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बौद्धिक संपदा के अधिकार से मिले मुक्ति

यह सुखद खबर है कि विश्व के प्रत्येक देश में कोरोना टीका पहुंचाने की दिशा में अमेरिका ने अहम पहल की है। दरअसल भारत एवं दक्षिण अफ्रीका ने कोरोना टीकों को बौद्धिक संपदा अधिकार (आरपीआई) अर्थात 'पेटेंट' से छूट देने की मांग की थी। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में पिछले साल कोरोना महामारी जब चरम पर थी, तब यह प्रस्ताव रखा गया था। अब अमेरिकी प्रशासन ने इस प्रस्ताव पर अपनी सहमति दे दी है। यूरोपीय संघ भी सहमति देने पर विचार कर रहा है। फिलहाल डब्ल्यूटीओ में 164 देश सदस्य हैं। इनमें से 120 देशों ने भारत के प्रस्ताव का समर्थन कर किया है। किंतु विधान में विडंबना है कि जब सभी सदस्य देश किसी प्रस्ताव का समर्थन करेंगे तब वह प्रस्ताव मान्य होगा। किसी एक देश की असहमति भी इस पूरे प्रयास पर पानी फेर सकता है।

यदि डब्ल्यूटीओ में यह प्रस्ताव पारित हो जाता है तो टीका निर्माता सरकारी और निजी कंपनियों को अपनी तकनीक और शोध संबंधी जानकारियां साझा करनी होंगी, जिससे बिना कोई शुल्क चुकाए अन्य दवा कंपनियां इस टीके का निर्माण कर सकेंगी। नतीजतन टीके के उत्पादन की मात्रा बढ़ जाएगी और वैक्सीन गरीब देशों को भी सस्ती दरों पर मिल जाएगी। वैसे भारत समेत जो भी टीका निर्माता देश हैं, वे बौद्धिक संपदा के अधिकारों को सुरक्षित बनाए रखने के पक्ष में रहते हैं, लेकिन जब पूरी दुनिया महामारी से जूझ रही है तब यह जरूरी हो जाता है कि पेटेंट समझौतों में रियायत दे दी जाए। क्योंकि समय जिस गति से बीत रहा है, उस अनुपात में टीकाकरण नहीं हो पा रहा है। टीकों की मांग की तुलना में उपलब्धि बहुत कम है। हालांकि यह रियायत कंपनियां आसानी से देने को राजी नहीं हैं। इसलिए उनके सीईओ अमेरिका के फैसले को निराशाजनक एवं व्यापार विरोधी बता चुके हैं। खासकर यूरोपीय यूनियन के देश बेल्जियम, जर्मनी और फ्रांस वैक्सीन से होने वाला मुनाफा छोड़ना नहीं चाहते हैं। दरअसल टीका निर्माण की तकनीक पेटेंट मुक्त हो जाएगी तो टीके के निर्माण में पूंजी लगाने वाली कंपनियों को आर्थिक हानि तो उठानी ही पड़ेगी, भविष्य में भी टीके से लाभ नहीं कमा पाएंगी। लिहाजा डब्ल्यूटीओ यदि टीके को पेटेंट मुक्त करता है तो कंपनियां अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय से भी हस्तक्षेप की अपील कर सकती हैं।

कोई भी व्यक्ति या कंपनी नई दवा का उत्पाद या किसी उपकरण का अविष्कार करती है तो उसे अपनी बौद्धिक संपदा बताते हुए पेटेंट करा लेते हैं। मसलन इस उत्पाद और इसे बनाने की विधि (फॉर्मूला) को काई और उनकी इजाजत के बिना उपयोग नहीं कर सकता। दरअसल कंपनियां किसी दवा या टीके के निर्माण और उसके मरीज पर परीक्षण में करोड़ों रुपए खर्च करती हैं इसलिए कंपनियों के पक्ष में सरकारें रहती हैं। अमेरिका में बनी मॉडर्ना की वैक्सीन के शोध में अमेरिकी सरकार भी शामिल रही है। फाइजर ने भी इस शोध का इस्तेमाल किया है।

गोया, अमेरिका पेटेंट के अधिकार छोड़ता है तो बाकी देशों पर भी अधिकार छोड़ने का नैतिक दबाव बनेगा। भारत ने भी एस्ट्रोजेनेका की कोविशील्ड और भारत बायोटेक की को-वैक्सीन के निर्माण में पूंजी लगाई है, लेकिन कोविशील्ड पर पेंटेट खत्म करने का अधिकार भारत सरकार के पास न होकर एस्ट्रोजेनेका के पास है। इसे ऑक्सफोर्ड विवि में विकसित किया गया है। अदार पूनावाला की सीरम कंपनी सिर्फ इसका निर्माण कर रही है। को-वैक्सीन जरूर भारत बायोटेक और आईसीएमआर ने विकसित की है। अतएव इसकी बौद्धिक क्षमता पर भारत सरकार का अधिकार है।

हालांकि टीका बनाने की विधि बता देने भर से वैक्सीन बना लेना आसान नहीं है। इसके लिए दुनिया के अनेक देशों से द्विपक्षीय समझौतों के अंतर्गत कच्चा माल भी मंगाना होता है। भारत में वैक्सीन बनाने की गति इसलिए धीमी हुई, क्योंकि अमेरिका ने कुछ समय पहले कच्चा माल देने पर प्रतिबंध लगा दिया था। बहरहाल डब्ल्यूटीओ में प्रस्ताव पारित हो भी जाता है तो कंपनियों के पास अदालत जाने का मार्ग खुला रहेगा। हालांकि कोई कंपनी अदालत चली गई तो मामला लंबे समय तक लटक जाएगा।

पश्चिमी देशों द्वारा अस्तित्व में लाया गया पेटेंट एक ऐसा कानून है, जो व्यक्ति या संस्था को बौद्धिक संपदा का अधिकार देता है। मूल रूप से यह कानून भारत जैसे विकासशील देशों के पारंपरिक ज्ञान को हड़पने की दृष्टि से इजाद में लाया गया है। क्योंकि यहां जैव विविधता के अकूत भंडार होने के साथ, उनके नुस्खे मानव व पशुओं के स्वास्थ्य लाभ से भी जुड़े हैं। इन्हीं पारंपरिक नुस्खों का अध्ययन करके उनमें मामूली फेरबदल कर उन्हें एक वैज्ञानिक शब्दावली दे दी जाती है और फिर पेटेंट के जरिये इस बहुसंख्यक ज्ञान को हड़पकर इसके एकाधिकार चंद लोगों के सुपुर्द कर दिए जाते हैं। यही वजह है कि वनस्पतियों से तैयार दवाओं की ब्रिकी करीब तीन हजार बिलियन डॉलर तक पहुंच गई है। हर्बल या आयुर्वेद उत्पाद के नाम पर सबसे ज्यादा दोहन भारत की प्राकृतिक संपदा का हो रहा है। ऐसे ही बेतुके एवं चालाकी भरे दावे और तरकीबें ऐलोपैथी दवाओं के परिप्रेक्ष्य में पश्चिमी देशों की बहुराष्ट्रीय फार्मा कंपनियां अपना रही हैं।

विदेशी दवा कंपनियों की निगाहें इस हरे सोने के भंडार पर टिकी हैं। इसलिए 1970 में अमेरिकी पेटेंट कानून में नए संशोधन किए गए। विश्व बैंक ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि 'नया पेटेंट कानून परंपरा में चले आ रहे देशी ज्ञान को महत्व व मान्यता नहीं देता। बल्कि इसके उलट जो जैव व सांस्कृतिक विविधता और उपचार की देशी प्रणालियां प्रचलन में हैं, उन्हें नकारता है। जबकि इनमें ज्ञान और अनुसंधान अंतनिर्हित हैं। ये समाज में इसलिए संज्ञान में हैं, जिससे इन्हें आपस में साझा करके उपयोग में लाया जा सके। साफ है, बड़ी कंपनियां देशी ज्ञान पर एकाधिकार प्राप्त कर समाज को ज्ञान और उसके उपयोग से वंचित करना चाहती हैं।

इसी क्रम में सबसे पहले भारतीय पेड़ नीम के औषधीय गुणों का पेटेंट अमेरिका और जापान की कंपनियों ने कराया था। 3 दिसंबर 1985 को अमेरिकी कंपनी विकउड लिमिटेड को पेटेंट संख्या 4,556562 के तहत नीम के कीटनाशक गुणों की मौलिक खोज के पहले दावे के आधार पर बौद्धिक संपदा का अधिकार दिया गया। इसके पहले 7 मई 1985 को जापान की कंपनी तरुमो कारपोरेशन को पेटेंट संख्या 4,515785 के तहत नीम की छाल के तत्वों व उसके लाभ को नई खोज मानकर बौद्धिक स्वत्व दिया गया था। इसके बाद तो पेटेंट का सिलसिला रफ्तार पकड़ता गया। हल्दी, करेला, जामुन, तुलसी, भिंडी, अनार, आमला, रीठा, अर्जुन, हरड़, अश्वगंधा, शरीफा, अदरक, कटहल, अर्जुन, अरंड, सरसों, बासमती चावल, बैंगन और खरबूजा तक पेटेंट की जद में आ गए। सबसे नया पेटेंट भारतीय खरबूजे का हुआ है। इसे पेटेंट संख्या ईपी, 1,962578 देकर इसके एकाधिकार अमेरिकी बीज कंपनी मोनसेंटो को दे दिए गए।

मोनसेंटों ने दावा किया था कि उसने बीज तथा पौधे में कुछ आनुवंशिक परिवर्धन किया है, इससे वह हानिकारक जीवाणुओं से प्रतिरोध करने में सक्षम हो गया है। भारतीय वैज्ञानिकों ने इस हरकत को बायो-पायरेसी यानी वनस्पति की लूट-खसोट कहा भूमण्डलीय वैश्विक व्यापारियों को अच्छी तरह से पता था कि दुनिया में पाई जाने वाली वनस्पतियों में से 15 हजार ऐसी हैं, जो केवल भारत में पाई जाती हैं। इनमें 60 प्रतिशत औषधि और खाद्य सामग्री के उपयोग की जानकारी आम भारतीय को है। इसलिए हर कोई जानता है कि करेले और जामुन का उपयोग मधुमेह से मुक्ति के उपायों में शामिल है। किंतु इनका पेटेंट के बहाने नया आविष्कार जताकर अमेरिकी कंपनी क्रोमेक रिसर्च ने हासिल कर लिया है। क्या इन्हें मौलिक आविष्कार माना जा सकता है ?

इसी तरह केरल में पाई जाने वाली ’वेचूर’ नस्ल की गायों के दूध में पाए जाने वाले तत्व 'अल्फा लैक्टालबुमिन’ का पेटेंट इंग्लैण्ड के रोसलिन संस्थान ने करा लिया था। इन गायों में वसा की मात्रा 6.02 से 7.86 प्रतिशत तक पाई जाती है। जो यूरोप में पाई जाने वाले किसी भी गाय की नस्ल में नहीं मिलती। यूरोप में पनीर और मक्खन का बड़ा व्यापार है और भारत दुग्ध उत्पादन में अग्रणी देश है। इसलिए अमेरिका और इंग्लैंड वेचूर गायों का जीन यूरोपीय गायों की नस्ल में प्रत्यारोपित करेंगे और पनीर व मक्खन से करोड़ों डॉलर का मुनाफा बटोरेंगे।

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इसी तरह भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में बहुतायत पैदा होने वाले बासमती चावल का पेटेंट अमेरिकी कंपनी राइसटेक ने हड़प लिया। यह चावल आहार नलिकाओं को स्वस्थ रखने में औषधीय गुण का काम करता है। हल्दी के औषधीय गुणों व उपचार से देश का हर आदमी परिचित है। इसका उपयोग शरीर में लगी चोट को ठीक करने में परंपरागत ज्ञान के आधार पर किया जाता है। इसमें कैंसर के कीटाणुओं को शरीर में नहीं पनपने देने की भी क्षमता है। मधुमेह और बवासीर के लिए भी हल्दी असरकारी औषधि के रुप में इस्तेमाल होती है। कोरोना वायरस के असर को खत्म करने के लिए करोड़ों लोग इसे दूध में मिलाकर पी रहे हैं। इसका भी पेटेंट अमेरिकी कंपनी ने करा लिया था, किंतु इसे चुनौती देकर भारत सरकार खारिज करा चुकी है। दरअसल पेटेंट कानून बौद्धिक संपदा के बहाने विकासशील देशों की ज्ञान परंपरा को हड़पने का एक अंतर्राष्ट्रीय कानून है, जिसे समाप्त करना ही कोरोना महामारी से जूझ रही दुनिया के हित में है।

प्रमोद भार्गव