राजनीति के पहलवान मुलायम सिंह यादव का यूं जाना

45

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने ‘तुमुल’खंड काव्य में लिखा है कि म्रियमाण मरता है बहाना ढूंढ लेता काल है । लेकिन इन सबके बीच काल भी व्यक्ति के जीवन वृत्त,उससे जुड़े अफसाने लंबे समय तक भुलाने में समर्थ नहीं हो सकता । और अगर बात राजनीति के किसी महारथी की हो,तो उनकी यादों को भुलाना और भी कठिन हो जाता है। समाजवादी पार्टी के संस्थापक और संरक्षक मुलायम सिंह यादव मंगलवार को पंचतत्व में विलीन हो गए। वे राजनीति के बेजोड़ पहलवान थे। राजनीति में आने से पहले वे कुश्ती लड़ा करते थे। और राजनीति में आकर भी वे कुश्ती ही लड़ते रहे। उनका चरखा दांव बेहद मजबूत था। मौत के अन्तिम दिन तक वे जीवन और मौत की जंग लड़ते रहे लेकिन नियति पर किसका वश चलता है। उनका भी नहीं चला। वो सोमवार को चल बसे।

मुलायम सिंह राजनीति की उस शख्सियत का नाम है, जो हर काल में नेताजी ही रहे। वे अपने पीछे ढेर सारे किस्से छोड़ गए हैं। इतने किस्से की उन पर पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है।। यह सच है कि उनके जीवन के साथ ही छह दशक पुराने उनके राजनीतिक सफर का भी अवसान हो गया। जसवंतनगर विधानसभा क्षेत्र से अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत करने वाले मुलायम सिंह यादव ने सियासत का ककहरा डॉ. मनोहर लोहिया और राजनारायण जैसे समाजवादी नेताओं ने सीखा। सन 1967 में लोहिया जी की सोशल पार्टी के टिकट पर महज 28 साल की उम्र में पहली बार विधायक बने। यह और बात है कि तब उनका परिवार राजनीति से नहीं जुड़ा था। और आज की तिथि में उनका परिवार देश का सबसे बड़ा राजनीतिक परिवार है। मुलायम सिंह यादव का कुश्ती प्रेम जग जाहिर है । अपने छात्र जीवन में वे परीक्षा छोड़कर कुश्ती लड़ने चले जाते थे। कवि सम्मेलन में अकड़ दिखा रहे दरोगा को मंच पर ही पटक देने वाले मुलायम सिंह यादव ने अपने राजनीतिक विरोधियों को हमेशा चित किया। यह किसी से भी छिपा नहीं है। उनकी राजनीतिक और वैयक्तिक जिंदगी भी संघर्षों भरी रही। लक्ष्य प्राप्ति के लिए दल बदलने से उन्होंने कभी गुरेज नहीं किया। कौन क्या कहता है, इसकी कभी परवाह नहीं की।

लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी से उन्होंने अपने सियासी सफर का आगाज किया। लोहिया जी के निधन के बाद जब सोशलिस्ट पार्टी कमजोर होने लगी तो उन्होंने चौधरी चरण सिंह से नाता जोड़ लिया। 1974 में चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय क्रांति दल के टिकट पर वे 1974 का विधानसभा चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में दोबारा पहुंचे। आपातकाल से ठीक पहले जब चौधरी चरण सिंह ने भारतीय क्रांति दल का विलय संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में कर दिया तो उत्तर प्रदेश में मुलायम उसके प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए। 1977 में जब जयप्रकाश नारायण की जनता पार्टी की सरकार बनी तो वे उसमें मंत्री बनाए गए।

यह और बात है कि 1980 में जनता पार्टी के विभाजन के बाद चौधरी चरण सिंह ने जनता दल सेक्युलर का गठन किया। उसके टिकट पर मुलायम चुनाव लड़े और हार गए। 1980 के बाद जनता दल सेक्युलर का नाम बदलकर लोकदल हो गया। लोकदल के टिकट पर मुलायम चुनाव जीत गए। 1987 में चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद उनके पुत्र अजित सिंह से मुलायम सिंह के राजनीतिक मतभेद बढ़ गए और लोकदल दो फाड़ हो गया। अजित के हिस्से का लोकदल अ और मुलायम के नेतृत्व में लोकदल ब बना। 1989 में बोफोर्स विवाद पर कांग्रेस से अलग हुए मांडा नरेश विश्वनाथ प्रताप सिंह ने फिर जनता दल का गठन किया तो राजनीतिक हवा का रुख भांपने में माहिर मुलायम ने अपनी पार्टी लोकदल ब का उसमें विलय कर दिया और पहली बार 1989 में यूपी के मुख्यमंत्री बने।

मंडल विवाद के चलते 1990 में जब वीपी सरकार गिर गई तो मुलायम सिंह यादव ने चंद्रशेखर की पार्टी जनता दल समाजवादी से जुड़ना मुनासिब समझा। 1991 में कांग्रेस की समर्थन वापसी के बाद यूपी में मुलायम सरकार गिर गई। मध्यावधि चुनाव हुए और मुलायम उसी साल जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े। 4 अक्टूबर, 1992 को उन्होंने समाजवादी पार्टी का गठन किया। वर्ष 2016 से वे उसके संरक्षक थे। 10 बार विधायक, 7 बार सांसद, एक बार देश के रक्षा मंत्री रहे मुलायम सिंह यादव के सभी राजनीतिक दलों से निकटस्थ संबंध रहे। 2017 में जब उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ पहली बार यूपी के सीएम पद की शपथ ले रहे थे, तब मुलायम सिंह यादव ने प्रधानमंत्री के कान में कुछ कहा था जिसे सुनकर प्रधानमंत्री मुस्कुरा उठे थे लेकिन उन्होंने क्या कहा, यह अब भी रहस्य बना हुआ है और लगता नहीं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कभी इस रहस्य से पर्दा उठाने चाहेंगे।

26 जून, 1960 को मैनपुरी के करहल स्थित जैन इंटर कॉलेज के कैंपस में कवि सम्मेलन में एक दरोगा ने मशहूर कवि दामोदर स्वरूप विद्रोही को कविता पढ़ने से रोक दिया और उनका माइक छीन लिया ।मुलायम से यह बर्दाश्त न हुआ और उन्होंने मंच पर ही दरोगा को पटक दिया। 4 मार्च 1984 को नेताजी मैनपुरी की रैली के बाद मैनपुरी में अपने एक दोस्त से मिलने गए। दोस्त से मुलाकात के बाद वे 1 किलोमीटर ही चले होंगे कि उनकी गाड़ी पर छोटेलाल और नेत्रपाल ने ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू कर दी और उनकी गाड़ी के सामने कूद गए। करीब आधे घंटे तक छोटेलाल, नेत्रपाल और पुलिसवालों के बीच फायरिंग चली। लगातार फायरिंग से मुलायम सिंह की गाड़ी असंतुलित होकर सूखे नाले में गिर गई। नेताजी ने सबकी जान बचाने के लिए अपने समर्थकों से यह चिल्लाने को कहा कि नेता जी मर गए। उनकी रणनीति काम आई और हमलावरों की ओर से फायरिंग बंद हो गई ।

30 अक्टूबर, 1990 में अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश देकर उन्होंने हिंदुओं की नाराजगी का जोखिम जरूर लिया लेकिन वे मुसलमानों के बेहद करीब हो गए। उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुस्लिम -यादव समीकरण के वे चाणक्य थे। मुलायम ने गोली चलवाने के बाद लखनऊ में एक सभा की और कहा था कि देश की एकता बचाने के लिए कुर्बानी देने के लिए तैयार हैं। 1956 में राम मनोहर लोहिया और बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर एक साथ आने की योजना बना रहे थे। लेकिन अंबेडकर के निधन के चलते लोहिया की दलित-पिछड़ा वर्ग की राजनीतिक गठजोड़ सफल नहीं हुई। कहना न होगा कि 1992 के बाबरी विध्वंस के बाद मुलायम ने लोहिया की इस योजना पर अमल की दिशा में काम शुरू किया। कांशीराम से समझौता कर उन्होंने चुनाव में सपा को बड़ी जीत दिलाई। सपा 109 सीट और बसपा 67 सीट जीती।

मुलायम के इस चरखा दांव का असर यह हुआ कि भाजपा बहुमत से दूर हो गई। उस समय उत्तर प्रदेश में एक नारा जोर शोर से उछला-‘मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’। यह और बात है कि राज्य अतिथि गृह में मायावती पर हमले के बाद दलित और पिछड़ा गठजोड़ को ग्रहण लग गया। अखिलेश यादव ने भी बुआ-भतीजे का संबंध जोड़कर यादव-दलित गठजोड़ को गति देने की कोशिश की लेकिन राजनीतिक नतीजे ने उनकी सोच पर पानी फेर दिया था। अखिलेश का सपना नेताजी को प्रधानमंत्री बनाने का था लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। जिस चौधरी चरण सिंह ने कभी मुलायम को छोटे कद का बड़ा नेता कहा था। पुत्र मोह में मुलायम सिंह अपने परिवार को एक नहीं रख पाए। उनके अनुज शिवपाल यादव ने अलग पार्टी बना ली। उनके निधन पर यह परिवार एक हो पाएगा या नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन नेताजी की यशकाया हमेशा जिंदा रहेगी।

सियाराम पांडेय