By Election 2022: मैनपुरी में मुलायम की विरासत को बरकरार रखना अखिलेश के लिए बड़ी चुनौती

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लखनऊः समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव की विरासत को बचाने के लिए अखिलेश यादव ने मैनपुरी लोकसभा उपचुनाव में अपनी पत्नी डिंपल यादव को मैदान में उतारा है। उन्होंने डिंपल को उतार कर धर्मेंद्र यादव व तेज प्रताप यादव की होड़ को खत्म करने की कोशिश की है। लेकिन यहां का चुनावी समीकरण को मुलायम के भाई शिवपाल सिंह यादव का रुख काफी हद तक तय करेगा। सपा मुखिया अखिलेश यादव का परिवार 26 साल से इस सीट पर काबिज रहा है। उन्हें लगता है कि उनके इस निर्णय से मुलायम की सहानुभूति के अलावा महिलाओं का भी भरपूर समर्थन मिलेगा। सपा के एक स्थानीय नेता ने बताया कि सपा के बाद दूसरा कोई भी दल इस गढ़ को फतेह नहीं कर सका।

इटावा, मैनपुरी, कन्नौज, फिरोजाबाद और फरुर्खाबाद जैसे जिले सपा की गढ़ माने जाते हैं और यादवों की बड़ी आबादी के समर्थन से अधिकतर सीटों पर साइकिल का कब्जा होता रहा है। यादव बेल्ट पर शिवपाल यादव की भी पकड़ बेहद मजबूत है। उन्होंने दशकों तक इन इलाकों में गांव-गांव घूमकर काम किया है। शिवपाल यादव का यहां के बूथ स्तर तक के कार्यकर्ताओं के साथ व्यक्तिगत संबंध बताया जाता है। इसी कारण मैनपुरी सीट पर शिवपाल का काफी असर रहेगा। इसलिए अखिलेश को उन्हें साधना पड़ेगा। 2018 में पारिवारिक मतभेदों के चलते जब मुलायम सिंह यादव के छोटे भाई शिवपाल यादव ने प्रसपा का गठन कर सियासत की नई राह चुन ली। लेकिन इसके बाद भी शिवपाल सिंह ने 2019 के चुनाव में मुलायम सिंह यादव के सामने प्रसपा का प्रत्याशी उतारने से साफ मना कर दिया था।

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वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मुलायम का परिवार करीब ढाई दशक से मैनपुरी सीट पर काबिज है। शिवपाल यहां से अगर बागी होते हैं तो चुनावी समीकरण जरूर बिगाड़ सकते हैं क्योंकि उनका इस सीट पर ठीकठाक प्रभाव है। ऐसे में अखिलेश को उन्हें साधना पड़ेगा। क्योंकि मुलायम सिंह यादव के चले जाने के बाद अब शिवपाल यादव के लिए यादव बेल्ट में खुद के लिए बड़ी भूमिका तलाशना चुनौती भी है। हालांकि अभी मुलायम के प्रति सहानुभूति का लाभ अखिलेश यादव को ही मिलने के आसार ज्यादा हैं। फिर भी शिवपाल की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। चुनावी आंकड़ों की मानें तो मैनपुरी में सर्वाधिक 3.5 लाख यादव, डेढ़ लाख ठाकुर और 1.60 शाक्य मतदाता हैं। मुस्लिम, कुर्मी, लोधी वोटर तकरीबन एक एक लाख है। ब्राम्हण व जाटव डेढ़ डेढ़ लाख हैं।

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