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तीर्थ सेवन महिमा

तीर्थों की महिमा अनन्त है, भारत वर्ष में करोड़ों तीर्थ हैं वे अपनी स्वाभाविक शक्ति से ही सबका पाप नाश करके उन्हें मनोवांछित फल प्रदान करते हैं और मोक्ष तक दे देते हैं। हिन्दू शास्त्रों में तीर्थों के नाम, रूप, लक्षण और महत्व का बड़ा विशद वर्णन है। महाभारत, रामायण आदि के साथ ही प्रायः सभी पुराणों में तीर्थों की महिमा गायी गयी है। पद्मपुराण और स्कन्दपुराण तो तीर्थ-महिमा से परिपूर्ण है। तीर्थों में किनको कब, कैसे क्या-क्या लाभ हुए तथा किस तीर्थ का कैसे प्रादुर्भाव हुआ, इसका बड़े सुन्दर ढंग से अतिविशद वर्णन किया गया है। इसी भांति अन्यान्य देशों में भी बहुत तीर्थ हैं। तीर्थों की इतनी महिमा इसलिए भी है कि वहां महान् पवित्रात्मा भगवत्प्राप्त महापुरूषों और संतों ने निवास किया है या श्रीभगवान् ने किसी भी रूप में कभी प्रकट होकर, उन्हें अपना लीला क्षेत्र बनाकर महान् मंगलमय किया है।

संत-महात्मा तीर्थरूप हैं

भगवान के स्वरूप का साक्षात्कार किये हुए भगवत्प्रेमी महात्मा स्वयं ‘तीर्थरूप’ होते हैं, उनके हृदय में भगवान सदा प्रकट रहते हैं, इसलिए वे जिस स्थान में जाते हैं वहीं तीर्थ बन जाता है। वे तीर्थों को ‘महातीर्थ’ बना जाते हैं। पुराणों में प्रसंग आता है जब संत-महात्मा की महिमा भगीरथ जी ने कही। भगवती श्रीगंगाजी ने भगीरथ से कहा-‘तुम मुझे पृथ्वी पर ले जाना चाहते हो ? अच्छा, मैं तुमसे एक बात पूछती हूँ। देखो, मुझमें स्नान करने वाले लोग तो अपने पापों को मुझमें बहा देंगे, पर मैं उनके पापों को कहां धोने जाऊंगी ? भागीरथ जी ने कहा- ‘इस लोक और परलोक की समस्त भोग-वासनाओं का सर्वथा परित्याग किये हुए शान्तचित्त ब्रह्मनिष्ठ साधुजन, जो स्वभाव से ही लोगों को पवित्र करते रहते हैं, अपने अंग-संग आपके पापों को हर लेंगे क्योंकि उनके हृदय में समस्त पापों को समूल हर लेने वाले श्रीहरि नित्य निवास करते है।’

तीन प्रकार के तीर्थ

इसी से तीर्थ तीन प्रकार के माने गये हैं - 1. जंगम 2. मानस 3. स्थावर।
1- स्वधर्म पर आरूढ़ आदर्श ब्राह्मण और संत-महात्मा ‘जंगम तीर्थ’ है। इनकी सेवा से सारी कामनाएं सफल होती है और भगवत्तत्व का साक्षात्कार होता है।

2- ‘मानस-तीर्थ’ हैं - सत्य, क्षमा, इन्द्रियनिग्रह, प्राणिमात्र पर दया, संतोष, ब्रह्मचर्य, प्रियभाषण, विवेक, और तपस्या। इन सारे तीर्थों से भी मन की परम विशुद्धि ही सबसे श्रेष्ठ तीर्थ है। इन तीर्थों में भली-भांति स्नान करने से परम गति की प्राप्ति होती है। तीर्थयात्रा का उद्देश्य ही है अन्तःकरण की शुद्धि और उसके फलस्वरूप मानव-जीवन का चरम और परम ध्येय, भगवत्प्राप्ति। इसीलिये शास्त्रों ने अन्तःकरण की शुद्धि करने वाले साधनों पर विशेष जोर दिया है। यहां तक कहा है कि- ‘जो लोग इन्द्रियों को वश में नहीं रखते, जो लोभ, काम, क्रोध, दम्भ, निर्दयता और विषयासक्ति को लेकर उन्हीं की गुलामी करने के लिए तीर्थस्नान करते हैं, उनको तीर्थस्नान का फल नहीं मिलता।

3- ‘स्थावर-तीर्थ’ हैं - पृथ्वी के असंख्य पवित्र स्थल और सागर, नद-नदियां, सरोवर, कूप और जलाशय आदि। इनमें तीर्थराज प्रयाग, पुष्कर, नैमिषारण्य, कुरूक्षेत्र, द्वारका, उज्जैन, अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, जगदीशपुरी, काशी, कांची, बद्रिकाश्रम, श्रीशैल, सिन्धु-सागर-संगम, सेतुबन्ध, गंगा-सागर-संगम तथा गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, गोमती, नर्मदा, सरयू, कावेरी, मन्दाकिनी और कृष्णा आदि नदियां प्रधान है।

क्यों करनी चाहिए तीर्थयात्रा ?

मनुष्य-जीवन का उद्देश्य है- भगवतप्राप्ति या भगवतप्रेम की प्राप्ति। जगत में भगवान को छोड़कर सब कुछ नश्वर है, दुःखदायी है। इनसे मन हटकर श्री भगवान में लग जाय- मनुष्य को बस, यही करना है। यह होता है भगवतप्रेमी महात्माओं के संग से और ऐसे महात्मा रहा करते हैं पवित्र तीर्थों में। इसीलिये शास्त्रों ने तीर्थ यात्रा को इतना महत्व दिया है और तीर्थों में जाकर सत्संग करने तथा संतजनों के द्वारा सेवित पवित्र स्थानों के दर्शन, पवित्र नदी या जलाशयों में स्नान और पवित्र वातावरण में विचरण करने की आज्ञा दी है।
तस्मात् तीर्थेषु गन्तव्यं नरैः संसारभीरूभिः। ‘इसीलिये संसार से डरे हुए लोगों को तीर्थों में जाना चाहिये परन्तु तीर्थसेवन का परम फल उन्हीं को मिलता है जेा विधिपूर्वक यहां जाते हैं और तीर्थों के नियमों का सावधानी तथा श्रद्धा के साथ सुखपूर्वक पालन करते हैं। जो लोग ‘तीर्थ-काक’ होते हैं- तीर्थों में जाकर भी कौवे की तरह इधर-उधर गंद विषयों पर ही मन चलाते तथा उन्हीं की खोज में भटकते रहते हैं, वे तो पूरा पाप कमाते हैं और इससे उन्हें दुस्तर नर्कों की प्राप्ति होती है। यह याद रखना चाहिये कि ‘तीर्थों में किये हुए पाप वज्रलेप हो जाते हैं।’ वे सहज में नही मिटते। पवित्र होकर दीर्घकाल तक तीर्थ-सेवन से या भगवान के निष्काम भजन से ही उनका नाश होता है।

तीर्थयात्रा की विधि

तीर्थयात्रा की विधि यह है कि सबसे पहले तीर्थ में श्रद्धा करें, तीर्थों के महात्म्य में विश्वास करें, उसको अर्थवाद न समझकर सर्वथा सत्य समझे, घर में ही पहले मन-इन्द्रियों के संयम का अभ्यास करें और उपवास करें। श्रीगणेश जी की, देवता, ब्राह्मण और साधुओं की पूजा करे, पितृ-श्राद्ध करें और पारण करें। इसके बाद भगवान के नाम का उच्चारण करते हुए यात्रा आरम्भ करें। तीर्थादि में स्नान करके दान करें। तदनन्तर लोभ, द्वेष और दम्भादि का त्याग करके मन से भगवान का चिन्तन और मुंह से भगवान का नाम-कीर्तन करते हुए तीर्थ के नियमों को धारण करके यात्रा करें। तीर्थयात्रा के लिये पैदल जाने की ही प्राचीन विधि है। उस काल में तीर्थप्रेमी नर-नारी वापस लौटने-न-लौटने की चिन्ता छोड़कर परम श्रद्धा के साथ संघ बनाकर तीर्थ यात्रा के लिए निकलते थे।

उन दिनों न तो रेल या मोटर आदि की सवारियां थीं और न दूसरी सुविधाएं थीं। तीर्थयात्री संघ घाम-वर्षा सहता हुआ बड़े कष्ट से यात्रा करता था परन्तु श्रद्धा इतनी होती थी कि वह उस कष्ट को उत्साह के रूप में परिणत कर देती थी। आजकल की तीर्थ यात्रा तो सैर-सपाटे की चीज हो गयी है। जो लोग छुट्टियां मनाने और भांति-भांति से मौज-शौक या प्रमोद करने के लिये तीर्थों में जाते हैं, उनको तीर्थ के फल की प्राप्ति नहीं होती है। जो श्रद्धापूर्वक तीर्थ सेवन के लिये जाते हैं उनके लिए भी आजकल बड़ी आसानी हो गयी है। ऐसी अवस्था में कुछ नियम आवश्यक बना लेने चाहिये, जिससे जीवन संयम में रहे, प्रमाद न हो और तीर्थयात्रा सफल हो।

तीर्थ-सेवन के नियम

तीर्थ में कैसे रहना चाहिये और तीर्थ का परम फल किसे प्राप्त होता है ? इस सम्बन्ध में शास्त्र के वचन हैं- ‘जिसके हाथ परै, मन भली-भांति संयमित है, जो विद्या, तप तथा कीर्ति से सम्पन्न है, जो मन को शुद्ध करके श्रद्धा व विश्वास से युक्त, जो दान का त्यागी, यथालाभ संतुष्ट तथा अहंकार से छूटा हुआ है, जो दम्भरहित, आरम्भरहित, लघु-आहारी, जितेन्द्रिय तथा सर्वसंगों से मुक्त है, जो क्रोधरहित निर्मलमति, सत्यवादी तथा दृढ़वती है और समस्त प्राणियों को अपने आत्मा के समान देखता है वह तीर्थ का फल प्राप्त करता है।’

तीर्थसेवन का परम फल

तीर्थयात्रा या तीर्थसेवन का वास्तविक परम फल है- ‘भगवत्प्राप्ति’ या ‘भगवत्प्रेम’ की प्राप्ति, पाप का नाश तथा मनोकामना पूर्ति है। जो नर-नारी श्रद्धा-विश्वासपूर्वक, नियम-संयम से तीर्थ सेवन करते हैं, उन्हें निश्चय ही यह परम् फल प्राप्त होता है। इस परम् फल की प्राप्ति अन्यान्य साधनों से कठिन बतलायी गयी है। ‘तीर्थयात्रा से जो फल मिलता है, वह बहुत बड़ी-कड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों से भी नहीं मिलता।’ परन्तु

अश्रद्द्यानः पापात्मा नास्तिकोऽच्छिन्नसंशयः।
हेतुनिष्ठश्च पंचौते न तीर्थ फलभागिनः।।

‘अर्थात् जिनमें श्रद्धा नही है, जो पाप के लिये ही तीर्थ सेवन करते हैं, जो नास्तिक हैं, जिनके मन में संदेह भरे हुए हैं तथा जो केवल सैर-सपाटे तथा मौज-शौक के लिये अथवा किसी खास स्वार्थ से तीर्थ-भ्रमण करते हैं- इन पांचों को तीर्थ का उपर्युक्त भगवत्प्राप्ति या भगवत्प्रेम’ या मनोकामना प्राप्ति रूप परम् फल नही मिल सकता।’

तीर्थों में और क्या-क्या करना चाहिये ?

तीर्थ सेवन श्रद्धा और संयमपूर्वक करना चाहिये। तीर्थ में पितरों के लिये श्राद्ध-तर्पण दान अवश्य करना चाहिये। इससे पितरों को बड़ी तृप्ति होती है और उनका शुभाशीर्वाद प्राप्त होता है। तीर्थों में वहां के नियमों का आदर करना चाहिये। प्रसाद आदि में सत्कार-बुद्धि रखनी चाहिये। श्रद्धा और सत्कार ही सफलता उत्पन्न करते हैं। तीर्थों में कठोर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिये। मन, वाणी, शरीर से किसी प्रकार भी पुरूष को स्त्री का और स्त्री को पुरूष का संग नही करना चाहिये। तीर्थ में सुयोग्य पात्रों को (जिसको जब जिस वस्तु की यथार्थ में आवश्यकता है, वहीं उस वस्तु का पात्र है) अपनी शक्ति के अनुसार ‘दान’ करना चाहिये। तीर्थ में किए हुए दान की बड़ी महिमा है। तीर्थ यात्रा से लौटकर यथासाध्य ब्राह्मण भोजन तथा अन्नदान करना चाहिये।

इस प्रकार यह नहीं समझना चाहिये कि नियम संयम किये बिना तीर्थ-सेवन का कोई फल ही नहीं मिलता। जिस वस्तु में जो स्वाभाविक गुण है, उसका प्रभाव तो होगा ही। अग्नि को न जानकर चाहे हम उसे छू लें, उससे हाथ जलेगा ही क्योंकि यह उसका सहज गुण है। इसी प्रकार तीर्थ-सेवन से भी तीर्थ-विशेष की शक्ति के तारतम्य के अनुसार किसी न किसी अंश में पाप-नाश तो होगा ही। हां, पापों का सर्वथा विनाश और परम् फल की प्राप्ति तो नियम-संयम से तीर्थ सेवन करने पर ही होती है। अतएव तीर्थ यात्रा सभी को करनी चाहिये। इसमें देशाटन का लाभ मिल जाता है और नयी-नयी बातें सीखने-समझने को तो मिलती ही है परन्तु जहां तक बने श्रद्धा और संयम के साथ ही तीर्थ यात्रा करनी चाहिये।

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तीर्थ-यात्रा के विभिन्न फल

जो लोग भगवान् में मन लगाकर भगवत्सेवा की वृद्धि से श्रद्धा तथा संयमपूर्वक तीर्थ यात्रा करते हैं, उन्हें मनोकामना पूर्ति या मोक्ष या भगवत्प्रेम की प्राप्ति होती है। जो लोग ऐसी बुद्धि न रखकर किसी लौकिक अथवा पारलौकिक कामना से ही श्रद्धा-संयमपूर्वक तीर्थ यात्रा करते हैं, उनको अपने भाव तथा तीर्थ की शक्ति के अनुसार उनकी कामना के अनुरूप उचित फल प्राप्त होता है। किसी भी प्रकार हो, तीर्थ-सेवन है निश्चय ही लाभदायक।

लोकेंद्र चतुर्वेदी ज्योतिर्विद