Sunday, October 6, 2024
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Homeउत्तर प्रदेशएक अक्टूबर विशेषः लगातार वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या चिंता का विषय

एक अक्टूबर विशेषः लगातार वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या चिंता का विषय

लखनऊः भारतीय संस्कृति में बेटे को बुढ़ापे की लाठी कहा जाता है, यानि बेटा ही बुढ़ापे का सहारा होता है, लेकिन इस विकृत संस्कृति में लाठी टूटती जा रही है। आर्थिक युग की मजबूरी और पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण के कारण बुजुर्ग असहाय होते जा रहे हैं। इसीलिए आज प्रदेश सरकार को प्रदेश के सभी जिलों में 75 वृद्धाश्रम (old age homes) खोलने पड़े हैं, जिनमें 6400 बुजुर्ग आश्रय ले रहे हैं।

लगातार बढ़ रही है बेसहारों की संख्या

इतना ही नहीं, इसके अलावा भारत सरकार ने भी प्रदेश में 24 वृद्धाश्रम खोले हैं, जिनमें 850 बुजुर्ग आश्रय ले रहे हैं। इनमें बुजुर्गों की संख्या समय-समय पर घटती-बढ़ती रहती है, लेकिन साल दर साल इसमें इजाफा हो रहा है, जो चिंता का विषय है। इन वृद्धाश्रमों में हर साल करीब पांच सौ बुजुर्गों की मौत हो जाती है। इनमें से आधे से ज्यादा के परिजन सूचना देने के बाद भी उनके शव नहीं लेते और वृद्धाश्रम संचालक खुद ही उनका अंतिम संस्कार कर देते हैं।

मजबूरी में ही वृद्धाश्रम का सहारा लेते हैं बुजुर्ग

इस संबंध में वृद्धाश्रम की व्यवस्था देख रहे समाज कल्याण विभाग के उपनिदेशक कृष्ण प्रसाद का कहना है कि यहां की व्यवस्था से कई लोग प्रभावित हैं और यहीं रहना पसंद करते हैं, लेकिन कुछ बुजुर्ग ऐसे भी हैं जो मजबूरी के चलते वृद्धाश्रम का सहारा लेते हैं और यहां आकर रहने लगते हैं। कृष्ण प्रसाद के इस कथन से इतर ज्यादातर लोग मजबूरी में ही वृद्धाश्रम का सहारा लेते हैं, इस संबंध में समाजसेवी अजीत सिंह का कहना है कि सिर्फ पैसों की खातिर हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। यही वजह है कि आज हमें वृद्ध दिवस की जरूरत है। वरना पहले स्थिति ऐसी थी कि बुजुर्गों के आदेश के बिना घर का पत्ता भी नहीं हिलता था।

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बच्चों में नैतिक शिक्षा की कमी

कौशांबी वृद्धाश्रम के संचालक आलोक कुमार राय ने बताया कि हमारे यहां इस समय 53 बुजुर्ग हैं। इनमें से कई के बेटे भी हैं, लेकिन बुजुर्गों को वृद्धाश्रम में ज्यादा सहजता महसूस होती है और वे यहां परिवार के सदस्य बन गए हैं। गौरतलब हो कि अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस 1 अक्टूबर को बुजुर्गों के सम्मान में मनाया जाता है राय का कहना है कि अब हमारे लिए स्कूली शिक्षा से ज्यादा अपनी संस्कृति की शिक्षा जरूरी है। बच्चों को पहले संस्कार दिए जाने चाहिए, फिर स्कूली शिक्षा। पहले स्कूलों में नैतिक शिक्षा की किताब भी पढ़ाई जाती थी, लेकिन आज उसे भी हटा दिया गया है। यही कारण है कि आज हम पाश्चात्य संस्कृति की गिरफ्त में फंसते जा रहे हैं और अपने बुजुर्गों के प्रति सम्मान कम होता जा रहा है।

जल परी के नाम से जल संरक्षण पर काम करने वाले बुंदेलखंड के प्रसिद्ध समाजसेवी संजय सिंह का कहना है कि समाज में लोग अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। समाज आत्मकेंद्रित होता जा रहा है, जिसके कारण आज हमें वृद्धाश्रम का सहारा लेना पड़ रहा है। आज जरूरत है कि हम अपने बच्चों को अपनी संस्कृति से अवगत कराएं और उन्हें भारतीय समाज की परंपराओं के बारे में बताएं, ताकि वह बुढ़ापे में उनका सहारा बन सकें।

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