ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव एवं उसकी महिमा

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Omkareshwar Jyotirlinga : ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग भारतवर्ष के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक ओंकारेश्वर-अमलेश्वर ज्योतिर्लिंग नर्मदा नदी के मध्य द्वीप पर स्थित है। ओंकारेश्वर में ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के साथ अमलेश्वर ज्योतिर्लिंग भी है। इन दोनों शिवलिंगों को एक ही ज्योतिर्लिंग माना जाता है। शिवपुराण में कोटिरूद्र संहिता में चौथे ज्योतिर्लिंग के रूप में वर्णन किया गया है। सूतजी कहते हैं-महर्षियों, ओंकार तीर्थ में परमेश संज्ञक ज्योतिर्लिंग, जिस प्रकार प्रकट हुआ, वह बताता हूं।

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सूतजी बोले-एक समय की बात है, भगवान नारद मुनि, गोकर्ण नामक शिव के समीप जाकर बड़ी भक्ति के साथ उनकी सेवा करने लगे। कुछ काल के बाद वे मुनि श्रेष्ठ वहां से गिरिराज विंध्य पर आये और विंध्य ने वहां बड़े आदर के साथ उनका पूजन किया। ‘मेरे यहां सब कुछ है, कभी किसी बात की कमी नहीं होती है’ इस भाव को मन में लेकर विंध्याचल नारद जी के सामने खड़ा हो गया। उसकी वह अभिमान भरी बात सुनकर अहंकार नाशक नारद मुनि लंबी सांस खींचकर चुपचाप खड़े रह गये। यह देखकर विंध्य पर्वत ने पूछा-आपने मेरे यहां कौन सी कमी देखी है?

आपके इस तरह लम्बी सांस खींचने का क्या कारण है? नारद जी ने कहा- भैया! तुम्हारे यहां सब कुछ है, फिर भी मेरू पर्वत तुमसे बहुत ऊंचा है। उसके शिखरों का विभाग देवताओं के लोकों में भी पहुंचा हुआ है, किन्तु तुम्हारे शिखर का भाग वहां कभी नहीं पहुंच सका है। ऐसा कहकर नारद जी वहां से जिस तरह आये थे, उसी तरह चल दिये, परन्तु विंध्य पर्वत ‘मेरे जीवन को धिक्कार है’ ऐसा सोचते हुए मन ही मन संतप्त हो उठा। अच्छा, अब मैं विश्वनाथ भगवान शम्भू की आराधनापूर्वक तपस्या करूंगा, ऐसा हार्दिक निश्चय करके वह भगवान शंकर की शरण में गया।

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तदनन्तर जहां साक्षात ओंकार की स्थिति है, वहां प्रसन्नतापूर्वक जाकर उसने शिवजी की पार्थिव मूर्ति बनायी और छह माह तक निरंतर शम्भू की आराधना करके शिव के ध्यान में तत्पर हो, वह अपनी तपस्या के स्थान से हिला तक नहीं। विंध्याचल की ऐसी तपस्या देखकर पार्वती पति प्रसन्न हो गये। उन्होंने विंध्याचल को अपना वह स्वरूप दिखाया जो योगियों के लिए भी दुर्लभ है। वे प्रसन्न हो, उस समय उससे बोले-विंध्य! तुम मनोवांछित वर मांगो, मैं भक्तों को अभीष्ट वर देनेवाला हूं और तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं।

विंध्य बोला-देवेश्वर शम्भो! आप सदा ही भक्त वत्सल हैं। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो मुझे वह अभीष्ट बुद्धि प्रदान कीजिये, जो अपने कार्य को सिद्ध करने वाली हो। भगवान शम्भू ने उसे वह उत्तम वर दे दिया और कहा कि पर्वतराज विंध्य! तुम जैसा चाहो वैसा करो। इसी समय देवता तथा निर्मल अंतःकरण वाले ऋषि वहां आये और शंकरजी की पूजा करके बोले-प्रभो! आप यहां स्थिर रूप से निवास करें। देवताओं की बात सुनकर परमेश्वर शिव प्रसन्न हो गये और लोकों को सुख देने के लिए उन्होंने सहर्ष वैसा ही किया।

वहां जो एक ही ओंकार लिंग था, वह दो स्वरूपों में विभक्त हो गया। प्रणव में जो सदाशिव थे, वे ओंकार नाम से विख्यात हुए और पार्थिव मूर्ति में जो शिव की ज्योति प्रतिष्ठित हुई उसकी परमेश्वर संज्ञा हुई। यहां सनद रहे कि परमेश्वर को ही अमलेश्वर भी कहते हैं। इस प्रकार ओंकार और परमेश्वर ये दोनों ज्योतिर्लिंग भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करने वाले हैं। उस समय देवताओं और ऋषियों ने उन दोनों लिंगों की पूजा की और भगवान शिव शम्भू को संतुष्ट करके अनेकों वर प्राप्त किये, तत्पश्चात देवता अपने-अपने स्थान को गये और विंध्याचल भी अधिक प्रसन्नता का अनुभव करने लगा।

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उसने अपने अभीष्ट कार्य को सिद्ध किया और जो मानसिक परिताप सहित पूजन एवं दर्शन करता है, वह अपने अभीष्ट फल को प्राप्त कर लेता है। बुद्धि विकार, मानसिक ताप से मुक्ति मिलती है। ओंकारेश्वर-अमलेश्वर ज्योतिर्लिंग सदा पूजनीय और सबके सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि करनेवाला तथा समस्त आपत्तियों का निवारण करने वाला है।

लोकेन्द्र चतुर्वेदी

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