सुख-समृद्धि, ज्ञान एवं शुभता के अधिष्ठाता देव हैं भगवान गणेश, जानें उनके प्राकट्य का रहस्य

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नई दिल्लीः प्रथम पूज्य श्री गणेश परम सात्त्विक देवता हैं। भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी को सिद्धिविनायक श्री गणेश का प्राकट्य हुआ था। वे भगवान शिव-पार्वती के पुत्र के रूप में पैदा हुए तो सभी देवता उन्हें आशीर्वाद देने आए। भगवान विष्णु ने ज्ञान का, ब्रह्मा ने यश और पूजा का, धर्मराज ने धर्म एवं दया का आशीर्वाद दिया। भगवान शिव ने उदारता, बुद्धि, शक्ति एवं आत्मसंयम का आशीर्वाद दिया। देवी लक्ष्मी ने कहा जहां श्री गणेश रहेंगे, वहां मैं रहूंगी। देवी सरस्वती ने वाणी, स्मृति एवं वक्तृत्व शक्ति प्रदान की तो देवी सावित्री ने बुद्धि। त्रिदेवों ने उन्हें अग्रपूज्य, प्रथमदेव एवं ऋद्धि-सिद्धि प्रदाता होने का वर प्रदान किया। श्री गणेश सुख-समृद्धि, ऋद्धि-सिद्धि, वैभव, आनंद, ज्ञान एवं शुभता के अधिष्ठाता देव हैं। संसार में अनुकूल के साथ प्रतिकूल, शुभ के साथ अशुभ, ज्ञान के साथ अज्ञान, सुख के साथ दुःख घटित होता ही है। प्रतिकूल, अशुभ, अज्ञान एवं दुःख से परेशान मनुष्य के लिए गणेश ही तारणहार हैं। सात्त्विक देवता और विघ्नहर्ता गणेश न केवल भारतीय संस्कृति एवं जीवनशैली के कण-कण में व्याप्त हैं, बल्कि विदेशों में भी अनेक घरों-कार्यालयों एवं अनेकों उत्पाद केंद्रों में विद्यमान हैं।

मनुष्य के दैनिक कार्यों में सफलता, सुख-समृद्धि की कामना, बुद्धि एवं ज्ञान के विकास एवं किसी भी मंगल कार्य को निर्विघ्न संपन्न करने के लिए उन्हें ही सर्वप्रथम पूजा जाता है। प्रथमदेव होने के साथ-साथ उनका व्यक्तित्व बहुआयामी और चरित्र लोकनायक का है। व्यक्तित्व एवं कृतित्व बहुआयामी एवं बहुरंगी है, अर्थात बुद्धिमत्ता, चातुर्य, युद्ध नीति, आकर्षण, प्रेम भाव, गुरुत्व, सुख-दुःख में उपस्थिति जैसे अनेकों उनके गुण हैं। एक भक्त के लिए वे भगवान तो हैं ही साथ में वे जीवन जीने की कला भी सिखाते हैं। उन्होंने अपने व्यक्तित्व की विविध विशेषताओं से भारतीय संस्कृति में लोकनायक का पद प्राप्त किया। एक ओर वे राजनीति के ज्ञाता, तो दूसरी ओर दर्शन के प्रकांड पंडित हैं। धार्मिक जगत में भी नेतृत्व करते हुए ज्ञान, कर्म, भक्ति का समन्वयवादी धर्म उन्होंने प्रवर्तित किया और भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। प्राचीनकाल से हिंदू समाज कोई भी कार्य निर्विघ्न संपन्न करने के लिए उसका आरंभ उनकी पूजा से ही करता आ रहा है। भारतीय संस्कृति, एक ईश्वर की विशाल कल्पना के साथ अनेकानेक देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना से फलती-फूलती रही है। सब देवताओं की अपनी-अपनी पूजा का विधान है। गणेश जी सुख-समृद्धि, वैभव एवं आनंद के अधिष्ठाता हैं। बड़े एवं साधारण सभी प्रकार के लौकिक कार्यों का आरंभ उनके दिव्य स्वरूप का स्मरण करके किया जाता है। व्यापारी नए वर्ष में अपने बही-खातों का आरंभ ‘श्री गणेशाय नमः’ लिखकर करते हैं। प्रत्येक कार्य का शुभारंभ गणपति पूजन एवं गणेश वंदना से किया जाता है। विवाह का मांगलिक अवसर हो या नए घर का शिलान्यास, मंदिर में मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा का उत्सव हो या जीवन में षोडश संस्कार का प्रसंग, गणपति का स्मरण सर्वप्रथम किया जाता है।

स्कंद पुराण के अनुसार जो भक्तिपूर्वक भगवान गणेश की पूजा-अर्चना करता है, उसके सम्मुख विघ्न कभी नहीं आते हैं। गणपति, गणेश अथवा विनायक सभी शब्दों का अर्थ है-देवताओं का स्वामी अथवा अग्रणी। अलग-अलग स्थानों पर गणेश जी के अलग-अलग रूपों का वर्णन है, लेकिन सब जगह एक मत से गणेश जी की विघ्नहर्ता शक्ति को स्वीकार किया जाता है। गणेश जी की आकृति विचित्र है, लेकिन इस आकृति के आध्यात्मिक संकेतों के रहस्य को यदि समझने का प्रयास किया जाए तो सनातन लाभ प्राप्त हो सकता है। गणेश अर्थात शिवपुत्र अर्थात शिवत्व प्राप्त करना होगा, अन्यथा क्षेम एवं लाभ की कामना सफल नहीं होगी। गजानन गणेश की व्याख्या करें तो ज्ञात होगा कि गज दो व्यंजनों से बना है। ज जन्म अथवा उद्गम का प्रतीक है तो ग प्रतीक है गति और गंतव्य का अर्थात गज शब्द उत्पत्ति और अंत का संकेत देता है। इसका भावार्थ ये ही है कि हम जहां से आए हैं, वहीं लौटना है। जहां जन्म है, वहां मृत्यु भी है। ब्रह्म और जगत के यथार्थ को बनाने वाले ही गजानन गणेश हैं। गणेश जी की संपूर्ण शारीरिक रचना के पीछे भगवान शिव की व्यापक सोच रही है। एक कुशल, न्यायप्रिय, सशक्त शासक एवं देव के समस्त गुण उनमें समाहित किए गए हैं। उनका गजमस्तक है अर्थात वे बुद्धि के देवता हैं, विवेकशील हैं। उनकी स्मरणशक्ति अत्यंत कुशाग्र है। हाथी की तरह उनकी प्रवृत्ति प्रेरणा का उद्गम स्थान धीर, गंभीर, शांत और स्थिर चेतना में है। हाथी की आखें अपेक्षाकृत बहुत छोटी होती हैं और उन आंखों के भावों को समझ पाना बहुत कठिन होता है।

दरअसल गणेश तत्त्ववेत्ता के आदर्श रूप में हैं। गण के नेता में गुरुता और गंभीरता होनी चाहिए, उनके स्थूलशरीर में वह गुरुता निहित है। उनका विशाल शरीर सदैव सतर्क रहने तथा सभी परिस्थितियों एवं कठिनाइयों का सामना करने के लिए तत्पर रहने की भी प्रेरणा देता है। उनका लंबोदर दूसरों की बातों की गोपनीयता, बुराइयों, कमजोरियों को स्वयं में समाविष्ट कर लेने की शिक्षा देता है तथा सभी प्रकार की निंदा, आलोचना को अपने उदर में रखकर अपने कर्तव्य पथ पर अडिग रहने की प्रेरणा देता है। छोटा मुख कम, तर्कपूर्ण तथा मृदुभाषी होने का द्योतक है। गणेश जी का व्यक्तित्व रहस्यमय है, जिसे समझ पाना हर किसी के लिए संभव नहीं है। शासक भी वही सफल होता है, जिसके मनोभावों को पढ़ा और समझा ना जा सके। अच्छा शासक वही होता है, जो दूसरों के मन को तो अच्छी तरह से पढ़ ले, लेकिन उसके मन को कोई नहीं समझ सके। गज मुख पर कान भी इस बात के प्रतीक हैं कि शासक जनता की बात को सुनने के लिए कान सदैव खुले रखे। यदि शासक जनता की ओर से अपने कान बंद कर लेगा तो वह कभी सफल नहीं हो सकेगा।

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गणेश जी को प्रथम लिपिकार माना जाता है। उन्होंने ही देवताओं की प्रार्थना पर महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत को लिपिबद्ध किया था। जैन एवं बौद्ध धर्मों में भी गणेश पूजा का विधान है। गणेश जी को हिंदू संस्कृति में आदिदेव भी माना गया है। अनंतकाल से अनेक नामों से गणेश दुःख, भय, चिंता इत्यादि विघ्नों के हरणकर्ता के रूप में पूजित होकर मानवों का संताप हरते रहे हैं। वर्तमान काल में राष्ट्रीय स्वतंत्रता की रक्षा, राष्ट्रीय चेतना, भावनात्मक एकता और अखंडता की रक्षा के लिए गणेश जी की पूजा और गणेश चतुर्थी के पर्व को उत्साहपूर्वक मनाने का अपना विशेष महत्त्व है। जन-जन के कल्याण, धर्म के सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप प्रदान करने एवं सुख-समृद्धि, निर्विघ्न शासन-व्यवस्था स्थापित करने के कारण मानवजाति सदा उनकी ऋणी रहेगी। जीवन में शुभ, मंगल एवं लाभ की प्राप्ति के लिए प्रथम पूज्य भगवान श्रीगणेश की पूजा-अर्चना करनी चाहिए।

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