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2024 में NDA बनाम I.N.D.I.A विपक्षी एकता या संतरा एकता?

2024 के लोकसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। रण क्षेत्र सजने लगा है। पक्ष और विपक्ष दोनों तैयारी में हैं। वे जी-जान से जुटे हैं। कोई कोर कसर न रह जाए, इस संदर्भ में 18 जुलाई का दिन भारतीय राजनीति में ऐतिहासिक दिन बन गया। इसने महाभारत की याद दिला दी। किस तरह कौरवों और पाण्डवों ने अपने पक्ष में करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था। कमोबेश वही हालात हैं। जहां विपक्ष ने बेंगलुरु में ‘स्पेशल-26’ का आयोजन किया गया, जिसमें 26 दल जुटे और दो दिनों तक लम्बी बैठक की, वहीं दिल्ली के अशोका होटल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में एनडीए के 38 दलों की मीटिंग हुई। उन्होंने शक्ति प्रदर्शन किया, जिसे ‘सुपर-30’ नाम दिया गया। ऐसे में उल्लेखनीय है कि एनडीए का गठन अटल विहारी बाजपेई के कार्यकाल में पच्चीस साल पहले 1998 में हुआ था। शुरुआत में इसमें 13 दल शामिल थे। यह भाजपा की पहल पर बना और पूरी तरह उसी पर निर्भर भी है। एक समय इसमें 42 दल थे, लेकिन अनेक दल इससे अलग हुए। 2024 आते-आते भाजपा को साथियों की याद सताने लगी है तथा उन्हें फिर से जोड़ने और रूठे को मनाने के काम पर जोर दिया गया। इस दौरान अमित शाह चाणक्य की भूमिका में नजर आए। जो छिटक गए थे, उनकी घर वापसी हुई है। दिल्ली बैठक में चिराग पासवान, जीतनराम मांझी, ओमप्रकाश राजभर, उपेन्द्र कुशवाहा आदि शामिल हुए। विपक्ष ने नई बोतल में पुरानी शराब भरने का काम किया है। अब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस (आईएनडीआईए) के नाम से जाना जएगा। यह विपक्ष के गठबंधन का नया नाम होगा। इसे आम भाषा में इंडिया कहा जाएगा। प्रचार यह होगा कि 2024 का चुनाव एनडीए बनाम इंडिया के बीच है। बेंगलुरु हो या दिल्ली, इन बैठकों में सकारात्मक बातें तो कम हुई, एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप अधिक हुआ। मुद्दे तो बस छौंक की तरह थे। पूर्वोत्तर का एक प्रान्त मणिपुर बीते तीन महीने से जल रहा है और वह अंतर्राष्ट्रीय चर्चा में है। उस त्रासदी की गूंज यूरोपियन यूनियन की संसद में सुनने को मिली, लेकिन पक्ष और विपक्ष की बैठक में इस पर कोई एक्शन प्रोग्राम नहीं है। प्रधानमंत्री की कोई पहल नहीं है। एक की कवायद तीसरी बार दिल्ली की कुर्सी पर सत्तासीन होने की है, तो विपक्ष की सारी ताकत मोदी सरकार को सत्ताच्यूत कर देने में लगी है। दोनो तरफ ऐसे अनेक दल हैं, जिनका लोकसभा में कोई सदस्य नहीं हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि 2024 में ऐसे छोटे दलों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। इनके पास अपना जनाधार है। ये अपने बूते तो कोई सीट नहीं जीत सकते, लेकिन इनका समर्थन मिलने से गठबंधन को लाभ मिल सकता है तथा इसलिए इनका साथ आवश्यक है। वहीं, इन्हें भी लगता है कि 2024 के महाभारत में उनका भी महत्व है। एक-दो सीट पर विजयश्री राष्ट्रीय राजनीति में उनके कद को बढ़ाएगा। संप्रति, पक्ष और विपक्ष के बीच जो मूल फर्क है, वह नरेंद्र मोदी और उनका जादुई व्यक्तित्व है। 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए ने चुनाव लड़ा था। उस वक्त चुनाव प्रचार के केंद्र में गुजरात मॉडल था और वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे, लेकिन 09 वर्षों में राज्य की राजनीति से निकलकर वे राष्ट्रीय क्षितिज पर छा चुके हैं। आज भारत में मोदी मॉडल है। यह लोकप्रिय हुआ है। मोदी की स्वयं की छवि अब राष्ट्रीय ना होकर अंतर्राष्ट्रीय हो गई है। पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद वे तीसरे भारतीय नेता है, जिनकी अंतर्राष्ट्रीय ख्याति है। नरेन्द्र मोदी ने अपनी आक्रामक शैली राजस्थान और मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार से शुरू कर दिया है, जहां लोकसभा से पहले राज्य विधानसभा का चुनाव होना है। भाजपा किसी भी कीमत पर कर्नाटक की कहानी को इन राज्यों में नहीं दोहराना चाहती है। nda-vs-i-n-d-i-a-opposition-unity-or-orange-unity

विपक्ष की एकता के पीछे कारक

विपक्ष भी कमर कस कर मैदान में है। कर्नाटक चुनाव में मिली बड़ी सफलता से कांग्रेस बहुत उत्साहित है। ऐसे में गौरतलब है कि, कर्नाटक चुनाव में नरेंद्र मोदी और उनकी टीम ने धुआंधार प्रचार किया था, लेकिन उसे सफलता हाथ नहीं लगी। यही नहीं देश के करीब आधा दर्जन राज्यों में जहां भाजपा की सरकारें थीं या ऐसी सरकारें थीं जिनमें भाजपा शामिल थी, आज वहां विपक्ष की सरकारें हैं। ऐसे में कहने का आशय है कि परिदृश्य बदला है। विपक्ष का यह भी आरोप है कि संस्थाओं की स्वायत्तता सीमित हुई है। लोकतंत्र खतरे में पड़ा है। मोदी सरकार ने सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स का इस्तेमाल विरोधी दलों के नेताओं के विरुद्ध किया है। वह कांग्रेस मुक्त भारत से लेकर विपक्ष मुक्त भारत की लाइन पर काम कर रही है। भाजपा की रणनीति का यह हिस्सा है कि वह विपक्षी दलों की सरकार को अस्थिर करें, उसमें टूट-फूट पैदा करें और जोड़-तोड़ के द्वारा वहां अपनी सरकार स्थापित करें। ऐसा पहले मध्य प्रदेश में हुआ फिर हाल में महाराष्ट्र में। चुनाव आयोग और न्यायालय की भी निष्पक्षता पर सवाल उठे हैं। इन सबकी विपक्ष को एकजुट करने में भूमिका है। नीतीश कुमार जो कल तक एनडीए के प्रमुख नेता थे, आज विपक्ष के कर्णधार और मोदी सरकार विरोधी एकता के सूत्रधार बने हुए हैं। उन्हीं की पहल पर पटना में 23 जून को विरोधी दलों की बैठक हुई। 2019 के चुनाव से यह भिन्नता है, इसलिए यह विचार का विषय है कि यह एकता कितनी व्यवहारिक है तथा जमीनी हकीकत में बदलती है। यह निष्कंटक भी नहीं है। इसमें अड़चने क्या हैं? पटना में आम आदमी पार्टी का स्वर अलग था। एकता की उसकी अपनी शर्त थी। उस बैठक के बाद ही एनसीपी में फूट पैदा हो गई, इसलिए प्रश्न है कि यह विरोधी दलों की एकता क्या उनके क्षुद्र स्वार्थ के लिए है? ऐसे में कहीं यह संतरा एकता तो नहीं?

खिचड़ी सरकारों का अनुभव

भारत में बहुदलीय लोकतांत्रिक प्रणाली है। यहां कुकुरमुत्ता की तरह नए-नए राजनीतिक दल उगते रहते हैं। पंजीकृत दलों की संख्या हजारों में है। दलों में टूट-फूट सामान्य परिघटना है। दल-बदल कानून भी इसका कोई कारगर उपाय नहीं ढूंढ पाया है। महाराष्ट्र की परिघटना ताजातरीन उदाहरण है। ऐसी घटनाएं होती ही रहती हैं। चुनाव आयोग ने 06 दलों को राष्ट्रीय दल की मान्यता प्रदान की है, लेकिन भाजपा और कांग्रेस को छोड़कर किसी भी दल के पास राष्ट्रीय स्तर का ढांचा नहीं है और न आधार ही है। यही कारण है कि पहले कांग्रेस के हाथ में सत्ता की बागडोर रही है। उसके बाद भाजपा के पास है। इससे इतर जो प्रयोग हुए, वह सफल नहीं हुए। उनका अपना कार्यकाल पूरा करना भी कठिन रहा है। 1977, 1989 तथा उसके बाद की संयुक्त मोर्चा सरकारों का अनुभव अच्छा नहीं रहा है। वे देश को एक स्थिर सरकार देने में असफल रहे हैं। इंदिरा गांधी के कार्यकाल के बाद कांग्रेस लगातार कमजोर होती चली गई है। वह एक परिवार में सिमटती चली गई है। इस दौरान भाजपा ने शक्ति ग्रहण की है। वर्तमान में कांग्रेस की कुछ राज्यों में ही सरकारें हैं। जनता के बीच भी यह प्रचारित है कि भाजपा ही देश में एक स्थिर सरकार दे सकती है। अब कांग्रेस इस भूमिका में नहीं है। इस स्थिति में भाजपा का विकल्प यदि है कहीं तो मिली-जुली सरकार है, जिसमें कांग्रेस भी शामिल है। ऐसी सरकार का सत्तासीन होना देश में राजनीतिक अस्थिरता को न्योता देना है। भाजपा की लगातार कोशिश है कि देश में विपक्ष कमजोर होता जाए। इसके लिए उसने सभी तरह के तौर-तरीके अपनाएं हैं। उसे काफी हद तक सफलता भी मिली है। ऐसे में मोदी सरकार के 09 साल के कार्यकाल में पहली बार पटना में विपक्षी दलों का समागम हुआ। इसमें 17 विपक्षी दल शामिल हुए। उन्होंने तय किया की 2024 में भाजपा के खिलाफ मिलकर लड़ेंगे। ऐसा तय करना जितना आसान है, उसे अमलीजामा पहनाना उतना ही मुश्किल। इस बैठक में विपक्ष के 32 नेता शामिल हुए। इसकी मेजबानी नीतीश कुमार ने की और बैठक भी उनके सरकारी आवास पर हुई। इस मेजबानी की भी एक वजह है। वह यह है कि कांग्रेस की पहल पर ऐसी एकता की संभावना कम नजर आ रही थी, इसीलिए इस एकता की बागड़ोर नीतीश कुमार के हाथ में सौंपी गई तथा स्थान भी बिहार की राजधानी पटना चुना गया। आगे की रणनीति बनाने के लिए अगली बैठक शिमला में करने की घोषणा हुई, लेकिन वहां बाढ व भूस्खलन जैसी आपदा को देखते हुए यह बैठक कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में 17 व 18 जुलाई को हुई। पटना बैठक को कांग्रेस सहित अनेक विपक्षी दलों ने सफल माना, लेकिन विपक्षी एकता को लेकर कुछ बातें अवश्य ध्यान देने लायक है। पहली, बैठक में आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल शामिल हुए, लेकिन प्रेस कॉन्फ्रेंस में वे नहीं शामिल हुए। उन्होंने मोदी सरकार के अध्यादेश पर कांग्रेस के रुख को स्पष्ट करने की बात पर जोर दिया। यह आप की ओर से एकता की शर्त बन गया है। दूसरी, इस एकता को दूसरा ग्रहण एनसीपी में आई फूट से लगा। एनसीपी के प्रमुख नेता प्रफुल्ल पटेल जो इस बैठक में शामिल थे, महीना बीता भी नहीं कि उन्होंने एनसीपी से अपना नाता तोड़ा और महाराष्ट्र की शिंदे सरकार में शामिल हो गए। तीसरी बात, कुछ राज्य स्तरीय पार्टियों ने इस बैठक से अपने को दूर रखा या वे इसमें आमंत्रित नहीं की गईं। जैसे उड़ीसा से बीजू जनता दल, तेलंगाना से बीआरएस, उत्तर प्रदेश से बसपा, आंध्र प्रदेश से वाईएसआर कांग्रेस आदि। इसीलिए इस एकता पर संदेह उत्पन्न होता है कि यह मोदी सरकार का कितना कारगर विकल्प प्रदान कर पाएगी। वैसे भारत में संयुक्त मोर्चा या खिचड़ी सरकारों का अनुभव खराब रहा है। इन सब के बाद भी कई अनेक अड़चनें और जटिलताएं हैं, जो एकता की राह में बड़ी बाधा है। nda-vs-i-n-d-i-a-opposition-unity-or-orange-unity

दलों का लेखा-जोखा

देश में सबसे ज्यादा विधायक भाजपा के हैं। भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए की देश के 15 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में सरकार है। मोदी सरकार के आने के बाद एक समय उसकी 22 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में सरकार थी। उसके पास देशभर में इस समय 1,361 विधायक हैं, जिसमें सबसे ज्यादा 255 विधायक उत्तर प्रदेश में हैं। इसके अलावा गुजरात में 156, मध्य प्रदेश में 130 और महाराष्ट्र में 105 विधायक हैं। देश के 10 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में इस समय भाजपा की अपनी सरकार है। इस लिस्ट में दूसरे नंबर पर कांग्रेस है। पार्टी के पूरे देश में इस समय 723 विधायक हैं। देश के 04 राज्यों में कांग्रेस की सत्ता है। बिहार और झारखण्ड में वह सरकार में भागीदार है। कांग्रेस के सबसे ज्यादा विधायक 135 कर्नाटक में हैं, जहां पार्टी ने हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में बड़ी जीत हासिल की है। इसके बाद राजस्थान में 108, मध्य प्रदेश में 96, छत्तीसगढ़ में 71 विधायक हैं। विधायकों के हिसाब से देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी की टीएमसी है। बंगाल के सत्तारूढ़ दल के देशभर में कुल 226 विधायक हैं। इनमें सबसे ज्यादा विधायक 220 पश्चिम बंगाल में हैं जहां पार्टी सत्ता पर काबिज है। इसके अलावा मेघालय में टीएमसी के पांच विधायक हैं। इस सूची में चौथे नंबर पर दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी है। आप के देशभर में कुल 161 विधायक हैं। पार्टी की इस समय दिल्ली और पंजाब में सरकार है। आप के सबसे ज्यादा विधायक 92 पंजाब में हैं, जबकि दिल्ली में पार्टी के 62 विधायक हैं। आप के बाद इस लिस्ट में आंध्र प्रदेश के सीएम वाईएस जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस है, जिसके कुल 147 विधायक हैं। राष्ट्रीय दल की मान्यता प्राप्त यूपी की पूर्व सीएम मायावती की बीएसपी के पास महज 07 विधायक हैं। यह भी पढ़ेंः-बीमार बेटी की दवा लेने जोधपुर जा रहे परिवार की कार बस से टकराई, तीन की मौत

विपक्ष की एकता: कुछ प्रश्न?

विपक्षी एकता के उन पहलुओं पर भी विचार आवश्यक है, जहां उनके बीच एकता स्थापित होना या मिलकर चुनाव लड़ना आसान नहीं है। जिन राज्यों में कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधी टक्कर है, वहां ऐसी दिक्कत नहीं आएंगी। ऐसे करीब 08 राज्य हैं। उन राज्यों में भी तालमेल संभव है, जहां कांग्रेस/यूपीए की सरकार है या राज्य सरकारों में कांग्रेस शामिल है जैसे बिहार, झारखंड व तमिलनाडु। विपक्षी एकता में दिक्कत वहां होनी है, जहां त्रिकोणीय या बहुकोणीय संघर्ष है तथा विपक्ष के कई दलों की भी उपस्थिति है। अतीत में कांग्रेस के साथ उनकी हाल-फिलहाल तक टकराहट की हालत है। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में सपा के साथ कांग्रेस का क्या सीटों का समझौता हो पाएगा? केरल में तो कांग्रेस और वाममोर्चा के बीच सीधी टक्कर है। वहीं पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में कांग्रेस व वाममोर्चा मिलकर चुनाव लड़ते हैं। ऐसे में क्या ममता बनर्जी के साथ इनकी एकता संभव है, जहां दोनों दल ममता बनर्जी के विरोध में हैं? इसी तरह दिल्ली व पंजाब जहां आप की सरकार है, यहां कांग्रेस विपक्ष में है। वहां क्या एकता की कोई सूरत निकलेगी? उड़ीसा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में भाजपा विरोधी मतों का बंटवारा न हो जैसे कई ज्वलंत विषय हैं, जिनसे विपक्षी एकता को निपटना होगा। ऐसे में देश का राजनीतिक तापमान अपने चरम पर है। बेंगलुरु में विपक्ष की बैठक हुई तो दिल्ली में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए ने विपक्ष के विरुद्ध अपनी एकता और शक्ति का प्रदर्शन किया। विपक्ष की पटना बैठक में 17 राजनीतिक दल शामिल हुए थे, वहीं बेंगलुरु में 26 दल शामिल हुए। कांग्रेस और आप के बीच का गतिरोध भंग हुआ। आप बैठक में शामिल हुआ। पटना बैठक के केन्द्र में नीतीश कुमार थे तो वहीं बेंगलुरु में सोनिया गांधी रहीं। उन्हीं को ओर से रात्रि भोज दिया गया। भाजपा के अध्यक्ष जेपी नड्डा के अनुसार एनडीए लगातार मजबूत हो रहा है। इसका उदाहरण दिल्ली बैठक में 38 दलों का शामिल होना है। उनका कहना है कि विपक्षी गठबंधन भानुमति का कुनबा है। उसके पास न नेता है, न कोई नीति है और न निर्णय लेने की क्षमता है। एनडीए की बैठक की अध्यक्षता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने की और इस दौरान उन्होंने विपक्ष पर तीखा वार करते हुए कहा कि यह गठबंधन परिवार का, परिवार के लिए और परिवार के द्वारा है। उनका आरोप था कि यह जातिवादी, क्षेत्रवादी, भ्रष्टाचार और अवसरवादी गठबंधन है। उन्होंने इस दौरान चुटकी लेते हुए कहा कि न खाता, न बही, जो परिवार कहे वही सही। फिलहाल यही माना जा सकता है कि मोदी सरकार के 09 साल के कार्यकाल में पहली बार विपक्ष सैद्धांतिक रूप से एकजुट हुआ है। बेंगलुरु बैठक में जिन मुद्दों पर सहमति बनी हैं, उसमें एक, 450 सीटें ऐसी हैं जहां भाजपा के विरुद्ध एक प्रत्याशी संभव है। दो, यूपीए को विस्तार देकर गठबंधन का नया नाम दिया गया। तीन, इसके संचालन के लिए ग्यारह सदस्यीय समन्वय समिति बनेगी। इसी के साथ गठबंधन का अध्यक्ष व संयोजक होगा। न्यूनतम कार्यक्रम बनेगा। अलग-अलग मुद्दों के लिए अलग कमेटी का गठन किया जाएगा। बेंगलुरु की दो दिनों की मैराथन बैठक में गठबंधन का नाम ही तय हो पाया। आगे मुम्बई में तीसरी बैठक होगी। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि विपक्ष के बीच टकराहट के जिन मुद्दों की ऊपर चर्चा की गई है, वे कैसे हल होंगे? बेंगलुरु बैठक के दौरान ही सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने बंगाल में ममता बनर्जी के साथ किसी भी गठबंधन को खारिज कर दिया। ऐसे में गठबंधन कहां तक जमीन पर उतरता है, यह देखना बाकी है। कही यह संतरा एकता बनकर न रह जाए। मतलब ऊपर से एकता तो बन जाए, परन्तु अन्दर उसमें फांक ही फांक हो। कौशल किशोर