Holi 2024: होली पर चढ़ा आधुनिकता का रंग, गलियारों से गायब हुआ हुरियारों का शोर

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Holi 2024, लखनऊः होली की परंपरागत भावनाएं और इस त्योहार का जमीनी उल्लास वर्तमान में पूरी तरह से आधुनिकता के रंग में सराबोर हो चुका है। होली हमारी संस्कृति, सभ्यता, समावेशिता और एकता को दर्शाता त्योहार है, जो रंगों के समान ही है। जैसे विभिन्न प्रकार के रंग मिलकर होली के उल्लास को बढ़ाते हैं, वैसे ही भारत में विभिन्न संस्कृतियों, पंथ अथवा महजब के लोग मिलकर भारत की एकता को प्रदर्शित करते हैं।

बुरा न मानो होली है..आधुनिकता की चपेट में

होली के अवसर पर एक पंक्ति बेहद प्रचलित है कि ‘बुरा न मानो होली है’, लेकिन आधुनिकता की चपेट में आने के चलते अब लोग इसकी पंक्ति की संवेदन से कोसों दूर निकल गए हैं। होली पर आधुनिकता का रंग चढ़ने का ही परिणाम है कि अब होली के लिए इस्तेमाल होने वाली चीजें जैसे- रंग, पिचकारियां, गुलाल, होली की मिठाईयां यहां तक कि होली जलाने के लिए इस्तेमाल होने वाले उपले भी डिजाइनर हो गए हैं। इसी के साथ महंगाई भी तेजी से बढ़ रही है। सामान्य आय वाले घरों के लिए आधुनिकता के साथ कंधे से कंधा मिलाना भी बेहद मुश्किल हो गया है।

केमिकल ने ली परंपरागत होली की जगह

वर्तमान में वृंदावन की होली बेहद मशहूर होने के साथ-साथ प्रत्येक वर्ष चर्चा का विषय भी बनी रहती हैं। दरअसल, इसका प्रमुख कारण यहां होली त्योहार का परंपरागत रूप से मनाया जाना है। लट्ठमार और लड्डूमार होली यहां की विशेषता है। रंगों के उपयोग और इसके निर्माण में भी भारी परिवर्तन आया है। पहले के समय में जहां रंगों को फूल, हल्दी आदि प्रकार के प्राकृतिक रूप से तैयार किया जाता था, वहीं इसकी जगह अब देखने में बेहद मनमोहक लेकिन केमिकल युक्त रंगों ने ले ली है। परंपरागत तरीके से रक्तचंदन की लकड़ी को रात भर पानी में भिगोकर रखने के बाद लाल रंग, पीले रंग के लिए पानी में हल्दी और आटा मिलाकर, नीले रंग के लिए अंजीर को पीसकर रात भर पानी में भिगोकर आदि रंगों को बनाया जाता था।

एक ओर जहां होलिका दहन पर पूरे परिवार के लोग एक साथ मौजूद रहते थे और होली के दिन एक-दूसरे को अबीर-गुलाल लगाकर पर्व को उल्लासपूर्वक मनाते थे तथा हुलियारों की टोली मस्ती में फगुआ गीत गाते हुए गली-गली घूमती थी, लेकिन अब परंपराओं पर आधुनिकता हावी हो गई है। कहा जाता है कि भारतीय संस्कृति व पर्व एक-दूसरे के पूरक रहे हैं, लेकिन हमारे परंपरागत त्योहारों पर चढ़े आधुनिकता के अमलीजामे ने इस सच्चाई को नई अथवा वर्तमान पीढ़ी तक पहुंचने ही नहीं दिया है। पुराने समय में होली खेलने के लिए युवा पीढ़ी व बच्चे महीनों पहले से तैयारियां प्रारम्भ कर देते थे।

बता दें कि भारत में मनाए जाने वाले प्रत्येक पर्व के पीछे कुछ वैज्ञानिक तथ्य छिपे थे, किंतु समय परिवर्तन ने पर्व का रूप बदलने के साथ सब कुछ बदल दिया है। प्राचीनकाल में रंग से खेलने के पीछे वैज्ञानिक तथ्य यह था कि होली पर मौसम बदल जाता है, गर्म वस्त्र उतारकर टेसू के फूल से होली खेलकर शरीर में सर्दी का विकार समाप्त किया जाता था और साथ ही शरीर की प्रतिरोधक क्षमता गर्मी के अनुकूल हो जाती थी।

परंपरागत रंगत पड़ी फीकी

पहले होली आते ही मंदिरों में अनुष्ठान शुरू हो जाते थे तथा घरों में भी पकवान बनने की शुरुआत हो जाती थी। दर्जनों की संख्या में देर रात तक लोग दरवाजे पर जमे रहते थे और होली का आनंद लेते हुए बातें करते रहते थे। इसके विपरीत अब तो लोग एक-दूसरे से 5-10 मिनट में ही मुक्ति चाहते हैं। पहले के समय में बेहद ही सद्भाव व प्रेम से होली होती थी, लेकिन आज के समय में होली पर आधुनिकता का रंग चढ़ने के बाद इस त्यौहर में आपसी भाईचारा और सद्भाव की भारी कमी आ गई है, जिसे हम अपने आस-पास भी देख सकते हैं।

वर्तमान में महज दिखावे के त्योहारों का चलन भी बढ़ गया है। इसमें लोग सिर्फ अपनी बड़ाई करने व खुद को श्रेष्ठ साबित करने के लिए धनबल से लेकर विभिन्न प्रकार के तरीकों का इस्तेमाल करते देखे जा सकते हैं। इसी के साथ अब होली महज परंपरा का निर्वहन रह गया है। हाल के दिनों में अश्लीलता, फुहड़पन, हुड़दंग इस कदर बढ़ गया है कि सभ्रांत परिवार होली के दिन निकलना नहीं चाहता है।

अब घरों के अंदर ही होली मना ली जाती है। एक-दूसरे को ही रंग-अबीर लगाकर होली का आनंद उठा लिया जाता है। ऐसे में बेहद जरूरी है कि हम लोग अपनी परंपरा और संस्कृति को पहचानें तथा उसी अनुसार भारतीय त्योहारों को मनाएं, क्योंकि परंपरागत तरीके से मनाए गए त्योहारों से ही उसका असल अर्थ प्रतिबिंबित होता।

भारतीय इतिहास और संस्कृति के अनुरूप कुछ भी अकारण नहीं है, प्रत्येक उत्सव और आयोजन के पीछे कोई न कोई मूलभाव आवश्यक रूप से सम्मिलित है। ऐसे में होली सहित विभिन्न त्योहारों को आधुनिकता की पोशाक हटाकर उन्हें परंपरागत तरीके से मनाना चाहिए और प्रत्येक आयोजन के पीछे के अहम कारणों को जानने का भी प्रयास अवश्य करना चाहिए।

(रिपोर्ट-शरद त्रिपाठी, लखनऊ)

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