कोलकाता: एकबार विदाई दे मां, घूरे आसी। हंसी हंसी पोरबो फांसी देखबे भारतबासी।। इसका मललब, ओ मां, मुझे एकबार विदा दो तनिक घूमकर आता हूं, हंसता हंसता फांसी के फंदे पर चढ़ जाऊंगा और सारे भारतवासी देखेंगे। यह लाइनें उस निर्भीक क्रांतिकारी की हैं, जो 18 साल की उम्र में अपने देश की आजादी के फांसी के फंदे पर झूल गया। यह कविता मासूम चेहरे और फौलादी जिगर वाले खुदीराम बोस ने कोयले से जेल की दीवार पर लिखी थीं, जब अंग्रेजों ने उन्हें फांसी पर चढ़ाने से पहले जेल में बंद कर दिया था।
भारत माता की आजादी के लिए मौत को गले लगाने वाला यह दुबला पतला धोती पहने युवक बंगाल के मेदिनीपुर से चलकर बिहार के मुजफ्फरपुर तक आता है। भूखे प्यासे और नंगे पांव भटक कर वन्दे मातरम का गायन करता है, लेकिन उसके सीने में देश के लिए कुछ करने की तमन्ना थी। उसके निशाने पर मुजफ्फरपुर के मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड पर था। दरअसल, क्रांतिकारियों की संस्था युगांतर ने तय किया था कि युवकों और बच्चों को कोड़े मारने की सजा देने वाला किंग्सफोर्ड को मौत मिलनी चाहिए। क्रांतिकारियों के दल ने किंग्सफोर्ड मारने की जिम्मेदारी खुदीराम और प्रफुल्लचंद्र चाकी को दिया था।
क्रांतिकारियों व बच्चों के साथ बर्बरता करने वाले किंग्सफोर्ड पर फेंका था बम
- 30 अप्रैल 1908 की रात थी, करीब साढ़े आठ बजे थे, बंगाल में अपने क्रूर फैसलों के लिए कुख्यात किंग्स्फोर्ड क्रांतिकारियों के खतरे से बचने के लिए मुजफ्फरपुर आकर आश्वस्त था। वह क्लब में पत्ते खेलकर घर आने की तैयारी कर रहा था। लेकिन उसके घर के बाहर कृष्ण-सुदामा सी जोड़ी के दो दुबले पतले युवक (खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी) दोपहर से किंग्सफोर्ड की तलाश में घात लगाए बैठे थे। जब बग्घी घर में आती दिखी तो सधे हाथों से बम फेंका। बम का धमाका इतना तीव्र था कि तीन मील इसकी आवाज सुनी गई और इसकी धमक की गूंज लन्दन तक गई। इस बम धमाके में किंग्सफोर्ड बच गया क्योंकि वह बग्घी में नहीं था लेकिन दो यूरोपियन महिलाओं की मौत हुई थी। किंग्सफोर्ड के बचने का खुदीराम और प्रफुल्ल चंद चाकी को बेहद अफसोस हुआ था। इसके बाद दोनों वहां से भाग गए। समस्तीपुर के रास्ते में 24 मील तक भागने के बाद पूसा के पास छोटे से स्टेशन वैनी के पास एक फूस की झोपड़ी में बनी दुकान पर पहुंचे थे। यहां दो सिपाहियों ने उन्हें शक के आधार पर घेर लिया था। अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लग गई और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। अपने को पुलिस से घिरा देख प्रफुल्लचंद चाकी ने खुद को गोली मारकर अपनी शहादत दे दी जबकि खुदीराम पकड़े गए।
आजादी के लिए फांसी पर लटकने वाले सबसे कम उम्र के थे क्रांतिकारी
सरकार की ओर से भानुक व विनोद मजूमदार तथा बोस की ओर से कालिका दास बोस ने मुकदमा लड़ा था। मात्र आठ दिन तक चली सुनवाई में पक्ष व विपक्ष के बीच जोरदार बहस के बाद कोर्ट ने अंतत: 13 जुलाई 1908 को उन्हें फांसी की सजा सुनाई। इस फैसले के विरूद्ध कलकत्ता उच्च न्यायालय में तत्कालीन न्यायाधीश ब्रास व ऋषि की अदालत में अपील की गई। जज ने फांसी की सजा बहाल रखी। इस विस्फोट के आरोप में 11 अगस्त 1908 की अहले सुबह 3:55 बजे मुजफ्फरपुर सेंट्रल जेल में खुदीराम बोस को फांसी दे दी गई। भारत माता के इस वीर सपूत ने इतनी कम उम्र में ही गीता हाथ में लेकर हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया। फांसी का फंदा चूम रहे खुदीराम के समर्थन में कैदियों ने वंदे मातरम के नारे लगाए थे। कुछ इतिहासकार खुदीराम को देश के लिए फांसी पर चढ़ने वाला सबसे कम उम्र का क्रांतिकारी मानते हैं। बोस को फांसी दिए जाने के बाद हजारों लोगों की भीड के बीच बूढी गंडक नदी के तट पर उनका दाह-संस्कार किया गया। इसके पूर्व शहीद के मृत शरीर पर चाकू से गोदकर वंदे मातरम् लिखा गया। मुजफ्फरपुर के दो अधिवक्ता एवं तीन बंगाली युवकों ने सामूहिक रूप से शहीद को मुखाग्नि दी थी।
बचपन में ही मां-बाप को खो दिया था
खुदीराम बोस ने बचपन में अपने माता पिता को खो दिया था। बड़ी बहन ने ही उनका लालन पालन किया था। नौवीं में पढ़ने के दौरान बंकिमचन्द्र का उपन्यास वन्दे मातरम् पढ़कर वह इतने प्रभावित हुए कि वह उसका प्रचार करने लगे। बचपन से वे क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आ गए थे। वर्ष 1902 में अरविन्द घोष और भगिनी निवेदिता मेदिनीपुर में गुप्त सभाओं में क्रांतिकारियों से संपर्क करते थे और खुदीराम उन बैठक में नियमित शामिल होते थे। एकदिन पुलिस ने पकड़ लिया लेकिन सबूतों के अभाव में बच निकले। बंग-भंग के विरोध के दौरान 1906 के एक कृषि-उद्योग मेले में क्रांतिकारी पर्चे बांटते समय एक सिपाही ने उन्हें पकड़ना चाहा। खुदीराम ने उसकी नाक पर ऐसा घूंसा मारा की सिपाही गिरकर बेहोश हो गया और यह भाग निकले।
बचपन से क्रांतिकारी संगठनों से जुड़ गए थे बोस
खुदीराम का जन्म तीन दिसंबर 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में त्रैलोक्यनाथ बोस के यहां हुआ था। देश को आजाद कराने की ऐसी लगन लगी कि उन्होंने 9वीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और स्वदेशी आंदोलन में कूद पड़े। वे रिवॉल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वंदेमातरम् पंफलेट वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में चलाए गए आंदोलन में भी उन्होंने बढ़-चढ़कर भाग लिया। 28 फरवरी 1906 को खुदीराम बोस गिरफ्तार कर लिए गए, लेकिन वे कैद से भाग निकले। लगभग दो महीने बाद अप्रैल में वे फिर से पकड़े गए। 16 मई 1906 को उन्हें रिहा कर दिया गया। 06 दिसंबर 1907 को खुदीराम ने नारायगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया, परंतु गवर्नर बच गया। सन 1908 में उन्होंने दो अंग्रेज अधिकारियों वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर पर बम से हमला किया लेकिन वे भी बच गए।
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