संपादकीय

सामाजिक समरसता का उदाहरण हैं माता शबरी

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भक्त शिरोमणि शबरी (Mata Shabari) वनवासी भील समुदाय से थीं। फिर भी मतंग ऋषि के गुरु आश्रम के उत्तराधिकारी बनी। रामजी ने उसके झूठे बेर खाये। यह कहानी भारतीय समाज की उस आदर्श परंपरा का उदाहरण है कि व्यक्ति को पद, प्रतिष्ठा और सम्मान उसके गुणों और योग्यताओं के आधार पर मिलता है, जन्म या जाति के आधार पर नहीं।

भक्त शिरोमणि शबरी का जन्म फाल्गुन कृष्ण पक्ष सप्तमी को हुआ था। इस साल यह तिथि 2 मार्च को है। उनका जन्म त्रेतायुग यानी रामायण काल में हुआ था। इस समयावधि को लेकर भारतीय कैलेंडर के अनुमान और पश्चिमी दुनिया की गणनाओं में जमीन-आसमान का अंतर है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि माता शबरी का जन्म किस वर्ष और संवत में हुआ था। यह कथा वाल्मिकी रामायण और तुलसी रचित रामचरित मानस के अरण्य काण्ड में है। इसके अलावा यह पद्म पुराण सहित कुछ अन्य ग्रंथों में भी है। अतः माता शबरी की कहानी की प्रामाणिकता पर संदेह करने का प्रश्न ही नहीं उठता। यह कहानी सिर्फ रामायण काल की किसी घटना या पात्र का वर्णन नहीं है। यह घटना सफलता पाने के लिए समर्पण और एकाग्रता का संदेश देती है।

देवी शबरी का समर्पण गुरु सेवा के साथ-साथ राम भक्ति में भी है। इसके साथ ही शबरी कथा में भारतीय सामाजिक जीवन की व्यवस्था का दर्शन भी मिलता है कि भारतीय सामाजिक जीवन में जन्म और जाति के आधार पर किसी को सम्मान या स्थान नहीं मिलता, बल्कि उसके लिए गुण, कर्म और योग्यता आवश्यक है। योग्यता के आधार पर ही देवी शबरी ऋषि आश्रम की अधिष्ठात्री बनीं। उनका जन्म वनवासी भील समुदाय में हुआ था। उनके जीवन की कुछ घटनाओं ने उनके मन में संसार के प्रति उदासीनता की भावना जागृत कर दी और वह एक योग्य गुरु की तलाश में निकल पड़ीं। गुरु की खोज करते-करते वह मतंग ऋषि के आश्रम में पहुँची। जब उन्हें आश्रम के अंदर जाने में झिझक महसूस हुई तो उन्होंने आश्रम के बाहर रहकर गुरु की सेवा करने का संकल्प लिया। वह उस रास्ते की सफाई करने लगी जिस रास्ते से ऋषि प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त में स्नान के लिए जाया करते थे। इसके साथ ही वह जंगल से लकड़ी लाकर आश्रम में पहुंचाने लगी।

मतंग ऋषि को यह जानने की जिज्ञासा हुई कि यह सेवा कौन कर रहा है। शिष्यों ने खोजकर देवी शबरी को ऋषि के सामने लाये। प्रसन्न होकर मतंग ऋषि ने देवी शबरी को अपने आश्रम में स्थान दिया। देवी शबरी ने अपना जीवन अपने गुरु की सेवा में समर्पित कर दिया। वह साधु-संतों की सेवा करती थी और उनके उपदेश सुनकर भगवान की भक्ति में लीन हो जाती थी। उनके समर्पण और समर्पित सेवा ने उन्हें पूरे आश्रम में विशेष बना दिया। महर्षि मतंग इतने प्रभावित हुए कि जब उन्होंने अपना शरीर छोड़ा तो उन्होंने देवी शबरी को अपने आश्रम का उत्तराधिकारी बना दिया। अर्थात् वनवासी समुदाय में जन्मी एक महिला महर्षि मतंग आश्रम की उत्तराधिकारी बनी। देवी शबरी ने ऋषि आश्रम में अपनी सेवा और समर्पण से अपना महत्व बनाया था न कि अपनी जन्म जाति के आधार पर।

यह कहानी भारतीय समाज के बारे में किए गए उन सभी दुष्प्रचारों का खंडन करती है जिसमें कहा जाता है कि भारत में जन्म और जाति के आधार पर भेदभाव होता था और महिलाओं को पढ़ने-लिखने का अधिकार नहीं था। हो सकता है कि कुछ असाधारण घटनाएं भी हुई हों, लेकिन पूरा समाज ऐसा नहीं था। उदाहरण के लिए, किसी गांव में दो-चार चोर रहते हैं लेकिन उन दो-चार चोरों की कहानी प्रचारित हो जाती है और पूरे गांव को बदनाम हो जाता है। अपनी शक्ति को मजबूत करने के लिए विदेशी विचारकों ने ऐसी मनगढ़ंत घटनाओं का उल्लेख किया और समाज को विभाजित करने का षडयंत्र रचा। यह जनमानस में इस कदर घर कर गया कि बड़ी संख्या में भारतीय जन्म और जाति को ही मुख्य आधार मानने लगे। ऐसी सभी साहित्यिक रचनाएँ मध्यकाल में ही हुईं। यदि भारत में वनवासी समाज को हीन समझा जाता या स्त्रियों को शिक्षा से वंचित रखा जाता तो न तो देवी शबरी को ऋषि आश्रम में रहने की जगह मिलती और न ही वे ऋषि आश्रम की उत्तराधिकारी बन पातीं। वेदों के ऋषि ही नहीं, ऋषि आश्रमों की गुरु माताएं भी हैं, भारत में शिक्षा की अधिष्ठात्री कोई देवता नहीं बल्कि देवी सरस्वती हैं।

मतंग ऋषि त्रिकाल दर्शी थे। उन्हें मालूम था कि अयोध्या में भगवान नारायण का अवतार होने वाला है और वे इसी रास्ते से गुजरेंगे। यह रहस्य भी महर्षि मतंग ने देवी शबरी को ही बताया था और देवी शबरी भक्ति में लीन होकर रामजी की प्रतीक्षा करने लगीं। वर्षों तक इंतजार किया। तब उसकी तपस्या पूर्ण हुई और जब रामजी आये तो वह व्याकुल हो गयी। इतनी व्याकुल कि वह अतिथि के सत्कार की सारी औपचारिकताएँ भूल गईं। वह दौड़ी और ताजे बेर तोड़ लायी। यह सोचकर कि कोई खट्टा बेर भगवान के मुँह का स्वाद खराब न कर दे, उन्होंने एक-एक बेर चखकर उन्हें खिलाना शुरू कर दिया। रामजी भी भक्तिभाव से भर गये और जूठे बेर भी स्वाद से खाने लगे।

देवी शबरी के आश्रम जाने से पहले रामजी महर्षि अत्रि के आश्रम भी गए थे, जहां देवी अनुसुइया ने माता सीता को उपदेश दिया था। माता अनुसुइया उपदेश देती हैं और देवी शबरी ऋषि आश्रम की अधिष्ठात्री हैं। रामायण काल की इन दोनों घटनाओं में यह स्पष्ट संदेश है कि भारतीय समाज में महिलाएँ आश्रम प्रमुख और उपदेशिका दोनों रही हैं।

रामायण काल में भील वनवासी समाज में जन्मी देवी शबरी को आश्रमों और भक्ति में उच्च स्थान नहीं मिला। रामजी ने निशात, किरात, केवट आदि समाज के लोगों को मित्रता का सम्मान दिया था। ये सभी घटनाएँ भारतीय समाज के समरस स्वरूप को सामने लाती हैं।

शबरी प्रसंग में हमें संकल्प की सार्थकता के लिए एकाग्रता एवं समर्पण से कार्य करने का संदेश भी मिलता है। लक्ष्य प्राप्ति के लिए एकाग्रता, धैर्य और समर्पण की आवश्यकता होती है। देवी शबरी ने एकाग्रता और समर्पण के साथ अपने गुरु की सेवा की और रामजी की प्रतीक्षा भी एकाग्रता और समर्पण के साथ की। देवी शबरी ने मतंग ऋषि के आश्रम में जाने के लिए सेवा का मार्ग चुना और जीवन भर उसका अनुसरण किया। गुरु या शिक्षक के उपदेश या व्याख्यान से ज्ञान प्राप्त होता है। साथ ही गुरु या शिक्षक के आध्यात्मिक स्नेह से समर्पित शिष्य की आत्मिक शक्ति भी जागृत होती है, जो उसे अन्य सहपाठियों से विशिष्ट बनाती है।

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जीवन को सफल और सार्थक बनाने के लिए समर्पण भाव की आवश्यकता होती है और भगवान के मन में विशेष स्थान बनाने के लिए समर्पण भाव की भी आवश्यकता होती है। देवी शबरी ने भी एकाग्रता और समर्पण के साथ गुरु की सेवा की और रामजी की भी देखभाल की। भक्ति की यह पराकाष्ठा किसी अन्य भक्त में नहीं मिलती। यह उनके समर्पण का सम्मोहन ही था कि भगवान राम उनके झूठे बेरों का भी आनंद लेते रहे। देवी शबरी की यह कहानी निश्चित रूप से रामजी के भक्त-प्रेमी स्वभाव को सामने लाती है। यह भी संदेश देता है कि एकाग्रता और समर्पण से कार्य करके ही व्यक्ति अपने इच्छित लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। वह सफलता चाहे पद-प्रतिष्ठा पाने में हो अथवा ईश्वर प्राप्ति में।

रमेश शर्मा

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