Muharram: हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद में मनाया जाता है मोहर्रम, जानें इसका इतिहास

0
209

नई दिल्लीः मुस्लिम समुदाय का सबसे पवित्र माह मोहर्रम माना जाता है। इस्लामिक कैलेंडर का यह पहला माह होता है। इस माह से ही इस्लाम के नये वर्ष की शुरूआत होती है। मोहर्रम मुसलमानों के लिए इसलिए भी बेहद खास होता है क्योंकि इस माह की 10 तारीख को हजरत इमाम हुसैन की शहादत हुई थी। हजरत इमाम हुसैन इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मोहम्मद साहब के छोटे नवासे थे। मोहर्रम माह की 10 तारीख को कर्बला में हजरत इमाम हुसैन ने अपने 72 साथियों के साथ शहादत थी। हजरत इमाम हुसैन ने जुल्म के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। मोहर्रम माह की 10 तारीख को रोज-ए-आशुरा कहा जाता है। इस दिन इमाम हुसैन की शहादत की याद में ताजिया और जुलूस निकाला जाता है। ताजिया निकालने की परंपरा सिर्फ शिया मुस्लिमों में ही देखी जाती है। वहीं सुन्नी समुदाय के लोग तजियादारी नहीं करते हैं। शिया उलेमा के अनुसार मोहर्रम का चांद निकलने की पहली तारीख से ही ताजिया रखने का सिलसिला शुरू हो जाता है और मोहर्रम की 10 तारीख को इसे कर्बला में दफन कर दिया जाता है। इस दौरान लोग काले कपड़े पहनकर मातम मनाते हैं। जुलूस के दौरान लोग करतब करते हुए ‘या हुसैन, हम न हुए’ कहते हैं।

मोहर्रम का इतिहास
लगभग 1400 साल पहले तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी। कहा जाता है कि इस्लाम धर्म के पवित्र मदीना से कुछ दूरी पर स्थित ‘षाम’ में मुआविया नाम शासक राज करता था। उसकी मृत्यु के बाद उसका वारिस यजीद शाम की गद्दी पर बैठा। यजीद बेहद क्रूर और अवगुणों से भरा हुआ शासक था। यजीद यह चाहता था कि उसके शासक होने का ऐलान मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन करें। जिससे उसकी ख्याति और भी ज्यादा बढ़ जायेगी। लेकिन इमाम हुसैन ने यजीद को शासक मानने से साफ इनकार कर दिया। यह बात यजीद को नागवार गुजरी। इसके साथ ही इमाम हुसैन ने यह भी फैसला किया वह अपने नाना मोहम्मद साहब का शहर मदीना छोड़ देंगे जिससे वहां अमन कायम रह सके। इस तरह इमाम हुसैन अपने परिवार और कुछ चाहने वालों के साथ इराक की तरफ जा रहे थे। लेकिन कर्बला के पास यजीद की सेना ने उन्हें घेर लिया। यजीद ने उनके साथ कुछ शर्तें रखीं जोकि इमाम हुसैन ने नहीं मानी। तब यजीद ने उनसे जंग करने को कहा।

ये भी पढ़ें..राष्ट्रमंडल खेल के 10वें दिन आई पदकों की बारिश, भारत ने…

इमाम हुसैन ने इस दौरान फुरात नदी के किनारे रूकने का निर्णय किया और तम्बू लगाकर अपने काफिले के लोगों के साथ वहां रूक गये। लेकिन यजीद सेना ने उन्हें वहां रहने से रोका। यहीं नहीं फुरात नदी का पानी लेने से भी मना कर दिया। इमाम हुसैन जंग नहीं चाहते थे। क्योंकि उनके काफिले में केवल 72 लोग ही थे। इसमें उनके छह माह का बेटा, पत्नी, बहन-बेटियां और उनके अनुयायी शामिल थे। यह माह मोहर्रम का था और गर्मी के दिन चल रहे थे। सात मोहर्रम तक इमाम हुसैन के पास जितना खाना और पानी था वह सब खत्म हो गया। उनके काफिले के सभी सदस्य भूख और प्यास के मारे तड़पने लगे। इमाम हुसैन ने तब भी सब्र का परिचय देते हुए जंग को टालने का भरसक प्रयास किया। लेकिन यजीद की सेना जंग करने पर अमादा थी। तब इमाम हुसैन के काफिले के एक-एक कर सभी सदस्य ने जंग की और यजीद की सेना के हाथों मारे गये। अंत में असर (दोपहर) की नमाज के बाद इमाम हुसैन भी जंग करने गये और वह भी मारे गये। इस जंग में उनका एक बेटा जैनुलआबेदीन ही जिंदा बचे क्योंकि वह बीमार थे। बाद में उन्हीं से मोहम्मद साहब की पीढ़ी चली। इमाम हुसैन की इसी शहादत की याद में मोहर्रम मनाया जाता है।

अन्य खबरों के लिए हमें फेसबुक औरट्विटरपर फॉलो करें व हमारे यूट्यूब चैनल को भी सब्सक्राइब करें…