैदा कर रहा है तथा दुनिया भर के अरबों लोगों के जीवन को प्रभावित कर रहा है। इस पैनल ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि लाखों लोगों को गंभीर भोजन और पानी की असुरक्षा का सामना करना पड़ा है। खासकर अफ्रीका, एशिया, मध्य और दक्षिण अमेरिका, छोटे द्वीपों और आर्कटिक में। 3.6 बिलियन लोग जलवायु परिवर्तन की चपेट में हैं।

रिपोर्ट ने अपनी चेतावनी में यह कहते हुए जोड़ा कि दुनिया अगले दो दशकों में 1.5 डिग्री सेल्सियस की ग्लोबल वार्मिंग के साथ कई अपरिहार्य जलवायु खतरों का सामना कर रही है, जिसमें कहा गया है कि इस बढ़ते तापमान के कुछ परिणाम अपरिवर्तनीय होंगे। यहां तक कि अस्थायी रूप से इस वार्मिंग स्तर से अधिक होने पर अतिरिक्त गंभीर प्रभाव होंगे, जिनमें से कुछ अपरिवर्तनीय होंगे, बढ़ी हुई ग्रीष्म लहर, सूखा और बाढ़ पहले से ही पौधों और जानवरों की सहनशीलता की सीमा से अधिक है, जिससे पेड़ों और मूंगों जैसी प्रजातियों में बड़े पैमाने पर मृत्यु दर बढ़ रही है। इन चरम मौसम की घटनाओं ने लाखों लोगों को विशेष रूप से अफ्रीका, एशिया, मध्य व दक्षिण अमेरिका, छोटे द्वीपों और आर्कटिक में तीव्र भोजन तथा पानी की असुरक्षा के लिए उजागर किया है।

आईपीसीसी की रिपोर्ट में आग्रह किया गया है कि जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने के लिए त्वरित कार्रवाई तथा साथ ही ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में तेजी से गहरी कटौती करने की आवश्यकता है। ऐसे में भविष्य और भी गंभीर दिखता है। अधिक गर्म होने का अर्थ है लगातार चरम घटनाएं। आईपीसीसी के अध्यक्ष होसुंग ली ने कहा कि यह रिपोर्ट निष्क्रियता के परिणामों के बारे में एक गंभीर चेतावनी है। यह दर्शाता है कि जलवायु परिवर्तन हमारी भलाई और एक स्वस्थ ग्रह के लिए एक गंभीर और बढ़ता खतरा है। आज हमारे कार्य आकार देंगे कि लोग कैसे रहेंगे और प्रकृति बढ़ते जलवायु जोखिमों के प्रति क्या प्रतिक्रिया करती है।

नेचर क्लाइमेट चेंज में छपी रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि सागर के जलस्तर का बढ़ना 78 सेंटीमीटर तक जा सकता है। ऐसे में तटों के आसपास के निचले इलाकों का बड़ा हिस्सा डूब जायेगा, साथ ही बाढ़ और आंधियां बढ़ जायेंगी। जलवायु विज्ञान के बारे में एक प्रमुख रिपोर्ट में इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज यानी आईपीसीसी ने कहा था कि ग्रीनलैंड के बर्फ की चादर के पिघलने आगामी साल 2100 में सागर का जलस्तर 18 सेंटीमीटर तक बढ़ेगा। बॉक्स उस रिपोर्ट के भी लेखक थे। उनका कहना है कि उनकी टीम ने जो नई रिसर्च की है उससे पता चलता है कि पिछले आंकड़े “काफी कम” थे।

ऐसे में बॉक्स और उनके साथियों ने इस बार कंप्यूटर मॉडल की बजाये दो दशक में लिए गए मापों और निगरानी के आंकड़ों का इस्तेमाल कर यह पता लगाने की कोशिश की है कि ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर पहले जो गर्मी झेल चुकी है उसके आधार पर कितना बदलेगी। बर्फ के चादर के ऊपरी हिस्से को हर साल बर्फबारी से भर जाना होता है। हालांकि, 1980 के बाद से ही यह इलाका बर्फ में कमी देख रहा है। जितनी बर्फ हर साल गिरती है उससे कहीं ज्यादा हर साल पिघल जा रही है। दुनिया औद्योगिक काल के पहले की तुलना में औसत रूप से 1.2 डिग्री सेल्सियस गर्म हो चुकी है। इसके नतीजे में लू और ज्यादा तेज आंधियों का सिलसिला बढ़ गया है।

जलवायु परिवर्तन से अत्यधिक ठंड भी बड़ा खतरा

पेरिस जलवायु समझौते के तहत दुनिया के देश गर्मी को 02 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने पर सहमत हुए हैं। आइपीसीसी ने अपनी रिपोर्ट में बढ़ती गर्मी का जलवायु पर पड़ने वाले

पेरिस जलवायु समझौते के तहत दुनिया के देश गर्मी को 02 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने पर सहमत हुए हैं। आइपीसीसी ने अपनी रिपोर्ट में बढ़ती गर्मी का जलवायु पर पड़ने वाले असर के बारे में कहा है कि अगर गर्मी में इजाफे को 02 डिग्री से 2.5 डिग्री तक पर भी सीमित कर लिया जाये, तो इसी सदी में 25 मेगासिटीज के निचले इलाके इसकी चपेट में आयेंगे। इन जगहों पर 2010 तक 1.3 अरब लोग रहते थे। दुनिया के अनेक हिस्सों में इन दिनों मौसम जिस तरह चरम पर पहुंच रहा है, वह हैरान और चिंतित करने वाला है। मानव निर्मित गर्मी वातावरण को लगातार गर्म करती जा रही है, इसलिए इस घटना के जल्दी होने की आशंका बढ़ गयी है।

जबकि आर्कटिक ब्लास्ट तब होता है, जब ठंड के सीजन में तापमान बहुत कम हो जाने पर अक्षांश वाले इलाकों में बर्फीला तूफान चलने लगता है। इससे पूरे इलाके में मोटी-मोटी बर्फ जम जाता है। इसी को आर्कटिक ब्लास्ट या कोल्ड ब्लास्ट भी कहा जाता है। इस समय अमेरिका इसका शिकार है, जहां कुछ जगह तापमान माइनस 50 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है। अब दुनिया भर के वैज्ञानिक यह अनुभव कर रहे हैं कि तकनीकी विकास से मानव जाति के लिए सबसे बड़ा खतरा पैदा हो गया है। इसके कारण ही आज सांस लेने के लिए न तो शुद्ध हवा है और न पीने के लिए स्वच्छ जल। कई तरह के रसायन और कीटनाशकों के कारण खाद्यान्न पहले से ही प्रदूषित हो चुके हैं।

अब मौसम के बदलाव का नतीजा भोगने के लिए के तैयार रहिए। एक कोरोना वायरस ने ही दुनिया को दिखा दिया है कि सारी वैज्ञानिक तरक्की के बावजूद प्रकृति के प्रकोप के आगे हम कितने असहाय हैं। वायरस के प्रसार के तीन साल बाद भी हम उसके व्यवहार को पूरी तरह से नहीं समझ पाये हैं।

हालांकि, पर्यावरणविद बहुत दिनों से पर्यावरण के विनाश से मचने वाली तबाही की चेतावनी देते आ रहे हैं, लेकिन कथित विकास की होड़ में उसे अभी तक लगभग नजरअंदाज ही किया जाता रहा है। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में पिछले दिनों कोरोना के कारण लगाये गये लॉकडाउन में प्रकृति में जिस तरह से निखार आया था, उसने दिखा दिया है कि अगर हम पर्यावरण को तबाह करना बंद कर दें, तो अभी भी शायद परिस्थिति को संभाला जा सकता है, लेकिन अभी भी यदि हम नहीं संभले तो शायद जल्दी ही वापस लौटने के लिए बहुत ही देर हो चुकी होगी।

पिछले 40-50 वर्षो में इस धरती के कई जीव-जन्तु हमारी कारगुजारियों के कारण विलुप्त हो गये हैं और कई विलुप्ति के कगार पर हैं। पर्यावरण में कई खतरनाक घटनाएं आज साफ-साफ दिखायी दे रही हैं। हर साल 60 लाख हेक्टेयर खेती योग्य भूमि बेकार की मरूभूमि में बदल रही है। ऊसर बनी ऐसी जमीन का क्षेत्रफल तीस साल में लगभग सऊदी अरब के क्षेत्रफल के बराबर होता है।

हर साल 110 लाख से अधिक हेक्टेयर वन उजाड़ दिये जाते हैं, जो तीस साल में भारत जैसे देश के क्षेत्रफल के बराबर हो सकता है। अधिकांश जमीन जहां पहले वन उगते थे। ऐसी खराब कृषि भूमि में बदल जाती है, जो वहां रहने वाले खेतिहरों को भी पर्याप्त भोजन दिलाने में असमर्थ हैं। विकास की इस प्रक्रिया को यदि रोका नहीं गया तो हमारा महाविनाश निश्चित है।

पशु-पक्षियों की प्रजातियां लुप्त होने का खतरा

मौलिक प्राकृतिक पर्यावरण को मनुष्य की आवश्यकताओं के अनुसार रूपांतरित करना तथा विनाशक प्राकृतिक शक्तियों जैसे भूकम्पों, टाईफूनों, चक्रवातों,

मौलिक प्राकृतिक पर्यावरण को मनुष्य की आवश्यकताओं के अनुसार रूपांतरित करना तथा विनाशक प्राकृतिक शक्तियों जैसे भूकम्पों, टाईफूनों, चक्रवातों, बाढ़ व सूखों, हिमानीभवनों, चुम्बकीय व सौर आंधियों, रेडियो सक्रियता, अंतरिक्षणीय विकिरणों के विरूद्ध संघर्ष करना संभव ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है। परन्तु ऐसे परिवर्तन केवल उन नियमों के ही अनुसार किये जा सकते हैं, जिनके द्वारा जैव मंडल एक अखंड व स्वनियामक प्रणाली के रूप में काम करता तथा विकसित होता रहे। अतः आज का पर्यावरणीय प्रश्न महज प्रदूषण तथा मनुष्य के आर्थिक क्रियाकलाप के दूसरे नकारात्मक परिणामों का ही प्रश्न नहीं है।

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यह प्राकृतिक जगत पर हमारे अनियंत्रित प्रभाव को उसके साथ सचेत, सोद्देश्य तथा नियोजित अंतक्रिया में बदलने से भी सम्बन्धित है। सबसे अधिक परिस्थितिक तथा सामाजिक समस्या सारी दुनिया से कुछ जीव जातियों का व्यापक पैमाने पर गायब होना है। प्रमुख जैविकविद जानवरों और पौधों की जातियों के इतने बड़े पैमाने पर लुप्त होने का पूर्वानुमान लगाते हैं, जो प्राकृतिक तथा मनुष्य की क्रिया के फलस्वरूप पिछले करोड़ों वर्षो में हुए उनके विलुप्तीकरण से कहीं अधिक बड़ा होगा। यह बात भी सिद्धांततः सच है कि अंततः सारी जैविक प्रजातियां विलुप्त होंगी।

प्रकृति एवं प्राकृतिक साधनों के अंतर्राष्ट्रीय रक्षा संगठन ने अनुमान लगाया है कि अब औसतन हर वर्ष एक जाति या उपजाति लुप्त हो जाती है। इस समय पक्षियों और जानवरों की लगभग 1000 जातियों के लुप्त होने का खतरा है। कुछ जैविकविद यह समझते हैं कि पौधों की किसी एक जाति के लुप्त होने से कीटों, जानवरों या अन्य पौधों की 10 से 30 तक जातियां विलुप्त हो सकती हैं।

निरंकार सिंह
(लेखक हिन्दी विश्वकोश के पूर्च सहायक संपादक हैं।)

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