जगदलपुर: रियासत कालीन बस्तर दशहरा (Bastar Dussehra) में सोमवार को पहली फूल रथ की परिक्रमा देर रात लगभग 11:30 बजे पूरी हुई। नये रथ निर्माण में देरी की वजह से पहली बार फूलरथ की परिक्रमा रात 10 बजे से शुरु की गई, जबकि 06 बजे से परिक्रमा शुरु हो जाना था। कारीगरों के द्वारा रथ का निर्माण शाम 07 बजे तक खत्म हुआ। इसके बाद रथ की सजावट में दो से तीन घंटे लग गए। इसके बाद फूल रथ की पहली परिक्रमा पूरी की गई। फूल रथ की परिक्रमा रोजाना अगले पांच दिनों तक रथ परिक्रमा मार्ग से होते हुए मां दंतेश्वरी मंदिर के सिंह द्वार पंहुची।
रथ परिक्रमा के पूर्व जिला पुलिस बल के जवानों द्वारा हर्ष फायर कर मां दंतेश्वरी के छत्र को परंपरानुसार सलामी दी गई। लगभग 50 घन मीटर लकड़ी से तैयार विशाल दुमंजिला रथ को खींचने के लिए 15 गांवों के करीब 400 युवकों ने परंपरा का निर्वहन किया। बस्तर दशहरा के दुमंजिला विशाकाय काष्ठ रथ को खींचने की जिम्मेदारी रियासतकाल के दौर से जगदलपुर ब्लॉक के करीब 36 गांवों के ग्रामीणों को प्राप्त है, जिसका वे निर्वहन करते चले आ रहे हैं।
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महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव ने दिया भव्य रूप
उल्लेखनीय है कि बस्तर के ऐतिहासिक दशहरा पर्व को भव्य रूप प्रदान करने में बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव अपने जीवन के अंतिम क्षण तक प्रयास करते रहे। उनके जीवनकाल में राजमहल का सिंहद्वार हमेशा बस्तर के ग्रामीणों के लिए खुला रहा। देवी की रथ यात्रा तथा विधानों के अनुसार पर्व संपन्न करवाना उनके दृढ़ संकल्प एवं आदर्श के रूप में आज भी याद किया जाता है।
बस्तर की परंपरा बनी रथ परिक्रमा
पूर्व में दंतेश्वरी मांई के छत्र के साथ बस्तर महाराजा बैठते थे। स्व.प्रवीरचंद्र भंजदेव की राजा होने की मान्यता 1961 में समाप्त होने के बाद भी 1965 तक रथ पर राजपरिवार के सदस्य आरूढ़ होते रहे। बस्तर के अंतिम महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की मृत्यु 1966 में होने के बाद रथ पर दंतेश्वरी मांई का छत्र ही आरूढ़ कर रथ परिक्रमा संपन्न हो रही है। अब यह परंपरा का रूप ले चुका है।
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