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पान की खेती से मुंह मोड़ रहे किसान, उपेक्षा के चलते उत्पादन में आई भारी गिरावट

लखनऊः राजधानी में धीरे-धीरे पान की खपत कम होती जा रही है। यह शहर के बाहरी इलाकों में गुमटियों में बिकता हुआ देखा जाता है। लखनऊ को नवाबों का शहर कहा जाता है। यहां नवाबों के समय से पान का चलन रहा। यह फैशन में भी शुमार है। कुछ पार्टियों में भी इसके स्टाल भी देखे जाते हैं। इसके बाद भी कई कारणों से पान धीरे-धीरे लुप्त हो रहा है।

यह जिस स्थान में उगाया जाता था, उनमें भी कमी आईं है। एक समय था जब यहां के ज्यादातर किसान पान की खेती किया करते थे। अब यदा-कदा किसान ही पान की खेती करते हैं। माना जा रहा है, इसका मुख्य कारण पान का सही मूल्य न मिल पाना है। दूसरी ओर अब शहर को स्वच्छ बनाने में भी इसका चलन बंद करने की जरूरत बताई जा रही है। तमाम लोग पान खाकर सड़कों पर थूकते रहते हैं। यह स्वच्छता अभियान को भी पलीता लगाने का काम करते हैं। तमोली परिवार के लोगों की ओर से पान की भीट तैयार की जाती थी। इनमें कुंदरू और परवल जैसी सब्जी भी उगाई जाती थी। बछरावां और बाराबंकी के कई परिवार आज भी दादा-परदादाओ के जमाने से पान की खेती करते आ रहे हैं। इनके परिवार के युवकों की खेती करने वाले किसानों की मानें तो खेती के लिए पर्याप्त पूंजी के अभाव में अब वे अपनी परंपरागत खेती छोड़कर नई पीढ़ी दिल्ली और मुम्बई में मजदूरी करने के लिए जाने पर मजबूर हो रहे हैं। रामसनेहीघाट और निगोहां पान की खेती के लिए काफी मशहूर थे।

लखनऊ, बनारस और महोबा के पान की जानी-मानी प्रजातियों की पौध को मंगाकर खेती की जाती थी। पान की खेती करने वाले पुराने किसानों का कहना है कि सरकार का सहयोग नहीं मिल रहा है। दुकानें भी कम हो रही हैं। खाने वालों की भी कमी हो रही है। पान की खेती को बचाने के लिए की गई सरकार कई घोषणाओं के बावजूद इसमें सुधार नहीं हो रहा है। बाराबंकी जिले में रेहरिया गाँव के किसान पान लगाते थे। उनका कहना है कि लखनऊ के पान दरीबा में पहुंचते काफी किराया खर्च हो जाता है। किसान का कहना है कि ट्रांसपोर्ट भी महंगा हो गया है। किसानों का कहना है कि नई तकनीक से खेती करने के गुर बताए जाने चाहिए। आज भी पान की पुराने तौर-तरीकों से खेती की जा रही है। लखनऊ के पान दरीबा और फैजाबाद में पान की छोटी मंडी लगती है। पान की बड़ी मंडी बनारस मे लगती है। यह दूर होने के कारण बनारस न जा करके फैजाबाद में पान बेचते हैं।

गुटखे ने बिक्री पर डाला असर

पान की खपत कम होने का कारण है कि गुटखा खरीदने वाले को मुफ्त में पान के एक दर्जन पत्ते दिए जाते थे, लेकिन विरोध की यह आवाज भी दबकर रह गई। तमाम परिवार इसका उत्पादन कर अपना जीविकोपार्जन करते रहे हैं। अब यह इतिहास बनने लगा है। गुटखा ने इसकी खपत कम कर दी है। जिधर भी देखो गुटखा की बिक्री हो रही है, जबकि पान की दुकानें यदा-कदा ही दिखती हैं।

पान पर नहीं प्रतिबंध

तम्बाकू की तरह पान पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं है। थूकने वाली आदत दूर कर दी जाए तो पान का किसी प्रकार से नुकसान नहीं है। दुकानदार तमाम तरह के स्वादिष्ट वस्तुएं तैयार कर इसमें मिलाते हैं। यह बेहत सुगंधित और स्वादिष्ट भी होते हैं। इसके बाद भी इसकी उपेक्षा हो रही है।

नाजुक होती है खेती

पान की खेती बेहद नाजुक दौर से गुजरती है। इसकी खेती घास-फूस व लकड़ी के बनाए गए झोपड़े के अंदर होती है। इसकी सिंचाई में काफी मेहनत करनी पड़ती है। पहले किसान छेद किए हुए घड़े का इस्तेमाल करते थे, अब छिड़क खेती की जाती है। गर्मी के दिन में कम से कम तीन से चार बार यह प्रक्रिया चलती है। प्रति एक बीघा मे भीट बनाने में बांस से लेकर सेंठा पूरी भीट तैयार करने में 50 हजार रुपए का खर्च लगता है।

शीत लहर सबसे बड़ा दुश्मन

शीत लहर का सबसे ज्यादा प्रभाव पान की खेती पर पड़ता है। ठंड से पान के पत्ते काले पड़ जाते हैं और बेजान दिखने लगते हैं। इसमें भुन्गी नाम का कीड़ा पैदा हो जाता है। वह पान के पेड़ों की नर्म पत्तियों को खा जाते हैं। लताओं का विकास नही हो पाता है, जो एक प्रकार से रोग है। कृषि विशेषज्ञ और वैज्ञानिक भी इस दिशा में विचार या चिंता नहीं करते हैं। लोग रोग के उपचार के लिये रोग ग्रसित पेड़ को लेकर बीज भंडार की दुकान पर दिखाकर दवा ले आते हैं। यह काम काफी कठिन होता है। कोटवा से करीब सनौली गांव के एक पान उत्पादक किसान का कहना है कि करीब 10 वर्ष पहले एक हजार एकड़ में पान की खेती होती थी, लेकिन अब यह केवल 50 एकड़ मेें ही होती है। उनका पूरा परिवार पहले चार एकड में पान की खेती करता था, लेकिन अब एक एकड़ में ही खेती हो पाती है।

सहफसली का लाभ मिलता था

पान की खेती के साथ परवल, करेला तोरई और कुंदरू की खेती सहफसली के रूप साथ-साथ समय पर करते हैं, जिससे पान की खेती मे हुये नुकसान की भरपाई कर लेते हैं। भारतीय आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार, सन् 2000 में देश भर में पान का कारोबार करीब 800 करोड़ का था। पिछले दशकों में इस कारोबार में 50 फीसदी से भी ज्यादा की कमी आई है।

विदेशों में किया जाता है निर्यात

पान को विदेशों में निर्यात किया जाता है। यह देश में अलग-अलग किस्म के पाए जाते हैं। इसका स्थानीय भाषा में अलग-अलग नाम है। पूरे देश में यह गहरे हरे रंग की पत्तियां पान के नाम से ही मशहूर हैं। कहीं-कहीं सफेद पान भी मिलने लगे हैं। इसका वैज्ञानिक नाम पीपर बेटेल है। इसे औषधि में, परफ्यूम और टॉनिक तैयार करने में इस्तेमाल किया जाता है। इसका रस दवाओं में भी पड़ता है, इसलिए यह किसानों को काफी फायदेमंद फसल है।

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