इंटरनेट का प्यार, किशोरों को बना रहा डिप्रेशन का शिकार

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लखनऊः राजधानी लखनऊ में रहकर इंटर की पढ़ाई करने वाला एक छात्र सोशल मीडिया पर बहुत एक्टिव था। सोशल मीडिया पर उसकी मुलाकात एक लड़की से होती है और कुछ ही दिनों में उन दोनों में प्यार हो जाता है। दोनों एक-दूसरे से करीब डेढ़ साल सोशल मीडिया पर बातचीत करते हैं।

उसके बाद अचानक दोनों के बीच में किसी बात को लेकर बहस हो जाती है और लड़की लड़के को ब्लॉक कर देती है। लड़का बहुत कोशिश करता है लेकिन लड़की उससे अब दोबारा बात नहीं करना चाहती। छात्र अपने जीवन में आई इस परिस्थिति को संभाल पाने में सक्षम नहीं था और इस कारण वह डिप्रेशन में चला गया। एक बार घर से भाग चुका है। उसके मन में आत्महत्या करने का विचार भी आ चुका है। मजबूरी में घर वालों ने अब केजीएमयू में उसका इलाज कराना शुरू किया है, जिससे वह इससे उबर सके।

सोशल मीडिया पर प्यार, मोहब्बत और ब्रेकअप के साथ धोखा खाने वाले ज्यादातर युवा पहले डिप्रेशन और एंजाइटी के शिकार होते हैं। इसके बाद में ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर की चपेट में आ जाते हैं। इसी मामले को लेकर इंडिया पब्लिक खबर संवाददाता पवन सिंह चौहान ने केजीएमयू के मनोचिकित्सक डॉक्टर आदर्श त्रिपाठी से विशेष बातचीत की। डॉक्टर आदर्श के अनुसार सभी मनुष्यों में मेच्योरिटी और डेवलपमेंट समय के साथ होता है।

साइकोलॉजी में कहा जाता है कि पहले कुछ साल बच्चा अपने फैमिली के साथ प्यार करता है और संबंध बनाता है। किशोरावस्था में पहुंचने पर बच्चा अपनी मित्र-मंडली यानी दोस्तों से आकर्षित होता है और उनसे अपना रिलेशन बनाना चाहता है। 18 से 20 साल की उम्र के आस-पास वह दूसरे लोगों से और अपोजिट जेंडर से आकर्षित होता है और उससे अपना संबंध बनाना चाहता है लेकिन मीडिया, टीवी, मोबाइल की एक्स्पोजर की वजह से किशोर जल्द ही इस ओर आकर्षित होने लगे हैं। दरअसल, इन माध्यमों में दिखाए जा रहे कंटेंट कामुकता से भरे होते हैं। मोबाइल और लैपटॉप में खेले जाने वाले गेम का कंटेंट भी कामुकता से भरा होता है। इसी कारण सेक्स की तरफ बच्चे का आकर्षण उम्र से पहले ही जा रहा है। यह केवल मानसिक रूप से ही नहीं, बल्कि शारीरिक रूप से भी देखा जा सकता है। लड़कियों में भी कम उम्र में ही मासिक धर्म और अन्य परिवर्तन शुरू हो जा रहे हैं। डॉ. आदर्श मानते हैं कि मानसिकता के साथ-साथ छात्र-छात्राओं में यह सारे फिजिकल बदलाव देखे जा रहे हैं।

मोबाइल एक्स्पोजर ने लड़के-लड़कियों का सोशल मीडिया के माध्यम से एक-दूसरे के साथ बातचीत और संबंध बनाना आसान बना दिया है। पहले के समय में जब मोबाइल नहीं था, तो एक साथ पढ़ने के बावजूद लड़के-लड़कियों को बातचीत करने में बहुत समय लग जाया करता था। पूरी कक्षा में शायद एक या दो बच्चे ऐसे होते होंगे, जो लड़कियों से बातचीत कर लेते हों। पहले के समय में लड़के-लड़कियों के बीच मेल-मिलाप इतना ज्यादा नहीं होता था, लेकिन सोशल मीडिया ने एक-दूसरे से बातचीत को आसान बना दिया है। सिर्फ क्लास ही नहीं, अब तो दूसरे शहर की लड़की से भी बड़ी आसानी से बातचीत की जा सकती है। जब लड़का-लड़की सोशल मीडिया पर एक-दूसरे से दोस्ती कर अपने संबंध बनाते हैं तो कभी-कभी वह ऐसे संबंध बनाने की ओर अग्रसर हो जाते हैं, जिसके लिए वह अभी मेच्यौर नहीं है।

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डॉ. आदर्श कहते हैं कि जो संबंध उन्होंने बना लिया है, उसके लिए वह दोनों न तो उम्र, न शरीर और न ही मानसिक तौर पर तैयार होते हैं। कभी-कभी इसी मेच्यौरिटी की कमी की वजह से परिस्थितियों को सही तरीके से संभाल नहीं पाते और गलतियां करते चले जाते हैं।

परिस्थिति संभाल न पाने की वजह से हो जाते हैं डिप्रेस्ड

डॉ. आदर्श कहते हैं कि वह इतने मेच्यौर नहीं होते हैं कि अपनी गलतियों को सुधार सकें। अक्सर देखा गया है कि जब पार्टनर ने ब्रेकअप कर लिया है या सोशल मीडिया पर ब्लॉक कर दिया है या कुछ उल्टी-सीधी बातें कह दी है, तो वह इसे संभाल नहीं पाते हैं। ऐसे में अक्सर देखा जाता है कि वह डिप्रेशन में चले जाते हैं। परिस्थितियों को अच्छी तरह से डील न कर पाने की वजह ही मानसिक बीमारी का सबसे बड़ा कारण बनता है। डॉक्टर आदर्श ने बताया कि हमने इस तरह के बहुत से केस देखे हैं, जिसमें बच्चे मानसिक रूप से प्रताड़ित होते हैं और फिर डिप्रेशन में चले जाते हैं। कभी-कभी तो ऐसा भी देखा गया है कि कुछ बच्चे बेहोश हो जाते हैं या उनको दौरे पड़ने लगते हैं या फिर वह कहते हैं कि मेरे ऊपर भूत-प्रेत आ रहे हैं। हालांकि, मूल समस्या यही होती है कि वह अपने जीवन में बनने वाले रिश्तों को सही तरीके से संभाल नहीं सके, जिसकी वजह से वह आज इस स्थिति में है। मेच्यौरिटी की कमी की वजह से बहुत से बच्चे आत्महत्या तक करने की बात सोचने लगते हैं।

स्कूलों की काउंसिलिंग अपर्याप्त

स्कूलों में दी जाने वाली काउंसिलिंग के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वह पूरी तरह से सफल हुए हैं, लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि उसमें भी सुधार की बहुत गुंजाइश है। स्कूलों के अंदर जो काउंसलर रखे गए हैं, वह बहुत ज्यादा प्रोफेशनल मनोचिकित्सक नहीं होते है। वह बच्चों के बीच में जो साधारण झगड़े हैं, पढ़ाई को लेकर जो तनाव है या परीक्षाओं को लेकर जो उनके अंदर बेचैनी है, उसे दूर करने में वह सक्षम होते हैं लेकिन अगर प्रॉब्लम बड़ी है और साइकोलॉजिकल ट्रीटमेंट ज्यादा है, तो उसे हैंडल कर पाने में वह सक्षम नहीं हैं।

रिपोर्ट-पवन सिंह चौहान