उपेक्षित हैं बलिदान के मौन साक्षी बूढ़े दरख्त

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1857 की क्रांति से पहले अंग्रेजों को यह स्वप्न में भी आभास नहीं रहा होगा कि हिन्दुस्तान की जनता विद्रोह करके सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ले लेगी। यही कारण था कि अंग्रेजी हुकूमत ने विद्रोह को सत्ता की ताकत से दबाने के लिये भारतीय सैनिकों के साथ साथ समाज में विद्रोह की अलख जगाने वाले आम भारतीयों पर बहुत जुल्म किये। विद्रोह करने वाले अथवा विद्रोहियों का साथ देने वालों को खुलेआम गोली मार देना, फांसी पर लटका देना आम बात हो गई थी। आज की तरह उस समय भी कोर्ट कचहरी तो थी लेकिन वह अंग्रेजों के अनुरुप चला करती थी। कहीं भी कोर्ट लगा कर विद्रोहियों को फांसी की सजा सुना दी जाती थी। बड़ी संख्या में फांसी देने के लिये अथवा देशवासियों को भयभीत करने के लिये आज की भाषा में तालिबानी सजा अर्थात खुले आम फांसी दी जाने लगी। सार्वजनिक स्थलों के पास मौजूद नीम या इमली के पेड़ों पर हजारों लोगो को फांसी दे दी गई। आज भी ऐसे तमाम मूक साक्षी दरख्त अपनी जगह चट्टान की तरह खड़े दिखते हैं।

नीम का पेड़

प्रयागराज के चौक बाजार में स्थित नीम के पेड़ में अंग्रेज अधिकारियों के आदेश पर 600 से अधिक क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका दिया। शेरशाह सूरी की जीटी रोड के किनारे खड़े सात नीम के पेड़ों को अंग्रेजों ने उस समय फांसी घर का रुप दे रखा था। 1857 की क्रांति में भागीदार बन रहे दयाल, खुदाबख्श, कल्लू, अमीरचंद, मीर सलामत अली, लाल खां, हसन खां को अलग-अलग तारीखों में फांसी की सजा सुनाकर खुले आम पेड़ पर लटका दिया गया। मौलवी लियाकत अली के विद्रोह से बौखलाये शासकों ने बड़ी संख्या में विद्रोहियों और मेवाती मुसलमानों को भी इसी नीम के पेड़ पर फांसी पर लटका दिया गया। लोगों का कहना है कि लगभग 600 विद्रोहियों को एक साथ फांसी दे दी गई। स्थानीय अभिलेखागार के अभिलेखों में फांसी की सजा पाए लोगों के नाम तो दर्ज हैं परन्तु उनसे सम्बंधित अन्य विवरण दर्ज नहीं है। उन सात पेड़ों में से एक पेड़ ही आज बलिदान की गवाही देने के लिये खड़ा है।

पेड़ पर लटका कर फांसी दिये जाने से स्थानीय लोगों में भय व्याप्त हो गया तो 22 जुलाई 1857 को तत्कालीन कमिश्नर बहादुर थामस बाल्वर ने कोतवाल को आदेश देकर नीम के पेड़ से फांसी देने वाले सभी संसाधन उखाड़वा दिये और पेड़ पर फांसी देने का क्रम रोक दिया गया। बलिदान की मौन गाथा सुनाने वाला नीम का पेड़ आज भी वहीं पर खड़ा है जिसके चारों ओर दुकानों का झुंड है। पर्याप्त देखरेख के अभाव में अब यह पेड़ सिकुड़ रहा है, उसकी डालियां कमजोर होकर टूट रही हैं। 15 अगस्त और 26 जनवरी के अलावा शायद ही यहां कोई जनप्रतिनिधि आता हो। दिनभर गुलजार रहने वाले बाजार के बीच स्थित इस पेड़ के महत्व से अधिकांश लोग अंजान ही है। कुछ समय पहले यहां शहीद स्मारक की योजना बनी, लेकिन सामने स्थित मार्ग पर यातायात प्रभावित होने का तर्क देकर प्रस्ताव पर विराम लगा दिया गया।

फांसी इमली

शेरशाह सूरी के जीटी रोड पर ही फांसी इमली के नाम से प्रसिद्ध इमली का पेड़ प्रयागराज के चैफटका में गढ़वा गर्ल्स इंटर कॉलेज के सामने है जहां अनेक लोगों को फांसी पर लटकाया गया है। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की असफलता के बाद अंग्रेजों ने विद्रोहियों को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया था। जिन्हें आस पास से पकड़ा जाता उन्हें अदालत में सजा सुनाने के बाद इसी इमली के पेड़ पर फांसी दी जाती थी। यहां लगे एक पुराने टिन के बोर्ड पर लिखी बातों पर यकीन करें तो इस पेड़ पर 100 लोगों को फांसी दी गई थी। हालांकि इतिहासकार इस संख्या पर एकमत नहीं हैं।

UP student doing IIT coaching in Kota hanged himself

ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों के साक्षी इस पेड़ को संजोने के लिए प्रशासन द्वारा अब तक कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया है। फांसी इमली की दास्तान सरकारी अभिलेखों में भी दर्ज हैं। इस फांसी इमली के चबूतरे पर लोग समय व्यतीत करते मिल जाएंगे। कभी स्थानीय छुटभैया दुकानदार उसी चबुतरे पर अपना सामान फैलाकर बेचा करते थे, लेकिन अब विराम लग गया है। आसपास जरुर ठेला लगाकर नारियल पानी, चाट फुलकी या मोबाइल के सामान बेचने वाले अपना कब्जा जमाये मिल जाएंगे। इमली के ठूठ को बीचों बीच रख कर एक चबूतरा बना दिया गया है। बताया जाता है कि राम सिंह एडवोकेट द्वारा अपने निजी प्रयास से इस इमली के पेड़ के नीचे चबूतरे के साथ भारत माता और भगत सिंह जी की मूर्तियां लगाई गई हैं। यहां आजाद की भी मूर्ति लगी है। यह सब कुछ मात्र 10 फीट के घेरे में ही है। सरकार की ओर से कोई उल्लेखनीय प्रयास अब तक नहीं हुये हैं। यहां के विकास में एक बड़ी बाधा यह है कि स्थल के ठीक पीछे वायुसेना की भूमि है यहां विकास के लिये लगभग 12 फीट भूमि ही उपलब्ध है।

बावनी इमली

फतेहपुर जिले की बिन्दकी तहसील के पास खजुहा गांव में स्थित बावनी इमली प्रथम स्वाधीनता संग्राम के 52 शहीदों की शहादत की साक्षी है। 10 मई 1857 को बैरकपुर छावनी में मंगल पांडेय के बगावत की आग 10 जून को फतेहपुर में धधक उठी। रसूलपुर गांव के ठाकुर जोधा सिंह अटैया जो अंग्रेजी हुकूमत से देश की आजादी का स्वप्न पाले हुए थे, अपनी छोटी सी फौज बना कर अंग्रेजों के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया। जोधा सिंह नाना साहब के करीबी माने जाते थे। गुरिल्ला युद्ध में निपुण जोधा सिंह लम्बे समय तक अंग्रेजों से मुकाबला कर उन्हें परास्त करते रहे। जोधा सिंह के विद्रोह को समाप्त करने के लिये कर्नल पावेल को भेजा गया, लेकिन जोधा सिंह ने गुरिल्ला युद्ध की नीति अपना कर पावेल को मार दिया। बौखलायी अंग्रेजी हुकुमत ने क्रूर माने जाने वाले शासक कर्नल नील के नेतृत्व में सेना को भेजा गया ।

कर्नल नील ने जोधा सिंह की सेना को बहुत नुकसान पहुंचाया। जोधा सिंह को फिर से अपनी सेना, संगठन और धन की व्यवस्था करनी पड़ी थी। अंग्रेजों की तत्परता को देखते हुये उन्होनें अपना ठिकाना फतेहपुर से बदल कर खजुहा में बनाया। इसी बीच एक दिन जोधा सिंह अर्गल नरेश से संघर्ष की अगली रणनीति पर विचार विमर्श कर खजुहा लौट रहे थे तभी किसी मुखबिर ने कर्नल नील को सूचना दे दी। कर्नल नील की घुड़सवार सेना ने घोरहा गांव के पास जोधा सिंह और उनकी सेना को घेर लिया और कड़े संघर्ष के बाद जोधा सिंह और उनकी सेना को गिरफ्तार कर लिया गया। तमाम प्रकार की यातनायें दिये जाने के बाद 28 अप्रैल 1858 को जोधा सिंह और उनके 51 साथियों को एक साथ इमली के पेड़ पर लटका कर फांसी दे दी गई। यह घटना देश की क्रूरतम घटनाओं में से एक थी क्योंकि ऐलान किया गया कि जो भी इनकी लाश को उतारेगा उसे भी फांसी दे दी जायेगी। सेनानियों की लाश 35 दिन तक इमली के पेड़ पर लटकती रही। उसके बाद एक स्थानीय राजा ने क्रांन्तिकारियों के सहयोग से उन कंकालों को उतार कर गंगा में दाह संस्कार किया।

फतेहपुर के 52 स्वतंत्रता सेनानियों की शहादत का साक्षी बावनी इमली का पेड़ आज देश की धरोहर है। सेनानियों की याद बनाये रखने के लिये यहां जोधा सिंह की मूर्ति लगायी गई है तथा पेड़ के नीचे 52 छोटे स्तम्भ लगाये गये हैं जो शहीदो की कर्बानी की याद ताजा करते है। तमाम लोग इस क्रूर घटना की तुलना जलियावाला बाग से करते है और इस स्थल को उसी तर्ज पर विकसित करने की मांग करते रहे हैं जो उचित भी लगती है लेकिन तमाम प्रयासों के बाद भी अब तक तो ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं बन सका है। ऐसे शहीद स्थलों के विकास से आने वाली पीढ़ियों को राष्ट्र भक्ति की प्रेरणा जरुर मिलेगी।

सबलपुर गांव की नीम

स्वधीनता संग्राम के इतिहास में सबलपुर गांव की नीम का भी उल्लेख है। कानपुर देहात के डेरापुर तहसील अन्तर्गत आने वाले सबलपुर गांव के कुल 22 सेनानियों की कुर्बानी इतिहास में दर्ज है। 1857 में संग्राम छिड़ने के बाद पूरे देश में धधकी ज्वाला से कानपुर अछूता न रह सका। जगह-जगह लोग टोलियां बना कर अंग्रेजों के विरुद्ध सीना तान कर खड़े हो गये। जिसे जहां मौका मिला अंग्रेजी हुकुमत का नुकसान करने लगे। सबलपुर गांव के लोगों ने भी अंग्रेज अधिकारी कालिन कैपवेल की सेना के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। गांव से उठी विद्रोह की आग से अंग्रेज तिलमिला गये और बदले की भावना से गांव के उमराव सिंह, देवचंद्र, रत्ना राजपूत, भानू राजपूत, परमू राजपूत, केशव चन्द्र, धर्मा, रमन राठौर, चंदन राजपूत, बलदेव राजपूत, खुमान सिंह, करन सिंह,तथा झिझक के बाबू ऊर्फ खिलाड़ी नट को गिरफ्तार किया और बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के सबको गांव से बाहर लाकर नीम के पेड़ पर लटका कर फांसी दे दी।

1942 में भी विद्रोह के आरोप में इस गांव के 9 लोगों को पकड़ा गया और उन पर मुकदमा चला कर जेल भेज दिया गया। बताया जाता है कि उन लोगों ने भी अपनी आखिरी सांस जेल में ही ली। 22 लोगों की कुर्बानी की विरासत को सजोने के लिये गांव वालों ने नीम के पेड़ के पास चबूतरे का निर्माण कराया है। वहां लगे स्तम्भ पर सभी शहीदों के नाम दर्ज है। एक गांव से 22 लागों की कुर्बानी की घटना स्थानीय घटना बन कर रह गई है। सरकारी स्तर पर यहां के शहीदों की स्मृति संजोये रखने के लिये कोई कार्य नहीं हुआ। आज इस स्थल पर गांव वाले जरुर आकर शहीदों का स्मरण कर नई पीढ़ी को उनके बारे में बताते हैं।

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समय के साथ बूढ़े हो रहे इन मौन दरख्तों ने अपने जीवन में बहुत उतार चढ़ाव देखा है। अधिकांश अब अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं। कुछ तो पर्याप्त देखरेख न होने और मानवजनित आघातों को सहन करते हुये असमय ही सूख रहे है। आज हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो इस अभियान से जुड़े सभी का फर्ज बनता है कि ऐसी राष्ट्रीय धरोहरों को यदि किसी प्रकार से संजोया या बचाया जा सकता हो तो अवश्य प्रयास करना चाहिये। क्योंकि जब तक हमारे पास ऐसी धरोहरें है तब तक युवा पीढ़ी को राष्ट्र भक्ति की सहज प्रेरणा इन बूढ़े मौन दरख्तों से मिलती रहेगी।

हरि मंगल