नयी दिल्लीः काला मोतियाबिंद यानी ग्लूकोमा दुनिया भर में लाखों लोगों की आंखों की रोशनी छीन चुका है लेकिन फिर भी इसे लेकर समाज में पर्याप्त जागरूकता का अभाव है। यह भारत में दृष्टिहीनता की मुख्य वजह है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में ग्लूकोमा के कारण करीब 45 लाख लोगों की आखों की रोशनी चली गयी है। भारत में कम से कम एक करोड़ 20 लाख लोग ग्लूकोमा से पीड़ित हैं और कम से कम 12 लाख लोग इसकी चपेट में आकर दृष्टिहीन हो चुके हैं। देश में ग्लूकोमा के 90 फीसदी से अधिक मामले पकड़ में नहीं आते हैं। जिन लोगों के परिवार में मधुमेह, हाइपरटेंशन और ब्लड सर्कुलेशन से संबंधी बीमारियां हैं, उन्हें इसके प्रति अधिक सतर्क रहना चाहिये।
वैश्विक स्तर पर दृष्टिहीनता की दूसरी सबसे बड़ी वजह ग्लूकोमा
अगर सही समय पर ग्लूकोमा की जांच की जाये और उपचार शुरू कर दिया जाये तो इसे रोका जा सकता है। ग्लूकोमा में आंखों पर दबाव बढ़ जाता है जिसे इंट्राऑक्यूलर प्रेशर कहते हैं और यह ब्लड प्रेशर जैसा ही होता है। इंट्राऑक्यूलर प्रेशर आंखों पर पड़ने वाला फ्लूयड का दबाव है। ग्लूकोमा की दवा बीच में छोड़ देना काला मोतियाबिंद के खिलाफ लड़ाई में हार की मुख्य वजह है।
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आंखों के लिए धीमे जहर जैसी है यह बीमारी
शुरूआती चरण में ग्लूकोमा के कोई लक्षण सामने नहीं आते हैं। न ही कोई दर्द महसूस होता है और न ही आंखों में रोशनी की कमी। एक बीमारी चुपचाप आती है और यह आंखों के लिये धीमे जहर के जैसी है। ग्लूकोमा के मरीजों को यह बताया नहीं जाता है कि बीच में दवा छोड़ने का क्या परिणाम होगा जिसके कारण इसकी दवा लोग अक्सर बीच में छोड़ देते हैं और यह बीमारी अधिक गंभीर हो जाती है। ग्लूकोमा के मरीजों को यह जानना होगा कि दवा से ग्लूकोमा को सिर्फ नियंत्रित किया जा सकता है, खत्म नहीं। ग्लूकोमा की दवा महंगी होने के कारण भी कई बार मरीज इसे लेना बंद कर देते हैं जिससे दृष्टिहीनता का खतरा बढ़ जाता है। लोगों को इस बीमारी के बारे में जागरुक करना जरूरी है क्योंकि इसका कोई लक्षण दिखता नहीं है और यह ऑप्टिक नर्व को क्षतिग्रस्त करके दृष्टिहीनता लाती है।
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