Thursday, December 26, 2024
spot_img
spot_img
spot_imgspot_imgspot_imgspot_img
Homeफीचर्डमुस्लिम मतदाता का ध्रुवीकरण चिंताजनक

मुस्लिम मतदाता का ध्रुवीकरण चिंताजनक

Muslim Voters

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मुस्लिम वोट बैंक का भिन्न चेहरा देखने में आया है। मुस्लिम मतदाताओं ने एकजुट होकर अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को वोट दिया है। ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम), कांग्रेस और बसपा की ओर झांका भी नहीं। मुस्लिमों ने संपूर्ण रूप से ध्रुवीकृत होकर सपा के पक्ष में मतदान किया। इस कारण सपा की सीटें तो बढ़ीं, लेकिन यह साफ हो गया कि मुस्लिमों को न तो राज्य की लोक कल्याणकारी योजनाओं ने लुभाया और न ही वे अन्य दलों में समावेशन कर पाए।

जिन-जिन विधानसभा क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या तीस-पचास प्रतिशत से अधिक थी, वहां-वहां सपा ने जीत दर्ज कराई। ऐसी 73 सीटें हैं। इनमें से दो मुरादाबाद और रामपुर में 50 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम मतदाता हैं। नतीजतन कुल 34 मुस्लिम विधायक तो चुने ही गए, सपा और उसके सहयोगी दल भी कुल 125 सीटें जीतने में सफल हो गए। सपा के 31 मुस्लिम विधायकों ने जीत दर्ज कराई है, जबकि दो पर रालोद और एक पर बसपा उम्मीदवार जीते।

2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कुल 24 मुस्लिम विधायक निर्वाचित हुए थे। चुनाव परिणाम के बाद बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने तो अपनी हार का ठीकरा मुस्लिमों पर फोड़ते हुए कह भी दिया कि सपा को इकतरफा वोट देकर भविष्य में वे पछताएंगे। इसी तरह ओवैसी को कहना पड़ा कि उत्तर प्रदेश चुनाव में 80-20 का समीकरण चल गया। याद रहे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने भाषणों में कहा था कि ‘यह चुनाव अस्सी बनाम बीस प्रतिशत के बीच लड़ा जा रहा है।‘ साफ है, कि मुस्लिमों का उप्र में जो 20 प्रतिशत वोट हैं, उसका ध्रुवीकरण हुआ और साइकिल की रफ्तार बढ़ती चली गई। यह वोट न तो माया को मिला और न ही ओवैसी को। यदि यह विभाजित होता तो भाजपा की सीटों की संख्या और बढ़ सकती थी।

इस ध्रुवीकरण ने एक बार फिर जता दिया है कि आज भी यह समुदाय वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। एक समय कांग्रेस ने और फिर बसपा ने इसका दोहन किया और अब इनमें असुरक्षा का भाव जगाकर सपा दोहन में लगी है। यहां मुस्लिम और उनके नेतृत्वकर्ताओं को सोचने की जरूरत है कि अब देश और राज्यों में सरकारें मुस्लिम वोट के बिना अस्तित्व में आने लगी हैं, इसलिए उन्हें जिस तरह से लोक-कल्याणकारी योजनाओं का लाभ समान रूप से मिलता है, उसी अनुरूप उन्हें वोट भी भयमुक्त व व्यक्तिगत इच्छा के अनुसार देने की जरूरत है, जिससे उनका समावेशी चरित्र देखने में आए और अन्य जाति व धर्मों में उनकी स्वीकार्यता बढ़े। जिससे कालांतर में वे अलग-थलग न पड़ें।

जब-जब मुस्लिम कार्ड खेला गया है, वह उल्टा ही पड़ा है। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार ने सच्चर समिति के जरिए मुस्लिम कार्ड खेला था, जो न तो कांग्रेस के अनुकूल रहा और न ही मुस्लिम समाज के। नतीजा रहा कि भाजपा और नरेंद्र मोदी केंद्र सरकार पर काबिज हो गए। कांग्रेस, बसपा और सपा आगे भी मुस्लिम कार्ड खेलते रहे, जिसका नतीजा रहा कि 2017 और 2022 में प्रचंड बहुमत से योगी आदित्यनाथ की सरकार बन गई। 2019 में जनता ने फिर से मोदी को प्रधानमंत्री बनाकर संदेश दिया कि अब मुस्लिम कार्ड चलने वाला नहीं है। कांग्रेस और बसपा का इस कार्ड को खेलते-खेलते जो हश्र हो गया है, वही कालांतर में सपा का होना तय है।

दरअसल मनमोहन सिंह सरकार ने उस समय अल्पसंख्यक बहुल गांवों, कस्बों और विकास खण्डों में बुनियादी जरूरतों और सुविधाओं की पूर्ति के लिए एक नया सर्वे कराने का निर्णय लिया था। मुस्लिम बहुल 90 जिलों में यह सर्वे कराया गया था। सर्वे को आधार बनाकर, बहु क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम के तहत मुस्लिमों को राहत की रेवड़ियां आम चुनाव से ठीक पहले बांट दी जाएं। जाहिर है, कांग्रेस मुस्लिमों को महज वोट बैंक मानकर चल रही थी। इस विभाजन कारी नीति के अंतर्गत अल्पसंख्यक बहुल गांवों व कस्बों में इंदिरा आवास, आंगनबाड़ी केंद्र, विद्यालय, स्वास्थ्य केंद्र, पेयजल और सफाई व्यवस्था पता लगाया गया था। साथ ही विकास खण्ड मुख्यालयों में पड़ताल की गई कि इन शहरों में हाईस्कूल, औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान, कौशल विकास केंद्र, छात्रावास व प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र किस अवस्था में हैं। यह भी पता लगाया गया कि अल्पसंख्यक वर्ग सामान्य व तकनीकी शिक्षा ले रहे हैं अथवा नहीं?

जबकि इस बाबत केंद्र को कुछ ऐसी नीतिगत योजनाएं अमल में लाने की जरूरत थी, जिनके क्रियान्वयन से समावेशी विकास लक्षित होता। ऐसा होता तो भाजपा को बहुसंख्यकों के ध्रुवीकरण का अवसर नहीं मिलता। राजनीति के चतुर खिलाड़ी नरेंद्र मोदी ने 2014 के चुनाव में इस मुद्दे को पूरी आक्रामकता से उछालकर बहुसंख्यक समाज को सांप्रदायिकता के आधार पर भुनाने का काम किया, जिसमें वे सफल भी हुए।

जब मोदी प्रधानमंत्री बन गए, तब उन्होंने कल्याणकारी योजनाओं में जाति और संप्रदाय के आधार पर कोई भेद नहीं बरता। इसीलिए प्रधानमंत्री आवास, सस्ता अनाज, शिक्षा, आयुष्मान स्वास्थ्य योजना और जल जीवन मिशन योजनाओं में मुस्लिमों को समान भागीदारी मिली। नतीजतन कहीं भी यह समुदाय यह कहता नहीं मिलता कि हमारे साथ कल्याणकारी योजनाओं में कोई भेद बरता जा रहा है। वैसे भी मोदी राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों को नई दृष्टि से देख रहे हैं और देश की समग्र सवा अरब आबादी के हित की बात कर अपना जनाधार हरेक समाज में बढ़ा रहे हैं। क्या मुस्लिम और उनके रहनुमाओं को भाजपा की यह समावेशी सोच दिखाई नहीं देती?

दरअसल मनमोहन सरकार ने मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक व शैक्षिक हैसियत का आकलन करने की दृष्टि से सच्चर समिति का गठन किया था। इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर मुसलमानों को सक्षम बनाने के बहुआयामी उपाय किए जाने थे। ये उपाय अल्पसंख्यक मंत्रालय के तहत ‘बहुक्षेत्रीय विकास कार्यक्रम’ को अमल में लाकर मुस्लिम बहुल आबादी वाले उन 90 जिलों में किए गए, जहां मुस्लिमों की आबादी 25 प्रतिशत या इससे अधिक थी। लेकिन रिपोर्ट के मुताबिक यह लाभ केवल 30 फीसदी आबादी को मिला। वह भी ऐसी आबादी को जो पहले से ही आर्थिक एवं शैक्षिक रूप से सक्षम थी।

जबकि देश के सबसे बड़े मुस्लिम आबादी वाले राज्य में मोदी और योगी के उस करिश्मे का कोई जवाब नहीं है, जो उन्होंने केंद्र और राज्य की कल्याणकारी एवं विकास योजनाओं को सर्वसमावेशी रूप में जमीन पर उतारा। जाति और समुदाय के आधार पर कोई भेद नहीं किया। इन योजनाओं पर ठीक से अमल भी इसलिए हो पाया क्योंकि कठोर कानून व्यवस्था का योगदान रहा। यदि लचर व्यवस्था को बुलडोजर का भय नहीं होता तो कल्याणकारी योजनाएं भी नौकरशाही की भ्रष्ट मंशा का शिकार हो गई होतीं। अतएव मुस्लिमों को ध्रुवीकरण के उस खोल से बाहर निकलने की जरूरत है, जो उनको बहुसंख्यक समाज से अलग बनाए रखने का काम कर रहा है।

प्रमोद भार्गव

सम्बंधित खबरें
- Advertisment -spot_imgspot_img

सम्बंधित खबरें