Saturday, December 14, 2024
spot_img
spot_img
spot_imgspot_imgspot_imgspot_img
Homeअन्यज्ञान अमृतएकादशी व्रत महिमा

एकादशी व्रत महिमा

भारतीय संस्कृति में व्रतों की लम्बी श्रृंखला है। हमारे ऋषि-मुनियों ने धार्मिक व्रतों के अनुपालन का आदेश दिया है ताकि मानवमात्र व्रतों के पालन से अनेक प्रकार के पाप का नाश तथा रोगों से मुक्त होकर स्वस्थ जीवन-यापन करते हुए भगवत्प्राप्ति का सहज सुलभ साधन कर सके। सभी व्रतों का विधान अलग होते हुए भी ध्येय सबका समान ही है। मन पर नियन्त्रण और शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वास्थ्य की प्राप्ति और पाप का नाश व्रत का प्रतिफल है। मन सभी क्रियाकलापों का आधार है, संकल्प-विकल्प का उद्गम स्थान है।

व्रत के विधान के अनुसार लंघन या स्वल्पाहार से शारीरिक सुधार जैसे आँतो का अवशिष्ट मल निष्कासित होता है। फलस्वरूप आँते अधिक सक्रिय हो जाती हैं जो स्वास्थ्य का आधार है। व्रत के परिणाम में पापनाश होने पर जीवात्मा में परमात्मिक ऐश्वर्य प्रकट होने लगते हैं। आत्मा परमात्मा की निकटता की ओर आगे बढ़ती है। व्रत में शुद्ध-सात्विक आहार लिया जाता है जिससे मन शुद्ध होता है, सत्व की शुद्धि होती है। सत्व की शुद्धि से पुण्य उदय होता है सतकर्म में प्रवृत्ति बनती है तथा अखण्ड भगवतस्मृति बनी रहती है। व्रत इस शुद्धि की पहली सीढ़ी है। आत्मशुद्धि के लिये व्रतों की भूमिका महत्वपूर्ण है। ऋषि-मुनियों के विचार हैं कि यदि महीने में मात्र दो एकादशियों का व्रत विधि-विधान से किया जाये तो मनुष्य की प्रकृति पूर्णतया शुद्ध एवं सात्विक हो जाती है।

व्रतोपवासनियमैः शरीरोत्तापनैस्तथा।
वर्णाः सर्वेऽपि मुच्यन्ते पातकेभ्यो न संशयः।।

अर्थात् व्रत, उपवास, नियम तथा शारीरिक तप के द्वारा सभी मनुष्य पापमुक्त होकर पुण्य-प्रभाव से उत्तम गति प्राप्त करते हैं।
पुण्यजनक उपवासादि नियमों का नाम ‘व्रत’ है। अनर्गल सभी प्रवृत्तियाँ नियमों के द्वारा ही क्रमशः नष्ट हो जाती हैं। इसलिये व्रत में नियम ही मुख्य साधन है। हेमाद्रि-व्रतखण्ड में व्रत के लक्षण के विषय में लिखा है-‘व्रतं च सम्यक् सकल्पजनितानुष्ठेयक्रियाविशेषरूपम्’ अर्थात् किसी लक्ष्य को सामने रखकर विशेष संकल्प के साथ लक्ष्य-सिद्धि हेतु किये जाने वाले क्रियाविशेष का नाम ‘व्रत’ है।
व्रत प्रवृत्ति-निवृत्ति के भेद से दो प्रकार के होते हैं। द्रव्य-विशेष के भोजन तथा पूजादि के द्वारा व्रत करना प्रवृत्तिमूलक हैं केवल उपवासादि द्वारा व्रत करना निवृत्तिमूलक हैं यो दोनों प्रकार के व्रत पुनः लक्ष्य-भेद से तीन प्रकार के होते हैं- नित्यव्रत, नैमित्तिकव्रत और काम्यव्रत।
एकादशी आदि व्रत जिनके न करने से ‘पाप’ होता है वे सब ‘नित्यव्रत’ कहलाते हैं। पापक्षय आदि निमित्त को लेकर अनुष्ठित चान्द्रायण आदि ‘नैमित्तिकव्रत’ है और किसी विशेष तिथि में विशेष कामना के साथ अनुष्ठित व्रत ‘काम्यव्रत’ हैं जैसे-अवैधव्य की कामना से ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी से अमावस्या तक अनुष्ठित ‘वटसावित्रीव्रत’।
व्रत के पुनः दो भेद दिये गये हैं – कायिक व्रत और मानसिक व्रत। हेमाद्रि-व्रतखण्ड के अनुसार मानसिक और कायिक व्रत के लक्षण इस प्रकार हैं-
अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमकल्मषम्।
एतानि मानसरन्याहुर्व्रतानि व्रतधारिणि।।
एकभक्तं तथानक्तमुपवासादिकं च यत्।
तत्सर्वं कायिकं पुंसां व्रतं भवति नान्यथा।

अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और पापशून्यता ये सब ‘मानसव्रत’ हैं। दिवा-रात्रि उपवास या अशक्त रहने पर रात्रि में भोजन, अयाचित रूप से अर्थात् बिना किसी प्रकार की याचना के रहना इत्यादि ‘कायिकव्रत’ हैं।
मत्स्य, कूर्म, ब्रह्माण्ड, वराह, स्कन्द तथा भविष्य आदि प्रायः सभी पुराणो में अनेक वतों की विधियाँ तथा विवरण देखने में आते हैं। व्रत के बाद व्रत-कथा सुनने की विधि का भी वर्णन पुराणों में यत्र-तत्र-सर्वत्र सुलभ है। व्रत करने के अधिकार के विषय में लिखा गया है कि सभी स्त्री-पुरूषों का व्रत में अधिकार है। किन्तु व्रती होने के लिये व्रतकाल में निर्दिष्ट गुणों की नितान्त आवश्यकता हैः जैसे-अपने आचारनिष्ठ, पवित्रचित्त, निर्लोभ, सत्यवादी एवं सकल जीवों के हित में रत रहने वाले पुरूष का ही व्रत में अधिकार है।
स्त्रियों के लिये शास्त्राज्ञा है कि कुमारी को पिता की आज्ञा, सौभाग्यवती को पति की आज्ञा और विधवा को पुत्र की आज्ञा या सम्मति लेकर ही व्रत करना चाहिए, अन्यथा व्रत निष्फल हो जायेगा-
नारी च खल्वनुज्ञाता पित्रा भत्र्रा सुतेन वा।
विफलं तद् भवेत्तस्या यत्करोत्यौध्र्वदैहिकम्।।

व्रतारम्भ – व्रतारम्भ के विषय में वृद्ध वसिष्ठ का वचन है कि –
उदयस्था तिथिर्या हि न भवेद्दिनमध्यभाक्।
सा खण्डा न व्रतानां स्यादारम्भे च समापने।।
अर्थात् जिस तिथि में सूर्योदय हेाता है, वह तिथि यदि मध्यान्ह तक न रहे तो वह खण्डा तिथि कहलता है, उसमें व्रतारम्भ नहीं करना चाहिए। इसके विपरीत अखण्डा तिथि में व्रतारम्भ करना उचित है। व्रत के पूर्व दिन संयम से रहकर व्रतारम्भ के दिन संकल्पपूर्वक व्रत आरम्भ करना होता है।
व्रत, यज्ञ, विवाह, श्राद्ध, होम, पूजा और पुरश्चरण आदि में आरम्भ से पहले सूतक लगता है, आरम्भ होने के बाद नहीं लगता-
व्रतं यज्ञविवाहेषु श्राद्धे होमार्चने जपे।
आरब्धे सूतकं न स्यादनारब्धे तु सूतकम्।।
रजोदर्शन आदि दोषों में स्त्रियां स्वयं उपवास कर ब्राह्मण को प्रतिनिधि बनाकर जप-पूजादि करा सकती है। पति के व्रत में स्त्री तथा स्त्री के व्रत में पति प्रतिनिधि हो सकता है अथवा पुत्र, माता, भगिनी भी प्रतिनिधि हो सकते हैं।
व्रत समाप्ति के पूर्व ही यदि किसी व्रती की मृत्यु हो जाये तो आगामी जन्म में उसे उस व्रत का फल प्राप्त होता है यथा-
यो यदर्थ चरेद् धर्मं न समाप्य मृतो भवेत्।
स तत्पुण्यफलं प्रेत्य प्राप्नुयान्मनुरब्रवीत्।।
अब नित्य-नैमित्य व्रतों का संक्षिप्त वर्णन करते हैं- एकादशी, पौर्णमासी, अमावस्या आदि ‘नित्यव्रत’ कहलाते हैं। नित्य कर्म की तरह इनका भी यही लक्षण है कि ‘अकरणात् प्रत्यवायः’ अर्थात् न करने से पाप लगता है, क्योकि जीव को अपनी स्थिति में कायम रखने के लिये ये सभी नित्यव्रत किये जाते हैं। इनके न करने से जीव अपनी स्थिति से गिर जाया करता है। इसीलिये नित्यकर्म की तरह नित्यव्रत का भी लक्षण किया गया। एकादशीव्रत के विषय में कहा गया है कि –

यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्यादिकानि च।
अन्नमाश्रित्य तिष्ठन्ति सम्प्राप्ते हरिवासरे।।
अघं स केवलं भुड्क्ते हरिवासरे।
तद्दिने सर्वपापानि वसन्त्यन्नश्रितानि च।।

अर्थात् ब्रह्महत्या आदि समस्त पाप एकादशी के दिन अन्न में रहते हैं। अतः एकादशी के दिन जो भोजन करता है वह पाप-भोजन करता है।
ज्योतिष-विज्ञान के अनुसार शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को चन्द्रमा की एकादश कलाओं का प्रभाव जीवों पर पड़ता है तथा कृष्णपक्ष की एकादशी तिथि को सूर्यमण्डल द्वारा ग्यारह कलाओं का प्रभाव जीवों पर पड़ता है। चन्द्रमा का प्रभाव शरीर, मन सभी पर रहने से इस तिथि में शरीर की अस्वस्थता और मन की चंचलता स्वाभाविक रूप से बढ़ सकती है। इसी कारण उपावास द्वारा शरीर को संभालना और इष्ट-पूजन द्वारा मन को संभालना एकादशीव्रत-विधान का मुख्य रहस्य है।
शुक्ले वा यदि वा कृष्णे विष्णुपूजनतत्परः।
एकादश्यां न भूति पक्षयोरूभोरपि।।

अर्थात् विष्णुपूजा-परायण होकर शुक्ल-कृष्ण दोनों पक्षों की ही एकादशी में उपवास करना चाहिये। अन्य सम्प्रदाय के उपासकगण अपने-अपने इष्टदेव में विष्णु-भावना करके पूजा कर सकते हैं। लिंगपुराण में भी यही नियम दिखाया गया है-
गृहस्थो ब्रह्मचारी च आहिताग्रिस्तथैव च।
एकादश्यां न भूति पक्षयोरूभयोरपि।।

अर्थात् गृहस्थ, ब्रह्मचारी, सात्विक किसी को भी एकादशी के दिन भोजन नहीं करना चाहिये। यह नियम शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष दोनों में लागू रहेगा। असमर्थ रहने पर बाह्मण द्वारा अथवा पुत्र द्वारा उपवास कराने का विधान वायुपुराण में है। मार्कण्डेयस्मृति के अनुसार बाल-वृद्ध-रोगी भी फल का आहार करके एकादशी का व्रत करें। वसिष्ठस्मृति के अनुसार दशमीयुक्त (विद्धा) एकादशी में उपवास नहीं करना चाहिये। ऐसा करने से संतान का नाश होता है और ऊध्र्वगति रूकती है। यथा-
दशम्येकादशी यत्र तत्र नोपवसद्बुधः।
अपत्यानि विनश्यन्ति विष्णुलोकं न गच्छति।।

कण्वस्मृति के अनुसार अरूणोदय के समय दशमी तथा एकादशी योग हो तो द्वादशी को उपवास करके त्रयोदशी को पारण करना चाहिये। यथा-
अरूणोदयवेलायां दशमीसंयुता यदि।
तत्रोपोष्या द्वादशी स्यात् त्रयोदश्यां तु पारणम्।।

कात्यायनस्मृति के अनुसार प्रातःकाल स्नान तथा हरिपूजन के अनन्तर हरि को उपवास-समर्पण करना होता है। उसके बाद हाथ में जल लेकर पारण-मन्त्र पढ़ते हुए व्रत की पारणा करनी चाहिये। यही एकादशी का पारण कहलाता है। यथा-
प्रातः स्नात्वा हरिं पूज्य उपवासं समर्पयेत्।
पारणं तु ततः कुर्याद् व्रतसिद्धयै हरिं स्मरन्।।
पारण-मन्त्र इस प्रकार है-

अज्ञानतिमिरान्धस्य व्रतेनानेन केशव।
प्रसीद सुमुखो नाथ ज्ञानदृष्टिप्रदो भव।।

इस प्रकार एकादशी रूप नित्यव्रत का अनुष्ठान होता है। बारह मास में चैबीस तथा अधिकमास में दो-कुल छब्बीस एकादशियाँ होती है। सभी के भिन्न-भिन्न नाम हैं-
एकादशी का आरम्भ मार्गशीर्ष (अगहन)-मास के कृष्णपक्ष से किया गया है, इसी माह में एकादशी भगवान् से उत्पन्न हुई थी। यह मास भगवान् का विग्रह माना जाता है। भगवद्धवचनामृत से सिद्ध है-‘मासानां मार्गशीर्षोऽहम्’ इस मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष में उत्पन्ना नाम की एकादशी होती है। इसी क्रम से शुक्लपक्ष में मोक्षदा होती है। इसी प्रकार पौष मास में सफला और पुत्रदा नाम की, माघ में षट्तिला और जया नाम की एकादशी होती है। फाल्गुनमास में क्रमशः कृष्णपक्ष में विजया और शुक्लपक्ष में आमलकी नाम की एकादशी होती है। चैत्र में पापमोचनिका और कामदा एकादशी, वैशाख में वरूथिनी और मोहिनी एकादशी होती है। ज्येष्ठ कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम अपरा तथा शुक्लपक्ष में निर्जला या भीमसेनी नाम की एकादशी होती है।
आषाढ़ कृष्णपक्ष की एकादशी योगिनी नाम की होती है तथा शुक्लपक्ष की हरिशयनी। इसी दिन चार मास के लिये भगवान् सागर में शयन करते हैं। श्रावणमास के कृष्णपक्ष की एकादशी कामिका और शुक्लपक्ष की पुत्रदा तथा भाद्रपद में अजा और पद्मा एकादशी होती है। आश्विनमास में इन्दिरा और पापाइुशा तथा कार्तिक मास में रम्भा और देवतेात्थानी नाम की एकादशी होती है। इन बारह मासों की चैबीस एकादशियों के अलावा पुरूषोत्तम मास अर्थात् अधिक मास में क्रमशः कमला तथा कामदा नाम की एकादशी होती है।

एकादशी व्रत के दिन भोजन का निषेध माना गया है तथापि फल-जल-दुग्धादि का आहार करके भी उपवास हो सकती है। नित्यव्रत के अन्तर्गत होने से एकादशी का व्रत सर्वसाधारण जनता के लिये अपरिहार्य सिद्ध होता है। प्रथम एकादशी का नाम उत्पन्ना है। नाम सुनते ही जिज्ञासा बनती है कि उत्पन्ना है तो इकी उत्पत्ति अवश्य होगी। प्रसंगवश उत्पन्ना के सम्बन्ध में श्रीकृष्ण-युधिष्ठिर-संवाद के अन्तर्गत एकादशी की उत्पत्ति इस प्रकार वर्णित है-

प्राचीन कृतयुग में तालजंघ दैत्य का पुत्र ‘मुर’ नाम का बलशाली दानव था। देव-दानव-युद्ध में उसके इन्द्रादि देवताओं का परास्त कर स्वर्ग और मत्र्य-सर्वत्र अपना अधिकार जमा लिया तो भगवान् वैकुण्ठपति विष्णु से भी वह वैर कर बैठा। बहुत दिनों तक युद्ध चला, पर वह दैत्य परास्त न हुआ। भगवान् ने विश्राम करने के विचार से बदरीवन के पास सिंहावती नामक महागुफा में प्रवेश किया। उसमें प्रवेश कर भगवान् विष्णु योगनिद्रा में विश्राम करने लगे।

इधर चन्द्रावती नगर में रहकर मुर दानव सर्वजीवलेाक को अपने अधीन कर सर्वलोक का शासन करने लगा तो उस गुफा का द्वार भी पता लगाकर वह दुष्ट मुर भगवान् के समीप युद्ध करने पहुंच गया। प्रभु योगनिद्रा में लीन है-यह देखकर वह शयनावस्था में ही आक्रमण का विचार बना रहा था कि भगवान् के विग्रह (शरीर) से एक दिव्य शक्ति कन्या के रूप में सहसा प्रकट हुई और उसने मुर दानव को युद्ध के लिये ललकारा। दानवेन्द्र कन्या के साथ युद्ध करने लगा।
उस कन्या ने भी शीघ्र ही मुर के सभी शस्त्रास्त्र काटकर उसे विरथ कर दिया तथा उसके वक्षस्थल में एक मुक्का जमाया इससे वह धराशायी तो हुआ लेकिन पुनः उठकर भगवती की ओर दौड़ा तब महाशक्ति ने हुंकार मात्र से उसको भस्म कर दिया। उसके प्राण-पखेरू उड़ चले और वह यमलोक चला गया। उसके सहयोगी शेष दानव पाताल चले गये।
इसके बाद जब भगवान् जगे तो अपने समक्ष उपस्थित अपने से ही उत्पन्न महाशक्ति को दिव्य कन्या के रूप में देखकर पूछने लगे-कन्यके ! तुम कौन हो ? इस दुष्ट दानव का वध किसने किया ? कन्या बोली-इस दुष्ट दानव ने इन्द्रादि देवता और लोकपालों को पदच्युत कर अपना साम्राज्य सर्वत्र जमा लिया फिर आपको मारने के लिये शयनावस्था में ही युद्ध करने के लिये ललकारा तो आपके ही शरीर से निकलकर मैने इससे युद्ध किया। आप की कृपा से इसका वधकर इन्द्रादि देवताओं को उनका स्थान दिलाया। यह सुनकर भगवान् विष्णु प्रसन्न हो बोले-हे कन्यके ! इस दानव के हनन से सभी देवताओं ने आनन्द की सांस ली, अतः मैं तुमसे अत्यन्त प्रसन्न हूं, तुम अपना मनचाहा वरदान मांग लो। कन्यारूप महाशक्ति बोली- हे परमेश्वर! यदि आप मुझसे सन्तुष्ट हैं और मुझे वरदान देना चाहते हैं तो ऐसा वर दें कि व्रत-उपवास करने वाले भक्तजनों का उद्धार कर सकूं तथा ऐसे भक्तों की जो किसी प्रकार का भी व्रत करते हैं, आप उन्हें धर्म, ऐश्वर्य (धन), भक्ति और मुक्ति प्रदान करें। तब भगवान् प्रसन्न होकर बोले-हे देवि! जो तुम कहोगी सब कुछ हेागा। तुम्हारे जो भक्तजन हैं वे मेरे भी भक्त कहलायेंगे। साथ ही तुम ‘एकादशी तिथि’ के दिन मेरे विग्रह (शरीर) से समुत्पन्न हो, अतः तुम्हारा नाम उत्पन्ना एकादशी लोक-परलोक में प्रसिद्ध हेागा। हे देवि! तृतीया, अष्ठमी, नवमी, चतुर्दशी तथा एकादशी-ये तिथियां मेरे लिये विशेष प्रिय है, परन्तु एकादशीव्रत करने वालों को सर्वाधिक पुण्य प्राप्त होता है। सभी व्रत, सभी दान से अधिक फल एकादशीव्रत करने से होता है। यह एकादशी सभी व्रतों में श्रेष्ठ ‘व्रतराज’ के रूप में प्रतिष्ठित होगी।
एकादशी की तरह अमावस्या और पूर्णिमा को भी ‘नित्यव्रत’ कहा जाता है। इन दोनों तिथियों में पृथ्वी, चन्द्र और सूर्य तीनों एक सीध में होते हैं। अमावस्या में चन्द्र पृथ्वी और सूर्य के बीच में होता है। इस प्रकार जो चन्द्र का अंश पृथ्वी की ओर होता है, उसमें सूर्य-किरण का स्पर्श न होने से उस दिन चन्द्रमा दिखता नहीं। पूर्णिमा तिथि को पृथ्वी चन्द्र और सूर्य के बीच में होती है, इस कारण सम्पूर्ण मण्डल के साथ चन्द्रमा का प्रकाश पृथ्वी पर हो जाता है। अतः सिद्ध हुआ कि एक साध में रहने के कारण पूर्णिमा और अमावस्या दोनों तिथियों में चन्द्र का विशेष प्रभाव पृथ्वी पर हो जाता है, जिससे पृथ्वी में रहने वाले जीवों के शरीर और मन दोनों ही अस्वस्थ और चंचल हो सकते हैं। जब दोषों के निवारणार्थ दश कलायुक्त ‘एकादशी’ में व्रत करने की आवश्यकता है तो पूर्ण कलायुक्त पौर्णमासी और अमावस्या में भी अवश्य ही व्रत करना चाहिये, यही शास्त्र का सिद्धान्त है। इन व्रतों को न करने से ही विशेष पाप लगता है और वात आदि कितनी ही व्याधियों का आक्रमण हो सकता है। अतः एकादशीव्रत सभी के लिये परमावश्यक है।

लोकेंद्र चतुर्वेदी ज्योतिर्विद

सम्बंधित खबरें
- Advertisment -spot_imgspot_img

सम्बंधित खबरें