नारद पुराण के अनुसार चैत्र मास की पूर्णिमा मन्नादि तिथि कही गयी है। उसमें चन्द्रमा की प्रसन्नता के लिए कच्चे अन्न सहित जल में भरा हुआ ‘घट दान’ करना चाहिए। वैशाख की पूर्णिमा को सदाचारी ब्राह्मण को जो दान दिया जाता है, वह सब दाता को निश्चित रूप से प्राप्त होता है। उस दिन “धर्मराज व्रत” कहा गया है। वैशाख मास की पूर्णिमा तिथि को सदाचारी ब्राह्मण के लिए जल से भरा ‘घड़ा और पकवान दान’ करना चाहिए। वह गोदान का फल देने वाला होता है और उससे धर्मराज संतुष्ट होते हैं। जो स्वच्छ जल से भरे हुए कलशों का श्रेष्ठ सदाचारी ब्राह्मण को स्वर्ण के साथ दान करता है, वह कभी शोक में नहीं पड़ता है।
ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को ‘वट सावित्री का व्रत’ होता है। उस दिन स्त्री उपवास करके मधुर जल से वट वृक्ष से सींचे और सूत से उस वृक्ष को 108 बार प्रदक्षिणापूर्वक लपेटे एवं पति से नित्य संयोग बना रहे ऐसी प्रार्थना करे। जो नारी इस प्रकार प्रार्थना करके दूसरे दिन सुहागिन स्त्रियों को भोजन कराने के पश्चात स्वयं भोजन करती है, वह सदा सौभाग्यवती बनी रहती है। आषाढ़ मास की पूर्णिमा को “गोपद्मव्रत” का विधान है। उस दिन स्नान करके भगवान श्रीहरि की पूजा करें, तत्पश्चात वस्त्र और आभूषण आदि के द्वारा गुरु आचार्य तथा अन्यान्य सदाचारी ब्राह्मणों को यथाशक्ति मीठे पकवान भोजन कराये। इस प्रकार व्रत करके मनुष्य श्री हरि के प्रसाद से इहलोक व परलोक के भोगों को प्राप्त कर लेता है। श्रावण मास की पूर्णिमा को श्रीहरि विष्णु आदि देवताओं की पूजा करके उनकी प्रार्थना करें, फिर ब्राह्मण को नमस्कार कर उसी के हाथ से प्रसन्नतापूर्वक अपनी कलाई में रक्षासूत्र बांध लें। तदनन्तर ब्राह्मण को दक्षिणा प्रदान कर यथाशक्ति भोजन कराकर स्वयं भोजन करें।
इस प्रकार करने से रक्षा प्राप्त होती है। भाद्रपद मास की पूर्णिमा को “उमा महेश्वर व्रत” किया जाता है, उस दिन स्नानादि नित्यकर्म करके भगवान शंकर की विविध उपचारों से पूजा होने पर पुनः पूजा करके एवं रात्रि जागरण करना चाहिए। इस प्रकार प्रतिवर्ष 15 वर्षों तक इस व्रत का निर्वाह करना चाहिए। उसके बाद व्रत का उद्यापन करना चाहिए। इसमें भगवती उमा सहित भगवान शंकर की स्वर्ण प्रतिमा एवं 15 कलश का पूजन कर 15 ब्राह्मणों को कलश एवं आचार्य ब्राह्मण को स्वर्ण प्रतिमा का दान करना चाहिए। ब्राह्मणों को मिष्ठान्न एवं भोजन कराना चाहिए। इस प्रकार “उमा महेश्वर व्रत” का पालन करके मनुष्य इस पृथ्वी पर विख्यात होता है। वह समस्त सम्पत्तियों का निधि बन जाता है।
आश्विन मास की पूर्णिमा को “कोजागर व्रत” कहा गया है, इसमें स्नानादि नित्यकर्म करके उपवास करना चाहिए तथा तांबे के कलश पर स्वर्णमयी लक्ष्मी प्रतिमा स्थापित करके विविध उपचारों से उनकी पूजा करनी चाहिए। उसी दिन सायंकाल में चन्द्रोदय होने पर मिट्टी के घृतपूर्ण 100 दीपक जलावें। इसके बाद बहुत सी खीर तैयार करें और बहुत से पात्रों में उसे ढालकर चन्द्रमा की चांदनी में रखें। जब एक पहर बीत जाए तो लक्ष्मीजी को वह खीर अर्पित करें। तत्पश्चात भक्तिपूर्वक ब्राह्मणों को वह खीर व भोजन करावें। इस प्रकार मंगलमय कार्यों द्वारा रात्रि जागरण करना चाहिए। तदनन्तर प्रातःकाल में स्नानादि करके लक्ष्मीजी की स्वर्णमयी प्रतिमा की पूजा करके आचार्य ब्राह्मण को अर्पित कर दें। प्रतिवर्ष किया जाने वाला यह व्रत लक्ष्मीजी को संतुष्ट करने वाला है। इससे प्रसन्न हुई भगवती लक्ष्मी इस लोक में समृद्धि देती हैं और परलोक में सद्गति प्रदान करती हैं।
कार्तिक मास की पूर्णिमा को सम्पूर्ण शत्रुओं पर विजय पाने के लिए कार्तिकेय जी का दर्शन करना चाहिए। उसी तिथि को प्रदोष काल में ‘दीपदान’ के द्वारा सम्पूर्ण जीवों के लिए सुखदायक ‘त्रिपुरोत्सव’ करना चाहिए। उस दिन दीप का दर्शन करके कीट, पतंगा, मच्छर, वृक्ष तथा जल और स्थल में विचरने वाले दूसरे जीव भी पुनर्जन्म नहीं ग्रहण करते उन्हें अवश्य मोक्ष प्राप्त होता है।
मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन तिल, सूती कपड़े, कम्बल, जूते, चप्पल, स्वर्ण एवं चांदी के आभूषण आदि को अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान करने से मनुष्य स्वर्गलोक में सुखी होता है। जो उस दिन भगवान शंकर की पूजा करता है, वह अश्वमेध यज्ञ का फल पाकर भगवान विष्णु के लोक में प्रतिष्ठित होता है। फाल्गुन मास की पूर्णिमा को सब प्रकार के काष्ठों (लकड़ी) और उपलों (कंडों) का संग्रह करके होलिका पर काष्ठ, उपलों को फेंककर आग लगाना चाहिए।
इस प्रकार दाह करके होलिका की परिक्रमा करते हुए उत्सव मनाना चाहिए, इससे दरिद्रता दूर होती है एवं रक्षा प्राप्त होती है। परम पवित्र अमावस्या तिथि पितरों को अत्यंत प्रिय है। अमावस्या तिथि में विशेष रूप से पितरों की पूजा एवं पितरों के विभिन्न दान करने से पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है। पितरों की प्रसन्नता से धन, समृद्धि, सन्तति, आयु, उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।
चैत्र एवं वैशाख की अमावस्या को पितरों की पूजा, श्राद्ध, ब्राह्मण भोजन, विशेषतः गौ आदि का दान-ये सब कार्य सभी माह की अमावस्या को अत्यंत पुण्यदायक बताये गये हैं। ज्येष्ठ की अमावस्यातिथि में ज्येष्ठ की पूर्णिमा की तरह पूजा विधान करना चाहिए। आषाढ़, सावन और भाद्रपद मास में पितृश्राद्ध दान, होम और देवपूजा आदि कार्य अक्षय होते हैं। आश्विन की अमावस्या को विशेषरूप से गंगाजी के जल में या गया तीर्थ में पितरों का श्राद्ध-तर्पण करना चाहिए, वह मोक्ष देने वाला होता है।
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कार्तिक की अमावस्या को देवमंदिर, घर, नदी, बगीचा, वृक्ष, गोशाला तथा बाजार में दीपदान करना चाहिए औऱ विशेष रूप से भगवती लक्ष्मीजी का पूजन करना चाहिए। इस दिन गायों को घास और अन्त देकर नमस्कार और प्रदक्षिणा करके उनकी पूजा करनी चाहिए। इससे सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है। मार्गशीर्ष की अमावस्या को भी श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन के द्वारा पितरों की पूजा करने से सुख सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
पौष और माघ मास की अमावस्या में पितृश्राद्ध ब्राह्मण भोजन का विशेष फल प्राप्त होता है। फाल्गुन की अमावस्या में श्राद्ध एवं ब्राह्मण भोजन गया तीर्थ से अधिक फल देने वाला होता है। सोमवती अमावस्या को किया हुआ दान आदि सम्पूर्ण फलों को देने वाला होता है। उसमें किये श्राद्ध एवं ब्राह्मण भोजन, गोदान का फल सर्वाधिक होता है।
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