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काशी विश्वनाथ मंदिर के पुरातात्विक सर्वेक्षण को फास्ट ट्रैक कोर्ट ने दी मंजूरी

वाराणसीः वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर और उसी परिक्षेत्र में स्थित ज्ञानवापी मस्जिद मामले में सिविल जज सीनियर डिविजन फास्ट ट्रैक कोर्ट की अदालत ने पुरातात्विक सर्वे कराए जाने को लेकर फैसला सुनाया है। कोर्ट ने केंद्र के पुरातत्व विभाग के 5 लोगों की टीम बनाकर पूरे परिसर का रिसर्च कराने को लेकर फैसला किया है। अदालत ने वादमित्र की पुरातात्विक सर्वेक्षण कराने की याचिका मंजूर कर ली है। इस मामले में न्यायालय ने पहले ही दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद फैसला सुरक्षित रख आदेश के लिए आठ अप्रैल की तिथि मुकर्रर की थी। न्यायालय ने अपील मंजूर करने के बाद आर्कियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया को अपने खर्चे पर खुदाई करने और ऑब्जर्वर के नेतृत्व में पांच सदस्यीय कमेटी गठन करने का निर्देश भी दिया है।

याचिका मंजूर होने पर सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के अधिवक्ता ने कहा कि वह सीनियर डिवीजन फास्ट ट्रैक अदालत के फैसले से संतुष्ट नहीं है, इसलिए फैसले के विरोध में हाईकोर्ट जायेंगे। इस मामले में सुनवाई के क्षेत्राधिकार को लेकर भी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड और अंजुमन इंतजामिया ने चुनौती दी थी। सिविल जज सीनियर डिवीजन ने 25 फरवरी 2020 को इस चुनौती को खारिज कर दिया था। इस फैसले के खिलाफ भी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड और अंजुमन इंतजामिया मसाजिद ने जिला जज के यहां निगरानी याचिका दाखिल की है जिस पर आगामी 12 अप्रैल को सुनवायी होनी है। इसी मुकदमे की पोषणीयता को लेकर हाइकोर्ट में भी एक सुनवाई चल रही है। इस मामले में दोनों पक्षों की ओर से बहस भी पूरी हो चुकी है, इस पर हाइकोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा है।

प्राचीन मूर्ति स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भगवान विश्वेश्वरनाथ की ओर से वादमित्र विजय शंकर रस्तोगी ने न्यायालय में बहस के दौरान दलील दी थी कि वर्तमान वाद में विवादित स्थल की धार्मिक स्थिति 15 अगस्त 1947 को मंदिर की थी अथवा मस्जिद की, इसके निर्धारण के लिए साक्ष्य की आवश्यकता है। विवादित स्थल विश्वनाथ मंदिर का एक अंश है, इसलिए एक अंश की धार्मिक स्थिति का निर्धारण नहीं किया जा सकता, बल्कि ज्ञानवापी परिसर का भौतिक साक्ष्य लिया जाना बेहद जरूरी है जिसे पुरातात्त्विक विभाग जांचकर वस्तुस्थिति स्पष्ट कर सकता है कि ढांचा के नीचे कोई मंदिर था अथवा नहीं। तथ्यों के आधार पर प्राचीन विश्वनाथ मंदिर के ध्वस्त अवशेष प्राचीन ढांचा के दीवारों में अंदरुनी और बाहरी तौर पर विद्यमान बताए गए हैं। बहस के दौरान यह भी कहा गया कि पुराने विश्वनाथ मंदिर के अलावा पूरे परिसर में अनेक देवी-देवताओं के छोटे-छोटे मंदिर थे जिनमें से कुछ आज भी विद्यमान हैं। वादमित्र का कहना था कि वर्तमान ज्योर्तिलिंग की स्थापना 1780 में महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने कराया था। अयोध्या मामले का हवाला देकर कहा गया कि वहां भी पुरातात्विक विभाग से रिपोर्ट मंगाई गई थी, जिसके बाद ही अंतिम फैसला आया था। अदालत में प्राचीन मूर्ति स्वयंभू लार्ड विश्वेश्वरनाथ के वाद मित्र विजयशंकर रस्तोगी की तरफ से वर्ष 1991 से लंबित इस प्राचीन मुकदमे में आवेदन दिया था। जिसमें कहा गया कि मौजा शहर खास स्थित ज्ञानवापी परिसर के आराजी नंबर 9130, 9131, 9132 रकबा एक बीघे नौ बिस्वा जमीन का पुरातात्विक सर्वेक्षण रडार तकनीक से करके यह बताया जाए कि जो जमीन है, वह मंदिर का अवशेष है या नहीं। साथ ही विवादित ढांचा का फर्श तोड़कर देखा जाए कि 100 फीट ऊंचा ज्योतिर्लिंग स्वयंभू विश्वेश्वरनाथ का मौजूद है या नहीं। वादमित्र का पक्ष रहा कि 14वीं शताब्दी के मंदिर में प्रथम तल में ढांचा और भूतल में तहखाना है, जिसमें 100 फुट ऊंचा शिवलिंग है, यह खुदाई से स्पष्ट हो जाएगा। मंदिर हजारों वर्ष पहले 2050 विक्रमी संवत में राजा विक्रमादित्य ने बनवाया था। फिर सतयुग में राजा हरिश्चंद्र और वर्ष 1780 में अहिल्याबाई होलकर ने जीर्णोद्धार कराया था।

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उधर, सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड के अधिवक्ता पक्ष की दलील है कि जब मंदिर तोड़ा गया, तब ज्योतिर्लिंग उसी स्थान पर मौजूद था, जहां आज है। उसी दौरान राजा अकबर के वित्तमंत्री टोडरमल की मदद से नरायन भट्ट ने मंदिर बनवाया था, जो उसी ज्योतिर्लिंग पर बना है। ऐसे में विवादित ढांचा के नीचे दूसरा शिवलिंग कैसे आ सकता है। इसलिए खुदाई नहीं होनी चाहिए। उनका कहना था कि विवादित ढांचा खोदे जाने से शांति भंग भी हो सकती है। न्यायालय का यह दायित्व है कि वहां शांति बनी रहे।

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