ज्ञान अमृत

समुद्र मंथन से भगवती लक्ष्मी जी का प्राकट्य एवं एकादशी-द्वादशी की महिमा

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भगवती लक्ष्मी जी के जन्म का सम्बन्ध समुद्र से है। सनातन धर्म में पद्म पुराण में भगवती लक्ष्मी जी का प्राकट्य समुद्र मंथन के द्वारा बताया गया है। पद्म पुराण में उत्तराखण्ड के अन्तर्गत श्री महादेवजी एवं पार्वती जी के संवाद के रूप में भगवती लक्ष्मी जी के प्राकट्य की कथा का वर्णन है। पार्वती जी के प्रश्न करने पर महादेव जी ने भगवती लक्ष्मी के जन्म की कथा देवी को सुनाई थी। महादेवजी कहते है, एक समय की बात है- दुर्वासा ऋषि, देवराज इन्द्र से मिलने के लिए स्वर्गलोक गए। उस समय इन्द्र ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हो सम्पूर्ण देवताओं से पूजित होकर कहीं जाने के लिए उद्यत थे। उन्हें देखकर महातपस्वी दुर्वासा का मन प्रसन्न हो गया। उन्होंने विनीत भाव से देवराज को एक पारिजात पुष्पों की माला भेंट की। देवराज ने उसे लेकर हाथी के मस्तक पर डाल दिया और स्वयं नन्दन वन की ओर चल दिए। हाथी मद से उन्मत्त हो रहा था। उसने सूंड़ से उस माला को उतार लिया और मसलते हुए तोड़कर जमीन पर फेंक दिया। इससे दुर्वासा जी को क्रोध आ गया और उन्होंने शाप देते हुए कहा- देवराज! तुम त्रिभुवन की राजलक्ष्मी से सम्पन्न होने के कारण मेरा अपमान करते हो। इसलिए तीनों लोकों की लक्ष्मी नष्ट हो जायगी। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

दुर्वासा के इस प्रकार शाप देने पर इन्द्र पुनः अपने नगर को लौट गए। तत्पश्चात माता लक्ष्मी अन्तर्धान हो गयीं। ब्रह्मा आदि देवता, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, दैत्य, दानव, नाग, मनुष्य, राक्षस, पशु, पक्षी तथा कीट आदि जगत के समस्त चराचर प्राणी दरिद्रता के मारे दुःख भोगने लगे। सब लोगों ने भूख-प्यास से पीड़ित होकर ब्रह्माजी के पास जाकर कहा- भगवन्। तीनों लोक भूख प्यास से पीड़ित हैं। आप सब लोकों के स्वामी और रक्षक हैं। अत: हम आपकी शरण में आए हैं। देवेश! आप हमारी रक्षा करें। ब्रह्माजी बोले- देवता, दैत्य, गन्धर्व और मनुष्य आदि प्राणियों! सुनो इन्द्र के अनाचार से ही यह सारा संकट उपस्थित हुआ है। उन्होंने अपने बर्ताव से महात्मा दुर्वासा को कुपित कर दिया है। उन्हीं के क्रोध से आज तीनों लोकों का नाश हो रहा है। जिनकी कृपा-कटाक्ष से सब लोक सुखी होते है, वे माता महालक्ष्मी अन्तर्धान हो गयी हैं। जब तक वे अपनी कृपा दृष्टि से नहीं देखेंगी, तब तक सब लोग दुःखी ही रहेंगे। इसलिए हम सब लोग चलकर क्षीर सागर में विराजमान सनातन देव भगवान नारायण की आराधना करें। उनके प्रसन्न होने पर ही सम्पूर्ण जगत का कल्याण होगा। ऐसा निश्चय करके ब्रह्माजी सम्पूर्ण देवताओं और भृगु आदि महर्षियों के साथ क्षीरसागर पर गये और विधिपूर्वक पुरुषसूक्त के द्वारा उनकी आराधना करने लगे। इससे प्रसन्न होकर भगवान ने सब देवताओं को दर्शन दिया और कृपा पूर्वक कहा- देवगण! मै वर देना चाहता हूं, तुम लोग इच्छानुसार वर मांगो। यह सुनकर ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता हाथ जोड़कर बोले- भगवन्! दुर्वासा मुनि के शाप से तीनों लोक सम्पत्तिहीन हो गये हैं। पुरुषोत्तम! इसीलिये हम आपकी शरण में आये हैं। नारायण भगवान बोले देवताओं! अत्रिकुमार दुर्वासा मुनि के शाप से भगवती लक्ष्मी अन्तर्धान हो गयी है। अत: तुम लोग मन्दराचल पर्वत को उखाड़कर क्षीरसमुद्र में रखो और उसे मथनी बना नागराज वासुकि को रस्सी की जगह उसमें लपेट दो। फिर दैत्य, गन्धर्व और दानवों के साथ मिलकर समुद्र का मन्थन करो। तत्पश्चात जगत की रक्षा के लिए लक्ष्मी प्रकट होंगी। उनकी कृपा दृष्टि पड़ते ही तुम लोग महान सौभाग्यशाली हो जाओगे। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं हैं। मैं (नारायण भगवान) ही कुर्मरूप से मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण करूंगा तथा मैं ही सम्पूर्ण देवताओं में प्रवेश करके अपनी शक्ति से उन्हे बलिष्ठ बनाऊंगा। सदन्तर सम्पूर्ण देवता और महाबली दानव आदि ने मन्दराचल पर्वत को उखाड़कर क्षीरसागर में डाला। इसी समय अमित पराक्रमी भूतभावन भगवान नारायण ने कछुए के रूप में अवतार लेकर पर्वत को अपनी पीठ पर धारण किया। तदनंतर देवता और असुर मन्दराचल पर्वत में नागराज वासुकि को लपेटकर क्षीरसागर का मंथन करने लगे। जिस समय महाबली देवता लक्ष्मी जी को प्रकट करने के लिये क्षीरसागर को मथने लगे, उस समय सम्पूर्ण महर्षि उपवास करके मन और इन्द्रियों के संयमपूर्वक देवी लक्ष्मी और भगवान नारायण की स्तुति पाठ करने लगे।

भगवती लक्ष्मी जी के जन्म का सम्बन्ध समुद्र से है। सनातन धर्म में पद्म पुराण में भगवती लक्ष्मी जी का प्राकट्य समुद्र मंथन के द्वारा बताया गया है। पद्म पुराण में उत्तराखण्ड के

शुद्ध एकादशी तिथि को समुद्र मंथन आरम्भ हुआ। उस समय देवी लक्ष्मी के प्रादुर्भाव की अभिलाषा रखते हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणों और मुनिवरों ने भगवान लक्ष्मीनारायण का ध्यान और पूजन किया। उस मुहूर्त में सबसे पहले कालकूट नामक महाभयंकर विष प्रकट हुआ, जो बहुत बड़े पिण्ड के रूप में था। वह प्रलयकालीन अग्नि के समान अत्यन्त भयंकर जान पड़ता था। उसे देखते ही सम्पूर्ण देवता और दानव भय से व्याकुल हो भाग चले। तब भय से पीडित हो भागते देख भगवान शंकर ने उन सबको रोककर कहा- इस विष से भय न करो देवताओं। इन कालकूट नामक महान विष को मै अभी अपना आहार बना लूंगा। इस प्रकार उस काले रंग वाले महाभयानक विष को प्रकट हुआ देख महादेव जी ने एकाग्रचित्त से अपने हृदय में सर्वदुःखहारी भगवान नारायण का भक्तिपूर्वक ध्यान करते हुए उस भयंकर विष को पी लिया। तत्पश्चात समुद्र मंथन करने पर लक्ष्मी जी की बड़ी बहन दरिद्रा देवी प्रकट हुईं। के लाल वस्त्र पहने थीं। उन्होंने देवताओं से पूछा- मेरे लिये क्या आज्ञा है। तब देवताओं ने कहा- जिनके घर में प्रतिदिन कलह होता हो, वहीं हम तुम्हें रहने के लिये स्थान देते हैं। तुम अमंगल को साथ लेकर उन्हीं घरों में जा बसो। जहाँ कठोर भाषण किया जाता हो, जहां के रहने वाले सदा झूठ बोलते हो तथा जो मलित अन्तःकरण वाले पापी संध्या के समय सोते हों, उन्हीं के घर में दुःख और दरिद्रता प्रदान करती हुई तुम नित्य निवास करो। जो खोटी बुद्धिवाला मनुष्य पैर धोये बिना ही आचमन करता है, उस पापपरायण मानव की ही तुम सेवा करो। कलह‌प्रिया दरिद्रा देवी को इस प्रकार आदेश देकर सम्पूर्ण देवताओं ने एकाग्रचित्त हो पुनः क्षीरसागर मन्थन आरम्भ किया। तब सुन्दर नेत्रवाली वारुणि देवी प्रकट हुई, जिसे नागराज अनन्त ने ग्रहण किया। तदनन्तर समस्त शुभलक्षणों से सुशोभित और सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित एक स्त्री प्रकट हुई, जिसे गरुड़ ने अपनी पत्नी बनाया। इसके बाद दिव्य अप्सराएं और महातेजस्वी गन्धर्व उत्पन्न हुईं, जो अत्यन्त रूपवान और सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्नि के समान तेजस्वी थी। तत्पश्चात ऐरावत हाथी, उच्चैश्रवा नामक अश्व, धन्वन्तरि वैद्य, पारिजात वृक्ष और सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाली सुरभि गौ का प्रादुर्भाव हुआ। इन सबको देवराज इन्द्र ने बड़ी प्रसन्नता से ग्रहण किया। इसके बाद द्वादशी तिथि को प्रातःकाल सूर्योदय होने पर सम्पूर्ण लोकों की अधीश्वरी कल्याणमयी भगवती महालक्ष्मी प्रकट हुईं। उन्हें देखकर सब देवताओं को बड़ा हर्ष हुआ। देवलोक में दुन्दुभियां बजने लगीं, वनदेवियां फूलों की वृष्टि करने लगीं, गन्धर्वराज गाने और अप्सराएं नृत्य करने लगीं। शीतल एवं पवित्र हवा चलने लगी। सूर्य की प्रभा निर्मल हो गयी। बुझी हुई अग्नियां जल उठीं और सम्पूर्ण दिशाओं में प्रसन्नता छा गयी। तदनन्तर क्षीरसागर से शीतल एवं अमृतमयी किरणों से मुक्त चन्द्रमा प्रकट हुए, जो माता लक्ष्मी के भाई और सबको सुख देनेवाले हैं। वे नक्षत्रों के स्वामी हैं। इसके बाद श्री हरि की पत्नी तुलसी देवी प्रकट हुईं, जो परम पवित्र और सम्पूर्ण विश्व को पावन बनाने वाली हैं।

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जगन्माता तुलसी का प्रादुर्भाव श्री हरि की पूजा के लिये ही हुआ है। तत्पश्चात सब देवता प्रसन्नचित्त होकर मन्दराचल पर्वत को यथास्थान रख आये और सफल मनोरथ हो माता लक्ष्मी के पास जा स्तुति करने लगे। तब भगवती लक्ष्मी ने प्रसन्न होकर सम्पूर्ण देवताओं से वर मागने को कहा। देवता बोले- सम्पूर्ण लोकों के स्वामी भगवान विष्णु की प्रियतमा लक्ष्मी देवी! आप हमलोगों पर प्रसन्ने हों और श्री विष्णु के वक्षःस्थल में सदा निवास करें। कभी भगवान से अलग न हों तथा तीनों लोकों का कभी परित्याग न करें। देवी! यही हमारे लिये श्रेष्ठ वर हैं। जगन्माता! आपको नमस्कार है। हम आपसे यही चाहते है। देवताओं के ऐसा कहने पर श्रीनारायण की प्रियतमा लोकमाता महेश्वरी लक्ष्मी देवी ने 'एवमस्तु' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार की। तदनन्तर क्षीरसागर में ब्रह्माजी और भगवान नारायण प्रकट हुए। देवताओं ने भगवान नारायण को नमस्कार कर उनकी स्तुति की और उनसे प्रार्थना की, कि सर्वेश्वर आप अपनी प्रियतमा और महारानी लक्ष्मी देवी को, जो कभी आपसे अलग होने वाली नहीं हैं, जगत की रक्षा के लिये ग्रहण कीजिये। ऐसा कहकर ब्रह्मा आदि देवता और मुनियों ने नाना प्रकार के रत्नों से बने हुए बालसूर्य के समान तेजस्वी दिव्य आसन पर भगवान विष्णु और भगवती लक्ष्मी को बिठाया तथा नेत्रों से आनन्द के आंसू बहाते हुए उन्होंने दिव्य वस्त्र, दिव्य माला, रत्नमय आभूषण एवं अलौकिक दिव्य फलों से उन दोनों का पूजन किया। क्षीर सागर से जो कोमल दलोंवाली तुलसी देवी प्रकट हुई थीं, उनके द्वारा उन्होंने लक्ष्मी जी के युगल चरणों का अर्चन किया। फिर तीन बार प्रदक्षिणा और बारंबार नमस्कार करके दिव्य स्तुति की। इससे सर्वदेवेश्वर भगवान श्री हरि ने लक्ष्मी सहित प्रसन्न होकर देवताओं को मनोवांछित वरदान दिया। तबसे देवता और मनुष्य आदि प्राणी बहुत प्रसन्न रहने लगे। उनके यहाँ धन-धान्य की प्रचुर वृद्धि हुई और वे नीरोग होकर अत्यन्त सुख का अनुभव करने लगे। इसके बाद प्रसन्न होकर लक्ष्मी सहित भगवान विष्णु ने सम्पूर्ण लोकों के हित के लिये समस्त महामुनियों और देवताओं से कहा- मुनियो और महाबली देवताओं! तुम सब लोग सुनो- एकादशी तिथि परम पुण्यमयी है। वह सब उपद्रवों को शान्त करने वाली है। तुम लोगों ने भगवती लक्ष्मी का दर्शन पाने के लिये इस तिथि को उपवास किया है, इसलिये यह द्वादशी तिथि मुझे सदा प्रिय होगी। आज से जो लोग एकादशी को उपवास करके द्वादशी को प्रात: काल सूर्योदय होने पर बड़ी श्रद्धा के साथ लक्ष्मी और तुलसी के साथ मेरा पूजन करेंगे, वे सब बन्धनों से मुक्त होकर मेरे परम पद को प्राप्त करेंगे। उन पर सदैव लक्ष्मी देवी एवं भगवान नारायण की कृपा बनेगी। तब से ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध, मनुष्य, योगी तथा मुनिश्रेष्ठ भगवान की आज्ञा मानकर एकादशी एवं द्वादशी तिथि की महिमा जानकर बड़ी भक्ति के साथ एकादशी तिथि को उपवास और द्वादशी तिथि को भगवान लक्ष्मी नारायण का तुलसी से पूजन करने लगे।

लोकेन्द्र चतुर्वेदी