चंडीगढ़ः हरियाणा में कंबल नगरी के रूप में प्रसिद्ध पानीपत से सटे नौल्था की होली (Holi) आज भी अपना महत्व कायम रखे हुए है। नौल्था गांव के लोग फाग मनाने के लिए अंग्रेजों से भी भिड़ गए थे। कहा जाता है कि अगर आपने इसराना क्षेत्र के नौल्था गांव का फाग नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा। करीब एक हजार वर्ष पुराने डाट फाग को मनाने के लिए नौल्था ही नहीं, बल्कि आसपास के क्षेत्र में भी उत्साह और इंतजार रहता है। गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि नौल्था में फाग मनाने के लिए दो सप्ताह पहले ही तैयारियां शुरू हो जाती हैं। इन तैयारियों के दौरान गांव में सूखी डाट लगाने का कार्य शुरू किया जाता है। फाग के दिन बाबा लाठे वाले व देवी देवताओं की झांकियां निकाली जाती हैं। गांव की सभी चौपालों पर कड़ाहों में रंग उबालकर रंगों की डाट खेली जाती है। गांव के लोगों में फाग को लेकर खासा उत्साह देखने को मिलता है।
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किसे कहते हैं डाट
गांव की चौपालों की दीवार के साथ दोनों तरफ ग्रामीण दोनों हाथ ऊपर उठाकर खड़े हो जाते हैं। एक दूसरे के सामने जोर आजमाइश करते हैं। घरों की छतों से पानी बरसाया जाता है। सूखे रंग फेंकते हैं। एक डाट ऐसी होती है, जिसमें छत के नीचे युवा एक साथ बैठ जाते हैं। सिर से सिर जोड़ लेते हैं। ऊपर से पानी फेंका जाता है। कितना ही रंग फेंक दें, लेकिन पीछे नहीं हटते। अगर कोई रंग नहीं लगवाना चाहता तो उसका सम्मान करते हुए उसे रंग नहीं लगाते। फाग उत्सव मनाने की जिम्मेदारी गांव के युवाओं पर होती है।
बाबा लाठे वाले ने शुरू की परंपरा
पुराने लोगों की मानें तो विक्रम संवत 1230 में नौल्था गांव बसा था। कुछ वर्ष बाद मथुरा के पास फालन गांव में बाबा लाठे वाला के साथ कुछ बुजुर्ग फाग देखकर आए थे। इसके बाद नौल्था गांव में भी फाग उत्सव मनाया गया। यहां के फाग को देखने बाहर से हजारों लोग आते हैं। गांव में लाठे वाला मंदिर के अलावा कई मंदिर भी हैं। वर्ष 1942 में अंग्रेजी हुकूमत ने फाग बंद करा दिया था। ग्रामीणों में अंग्रेजों के खिलाफ रोष पैदा हो गया था। ग्रामीण फाग की परंपरा बचाने के लिए अंग्रेजी हुकूमत के साथ टकरा गए थे और अंग्रेजों को झुकना पड़ा था। एक माह बाद गांव में फाग का आयोजन किया गया।
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