धर्मनगरी अयोध्या का वैभव फिर से देश-दुनिया के सामने आने को है। 22 जनवरी को राम मंदिर का उद्घाटन इसका प्रमाण बनेगा, पर यहां तक का सफर इतना सरल नहीं रहा। असल में राम मंदिर का जो स्वप्न आज साकार होता दिखा है, उसकी डगर कठिन रही है। इसके पीछे 500 वर्षों के आहुतियों की गाथाएं हैं। यहां तक कि 1947 में देश की आजादी के बाद भी कई दशकों तक श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन अपनी गति से चलता ही रहा। राजाओं, संतों, निहंगों, कई संगठनों और विधि विशेषज्ञों ने श्रीराम के मंदिर निर्माण के लिए सतत संघर्ष किया। अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर मंदिर बनाने को 1528 से 1949 तक 06 दर्जन से अधिक बार युद्ध हुए। अब जाकर अयोध्या जगमग होने को है। अपने आराध्य श्रीराम के लिए मंदिर बनवाने की तपस्या में केवल उत्तर प्रदेश, दिल्ली के सनातनियों ने ही तप नहीं किया, कमोवेश देश के हर हिस्से का इसमें योगदान दिखा है।
पूर्वोत्तर भारत के हिस्सों पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और इसके आस-पास के राज्यों के भी कारसेवकों ने इसमें खून, पसीना बहाया। जबर्दस्त जुनून दिखाया, साधना की। बाबरी मस्जिद के गुंबद पर बंगाल के शरद और रामकुमार कोठारी नाम के भाइयों ने जो भगवा झंडा फहराया, वह इतिहास में अजर-अमर है। इसी तरह राम जन्मभूमि का ताला खोलने के लिए दबाव बढ़ाने वाले रामचंद्र दास परमहंस हों या राम जन्मभूमि में रामलला की मूर्ति स्थापित करने वाले बाबा अभिराम दास, दोनों का संबंध बिहार से है। इस सूची में ऐसे ही कई असंख्य नाम हैं, जिन्होंने चाहे कारसेवक के रूप में योगदान दिया, शहादत दी या किसी दूसरे रुप में श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन में अविस्मरणीय भूमिका निभाई है।
अयोध्या विवाद से बिहार का नौ दशक पुराना नाता
अयोध्या विवाद के साथ बिहार का संबंध करीब 89 वर्ष पुराना है। राम जन्मभूमि का ताला खोलने के लिए दबाव बढ़ाने वाले रामचंद्र दास परमहंस की बात हो या राम जन्मभूमि में रामलला की मूर्ति स्थापित करने वाले बाबा अभिराम दास की, ये दोनों मूलतः बिहार से ही रहे। रामचंद्र दास परमहंस बिहार के छपरा जिले के रहने वाले थे। बाबा अभिराम दास दरभंगा जिले के मैथिल ब्राह्मण परिवार के थे। जाने-माने पत्रकार हेमंत शर्मा ने अपनी पुस्तक “युद्ध में अयोध्या” में भी बिहार के दोनों महान संतों का जिक्र विस्तृत रुप से किया है। ताला खोलने के लिए दबाव बनाने वाले रामचंद्र दास परमहंस वर्ष 1930 में ही अयोध्या पहुंच गए थे। उस समय से ही बिहार का संबंध अयोध्या विवाद के साथ जुड़ गया। वर्ष 1934 में ही रामचंद्र परमहंस रामजन्म आंदोलन से जुड़ गए थे। रामचंद्र दास परमहंस का वास्तविक नाम चंद्रेश्वर तिवारी था।
वह बिहार के छपरा जिले के सिंहनीपुर ग्राम के थे। उनके पिता भगेरन तिवारी औऱ माता सोना देवी थीं। 1912 में चंद्रेश्वर तिवारी का जन्म हुआ था। जब वे अत्यंत छोटे बालक थे, तब ही उनकी माता का देहांत हो गया था। उसके कुछ दिनों बाद पिता भी नहीं रहे। इसके बाद उनके लालन-पालन का दायित्व सबसे बड़े भाई यज्ञानंद तिवारी के कंधों पर आ गया। कुल चार भाई और चार बहनों में चंद्रेश्वर सबसे छोटे थे। मंझले दोनों भाई भी अल्पायु में ही चल बसे। चंद्रेश्वर जब दसवीं कक्षा के छात्र थे, उसी समय यज्ञ देखने की लालसा हुई। किसी गांव में वे यज्ञ देखने चले गए। यहीं से वे संतों के संपर्क में आए। हालांकि, घर आने के बाद किसी तरह बारहवीं की परीक्षा पास की। उसके पश्चात साधु जीवन को स्वीकार कर लिया। साल 1930 में अयोध्या पहुंच गए। यहां परमहंस रामकिंकर दास के संपर्क में आए।
यहीं उन्हें नाम ‘रामचंद्र दास’ मिला। युवा रामचंद्र दास को रामजन्म भूमि मुक्ति का कार्य सौंपा गया। वह 1934 में ही राम जन्मभूमि आंदोलन से जुड़ गए। राम जन्मभूमि आंदोलन को और धार देने को वह हिंदू महासभा से भी जुड़े। महासभा के नगर अध्यक्ष भी बने। साल 1975 में रामचंद्र दास दिगंबर अखाड़े के महंत बन गए। कर्नाटक के उडुपी में साल 1985 के दिसंबर में उनकी अध्यक्षता में आयोजित हुई धर्म संसद में ही निर्णय हुआ कि 08 मार्च 1986 को महाशिवरात्रि तक रामजन्मभूमि पर लगा ताला नहीं खुला, तो महाशिवरात्रि के बाद ’ताला खोलो आंदोलन’, ’ताला तोड़ो’ में बदल जाएगा। रामचंद्र दास की घोषणा से पूरे देश में सनसनी फैल गई। उन्होंने आत्मदाह तक करने की चेतावनी दे दी। इसका परिणाम यह हुआ कि 01 फरवरी 1986 को ही ताला खुल गया।
1989 की जनवरी में होने वाले प्रयाग महाकुंभ के अवसर पर आयोजित तृतीय धर्म संसद में ही शिला पूजन एवं शिलान्यास का फैसला रामचंद्र दास परमहंस की उपस्थिति में ही लिया गया था। उनके इस फैसले से विश्व के रामभक्त जन्मभूमि के साथ जुड़ने लगे। उसके बाद साल 1989 में ही वे राम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष बन गए। रामचंद्र दास परमहंस आयुर्वेदाचार्य होने के साथ-साथ संस्कृत के जानकार थे। वेदों के साथ ही भारतीय शास्त्रों पर भी उनकी मजबूत पकड़ थी। वह मजबूत कद-काठी वाले आक्रामक प्रवृत्ति के दृढ़ संकल्प वाले जिद्दी साधु थे। अयोध्या में 30 नवंबर 1990 को हुई पहली कारसेवा में कारसेवकों के जिस जत्थे पर गोली चली थी, उसका नेतृत्व भी वही कर रहे थे। रामचंद्र दास को गोवा में साल 2000 में आयोजित केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल की बैठक में मंदिर निर्माण समिति का अध्यक्ष चुना गया। उन्होंने 26 मार्च, 2003 को दिल्ली में सत्याग्रह के पहले जत्थे का नेतृत्व करते हुए अपनी गिरफ्तारी भी दी थी। अभिराम दास बिहार के दरभंगा जिले के एक गरीब मैथिल ब्राह्मण परिवार से थे। कहा जाता है कि बलिष्ठ और हठी स्वभाव वाले अभिराम की गिनती अयोध्या के लड़ाकू साधुओं में होती थी। वे अशिक्षित थे। ऐसे में उन्होंने शारीरिक बल को अपना सशक्त माध्यम बनाया।
वह घंटों अखाड़े में कसरत करते थे। 45 साल की उम्र में भी वह कुश्ती लड़ते थे। 06 फीट के लंबे चौड़े और गठीले शरीर वाले अभिराम दास नागा वैरागी थे। वे हमेशा राम जन्मभूमि में रामलला की मूर्ति स्थापित करने का स्वप्न हमेशा देखते रहते थे। रामलला की मूर्ति स्थापित कराने के लिए वह एक बार फैजाबाद के तत्कालीन सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदत्त सिंह से भी मिले थे। इसके साथ ही स्थानीय स्तर पर अधिकारियों और कर्मियों को अपनी रणनीति का हिस्सा बनाया। जाड़ा, गर्मी, बरसात सालों भर प्रतिदिन सरयू स्नान करने वाले अभिराम दास के पास अष्टधातु की एक भगवान राम के बाल रूप की मूर्ति थी। इसी मूर्ति को लेकर वह एक दिन टोकरी में रख कर कपड़ों से ढक कर सिर पर उठाते हैं। रामचंद्र परमहंस तांबे के कलश में सरयू जल लेकर रामधुन गाते चल देते हैं। राम जन्मस्थान के बाहर चबूतरे पर अखंड कीर्तन कर रहे लोग होते हैं। यहां तैनात पुलिस बल के जवान तंबू में सो रहे होते हैं। जन्म स्थान के पास दो जवान अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे थे। रामचरित मानस का नवाह्न पाठ (नौ दिन में रामचरित मानस खत्म कर देने का पाठ) का अंतिम दिन होता है। इसके अंतिम दिन यज्ञ-हवन होना था।
यहां प्रशासन के निर्देश पर मोर्चा पर तैनात कांस्टेबल शेर सिंह से अभिराम दास की पुरानी जान-पहचान थी। यहां नमाज नहीं पढ़ी जाती थी। सिर्फ अजान देने के लिए मुअज्जिम इस्माइल तैनात था। अभिराम दास ने मूर्ति के साथ गर्भ गृह में प्रवेश कर सरयू के जल से फर्श धोकर लकड़ी के सिंहासन पर चांदी का एक सिंहासन रखा। उस पर कपड़ा बिछा कर मूर्ति रख दी। शेर सिंह का सेवा काल 12 बजे रात तक ही था। एक बजे के बाद अगले कांस्टेबल अब्दुल बरकत को जगा कर ड्यूटी पर शेर सिंह ने भेज दिया। ड्यूटी पर करीब एक घंटे विलंब से पहुंचे कांस्टेबल बरकत ने रामलला के प्रकट होने की कहानी का समर्थन किया। बरकत ने प्राथमिकी में भी बतौर गवाह बताया कि देर रात करीब 12 बजे गुंबद के नीचे अलौकिक रोशनी हुई। रोशनी कम होने पर देखा कि राम के बाल रूप की मूर्ति विराजमान थी।
कोठारी बंधुओं ने फहराया था बाबरी पर भगवा
विवादित स्थल के चारों तरफ और अयोध्या शहर में यूपी पीएसी के करीब 30 हजार जवान तैनात किए गए थे। इसी दिन बाबरी मस्जिद के गुंबद पर शरद (20 साल) और रामकुमार कोठारी (23 साल) नाम के भाइयों ने भगवा झंडा फहराया। हालांकि, कारसेवा के क्रम में कुछ अन्य कारसेवकों संग उन दोनों को भी जान गंवानी पड़ी थी। कारसेवा के पहले दिन 05 लोग मारे गए थे। हालांकि, कुछ इसे सरकारी आंकड़ा ही बताते हैं। 21 से 30 अक्टूबर 1990 तक अयोध्या में लाखों की संख्या में कारसेवक जुट चुके थे। सब विवादित स्थल (बाबरी मस्जिद) की ओर जाने की तैयारी में थे। विवादित स्थल के चारों तरफ भारी सुरक्षा थी। अयोध्या में लगे कर्फ्यू के बीच सुबह करीब 10 बजे चारों दिशाओं से बाबरी मस्जिद की ओर कारसेवक बढ़ने लगे थे। इनका नेतृत्व कर रहे थे अशोक सिंघल, उमा भारती, विनय कटियार जैसे नेता।
विवादित स्थल के चारों तरफ और अयोध्या शहर में यूपी पीएसी के करीब 30 हजार जवान तैनात किए गए थे। इसी दिन बाबरी मस्जिद के गुंबद पर शरद और रामकुमार कोठारी ने भगवा झंडा फहरा दिया। साधु-संतों और कारसेवकों ने 11 बजे सुरक्षाबलों की उस बस को काबू कर लिया, जिसमें पुलिस ने कारसेवकों को हिरासत में लेकर शहर के बाहर छोड़ने के लिए रखा था। इन बसों को हनुमान गढ़ी मंदिर के पास खड़ा किया गया था। इसी बीच, एक साधु ने बस चालक को धक्का देकर नीचे गिरा दिया। इसके बाद वो खुद ही बस के वाहन चालक सीट पर बैठ गया। बैरिकेडिंग तोड़ते हुए बस विवादित परिसर की ओर तेजी से बढ़ी।
बैरिकेडिंग टूटने से रास्ता खुला तो 5,000 हजार से ज्यादा कारसेवक विवादित स्थल तक पहुंच गए। मुलायम सरकार का दावा था कि विवादित ढांचे पर परिंदा भी पर नहीं सकेगा। इसे कारसेवकों ने खारिज कर दिया, लेकिन कई कारसेवकों की जान गंवा कर। राजकुमार कोठरी (23) और शरद कोठारी (20) दोनों भाई कलकत्ता में संघ से जुड़े हुए थे। वे आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) की शाखाओं में शामिल होते थे। द्वितीय वर्ष तक प्रशिक्षित थे। कारसेवा की घोषणा पर वे अयोध्या आने की जिद अपने पिता हीरालाल कोठारी से करने लगे। उनकी बहन की शादी दिसंबर 1990 में तय थी। बहन की शादी में लौटने का वादा करके वे ट्रेन से चल पड़े। चूंकि वाराणसी में ट्रेन सेवा बंद कर दी गई थी और रास्ते भी अयोध्या के बंद कर दिए गए थे। ऐसे में वे किसी तरह से कार (टैक्सी) से आजमगढ़ तक पहुंच गए। उसके बाद करीब दो सौ किलोमीटर पैदल चलकर 30 अक्टूबर 1990 को अयोध्या भी पहुंच गए।
अमिट यादें और अमिट इतिहास
अयोध्या में भगवान राम के भव्य मंदिर के निर्माण के संबंध में उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद से ही झारखण्ड में भी आस्था हिलोरे लेती रही हैं। लोगों के हृदय में श्रीराम हैं। मन अयोध्या हुआ जाता है। रामलला के मंदिर निर्माण का सदियों पुराना सपना साकार होने की खुशी यहां हर रामभक्त की आंखों में देखी जा सकती है। मंदिर आंदोलन के वक्त कारसेवा से लेकर लोगों तक राम का संदेश पहुंचाने तक में झारखण्ड के लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था।
आज वे पुरानी यादें भी ताजा कर रहे हैं। राजधानी रांची से लेकर गुमला, सिमडेगा, लोहरदगा, धनबाद, चाईबासा, खूंटी, रामगढ़, हजारीबाग और अन्य जिलों में साधु-संतों, पुजारियों और हिंदू संगठनों ने राम मंदिर के उद्घाटन के दिन को खास तरीके से आयोजित करने के लिए व्यापक तैयारियां की हैं। मिठाई से लेकर ध्वजा और पूजा व सजावट के सामान की अग्रिम बुकिंग कर दी गई है। इस मौके पर घर-घर दीप जलाने की तैयारी है। रांची, सिमडेगा, साहिबगंज और देवघर समेत राज्य के विभिन्न हिस्सों में इस मौके पर दीप जलाकर दीपावली मनाने की भी तैयारियां की गई हैं। उल्लास और आनंद के इस माहौल को देखकर साफ महसूस किया जा सकता है कि राम सबके दिल में बसे हैं। रोम-रोम में बसे हैं। कई लोगों के लिए यह जीवन के सबसे बड़े सपने के साकार होने जैसी अनुभूति है।
अभी इनके मनोभावों के बारे में पूछने पर बस यही कहते हैं कि हम सब मन से अयोध्या में ही हैं, यहीं से पूजा कर इस अनुष्ठान में अपनी भावनाएं भगवान राम तक पहुंचाएंगे। झारखण्ड की धरती भगवान राम के वनवास काल में उनकी सहचर रही है। इस कारण यहां से उनका सीधा जुड़ाव है। उधर, सिमडेगा के श्रीरामरेखा धाम में भी आनंद का माहौल है। श्रीरामरेखा धाम के संरक्षक सह बीरू रियासत के युवराज कौशल राज सिंह देव, विहिप जिलाध्यक्ष की जिम्मेवारी संभालने वाले कौशल राज सिंह देव के मुताबिक अब प्रभु श्रीराम का मंदिर बनने का सपना साकार होता देख जीवन धन्य हो गया।
1990 के कारसेवा में चार दिन-चार रात में 169 किमी पैदल चलकर बजरंग दल के तात्कालिक विभाग संयोजक सुशील कुमार अयोध्या पहुंचे थे। वे 1984 में राम मंदिर आंदोलन से जुड़े थे। जब उच्चतम न्यायालय ने राम मंदिर के निर्माण के संबंध में ऐतिहासिक फैसला दिया था तो खुशी जताने को सैकड़ों लोग रांची के हरमू रोड स्थित विहिप कार्यालय पहुंचे थे, वहां पर सुशील कुमार एवं विहिप के प्रांत धर्माचार्य संपर्क प्रमुख युगल किशोर भी थे। दोनों ने 1990 में अयोध्या में हुई कारसेवा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अपनी बात साझा करते हुए दोनों अतीत में खोते हुए भावुक हो उठे थे।
गल किशोर के मुताबिक 24 अक्टूबर 1990 का वह दिन उन्हें आज भी याद है। छठ के शाम के अर्घ्य का दिन था। योजना के अनुसार उसी दिन कार सेवा के लिए अयोध्या के लिए प्रस्थान करना था। रांची से सुशील कुमार के नेतृत्व में 59 लोगों की टोली चली। इसमें प्रभाकर पांडेय, श्याम नारायण दुबे, सतीश चंद्र झा व अमरेंद्र सिंह राठौर (सभी दिवंगत), गिरिधारी लाल महतो, अक्षयवट नाथ तिवारी, रविंद्र सिंह आदि भी शामिल थे। युगल के अनुसार, सभी लोग ट्रेन से रांची से गोमो पहुंचे। वहां से पांच-पांच लोगों की टोली में अयोध्या के लिए प्रस्थान करना था। कारसेवकों पर पुलिस की नजर थी। उत्तर प्रदेश सरकार ने घोषणा कर रखी थी कि अयोध्या में परिदा भी पर नहीं मार सकता है।
जगह-जगह कारसेवकों की गिरफ्तारी हो रही थी। युगल किशोर व सुशील कुमार बोले कि हम लोग अलग-अलग टोली में चलकर ट्रेन से गोमो से चुनार पहुंचे। वहां से रात एक बजे गौरीगंज स्टेशन पहुंचे। ऊपर से आदेश था कि यहां से अब पैदल ही अयोध्या के लिए बढ़ना है। दूरी 169 किलोमीटर की थी, हम लोग आगे बढ़ने लगे। आज भी वह दिन वे नहीं भूले हैं। जिस गांव में पहुंचे, वहां के लोगों ने भगवान की तरह स्वागत किया। कहते थे कि भगवान रामजी के काज से जा रहे हैं। हमारे लिए भगवान से कम नहीं हैं, जिस गांव में पहुंचा, लोगों ने भोजन कराया। रात्रि में रहने को घर दिया, चार दिन एवं चार रात पैदल चलकर 30 अक्टूबर को अयोध्या सीमा में उन सबों ने प्रवेश किया, लेकिन आरएसएस की ऐसी योजना कि पुलिस को भनक तक नहीं लगी, दो नवंबर को विहिप के प्रमुख अशोक सिंघल के नेतृत्व में हजारों कारसेवक हनुमान गढ़ी चौराहा पहुंच गए। पुलिस देखकर अचंभित रह गई।
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पुलिस ने कारसेवकों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए आंसू गैस के गोले छोड़े, फिर लाठियां चटकाई, फिर भी लोग डटे रहे। सिंघलजी घायल हो गए। हम लोग दिगंबर अखाड़े में वापस आ गए। जैसे ही हम लोग वापस आए, गोलियों की आवाज सुनाई देने लगी, दिगंबर अखाड़े से लेकर हनुमान गढ़ी के बीच गोलियां चल रही थीं। छोटी छावनी में कारसेवकों के शव रखे हुए थे, फिर चार नवंबर को इलाहाबाद, बनारस होते हुए हम लोग वापस रांची आ गए।
अमित झा