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अमर क्रांतिकारी लाला लाजपत रायः जो कांग्रेस में रहकर भी गांधी जी की नीतियों का करते थे विरोध ?

नई दिल्लीः पंजाब की पावन धरती पर देश की आन-बान और शान की रक्षा के लिए कई रणबांकुरों ने जन्म लिया। इनमे से एक है अमर क्रांतिकारी लाला लाजपत राय। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में गरम दल के नेताओं की मशहूर त्रिमूर्ति 'लाल-बाल-पाल' के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपत राय ने 17 नवंबर 1928 को देह त्याग दिया। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लालाजी 'डू ऑर डाई' की नीतियों पर चलते थे, इसीलिए उन्हें कांग्रेस के 'गरम दल' के समूह में गिना जाता था। इस वजह से गांधीजी की नीतियों का वह खुलकर विरोध करते थे। वहीं 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के खिलाफ प्रदर्शन में लाठीचार्ज के दौरान लाला लाजपत राय बुरी तरह घायल हो गए थे। इन्हीं चोटों की वजह से उनका निधन हो गया।

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एक महीने के अंदर लाला जी की मौत का लिया बदला

इस घटना के 20 साल बाद भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज डूब गया। पंजाब केसरी के नाम से जाने गए लाला लाजपत राय ने घायल अवस्था में ही भविष्यवाणी कर दी थी, 'मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत में कील का काम करेगी।' लाला लाजपत राय की मौत ने चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव जैसे क्रांतिकारियों को भड़का दिया और इन क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत का बदला लेने की योजना बनायी। ठीक एक महीने बाद 17 दिसंबर 1928 को अंग्रेज अफसर सांडर्स को गोली से उड़ाकर क्रांतिकारियों ने अपना बदला पूरा किया।

देश के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपत राय का जन्म पंजाब के मोगा जिले में 28 जनवरी 1865 को हुआ। रोहतक एवं हिसार में कुछ समय तक उन्होंने वकालत भी की। उन्होंने पंजाब में आर्य समाज को लोकप्रिय बनाने में अहम योगदान दिया। लाला हंसराज और कल्याण चंद्र दीक्षित के साथ दयानंद एंग्लो वैदिक विद्यालयों का प्रसार किया, जिसे आज डीएवी स्कूल के नाम से जाना जाता है। हिंदी के हिमायती लाला लाजपत राय ने इसके प्रचार-प्रसार में भी अहम योगदान दिया। पंजाब नेशनल बैंक और लक्ष्मी बीमा कंपनी की स्थापना में भी उनका योगदान रहा।

'पूर्ण स्वतंत्रता' अथवा 'पूर्ण स्वराज' की रखी मांग

लाला जी को पढ़ने का बहुत शौक था, वह इतालवी क्रांतिकारी नेता ज्युसेपे मज्जिनी की देशभक्ति और राष्ट्रवाद के आदर्शवाद से काफी प्रभावित थे। उन्हीं से प्रेरित होकर लाला जी क्रांतिकारी पथ पर चल पड़े और बिपिन चंद्र पाल, अरविंद घोष, और बाल गंगाधर तिलक (बाल,लाल,पाल) जैसे मुख्य धारा के नेताओं के साथ मिलकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कतिपय नेताओं के उदारवादी नीति के नकारात्मक पहलुओं को महसूस किया और कांग्रेस के सामने कड़ा प्रतिरोध जताया।

उन्होंने दो टूक शब्दों में 'पूर्ण स्वतंत्रता' अथवा 'पूर्ण स्वराज' की मांग रखी। मुस्लिम वर्ग को खुश करने के लिए हिंदू हितों का त्याग करने की कांग्रेसी प्रवृत्ति का भी उन्होंने विरोध किया था। 14 दिसंबर 1923 के द ट्रिब्यून में प्रकाशित उनके एक लेख संपूर्ण भारत को 'मुस्लिम भारत' और 'गैर- मुस्लिम भारत' में स्पष्ट विभाजन की बात ने एक बड़े विवाद को जन्म दिया।

गांधी जी की नीतियों का किया विरोध

लाला लाजपत राय ने कानून की पढ़ाई छोड़कर ब्रिटिश हुकूमत से दो दो हाथ करने का मन बना लिया था। उन्होंने भारत में ब्रिटिश हुकूमत की नृशंसता को विश्व के प्रमुख देशों में उजागर करने का निर्णय लिया। इस सिलसिले में वह 1914 में ब्रिटेन और 1917 में अमेरिका गए। 1920 में जब अमेरिका से लौटे तो गांधी जी अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आंदोलन चला रखा था।

वहीं लाला जी ने 13 अप्रैल 1919 के दिन जलियांवाला बाग में ब्रिटिश हुकूमत के क्रूरतम कार्यवाइयों के विरोध में पंजाब में उग्र प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे थे। इसी तरह चौरीचौरा कांड की घटना के बाद जब गांधी जी ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ छेड़ा आंदोलन स्थगित करने का फैसला किया तो लाला जी ने गांधी जी के फैसले की कड़ी आलोचना की। इसके बाद ही लाला जी ने स्वतंत्र कांग्रेस की पार्टी बनाने का फैसला किया था।

जबकि 30 अक्टूबर 1928 को लाला लाजपत राय ने लाहौर में साइमन कमीशन के आने का विरोध स्वरूप शांतिपूर्ण जुलूस का नेतृत्व कर रहे थे। इस दौरान पुलिस ने मुख्य रूप से लाजपत राय को निशाना बनाते हुए उनके सीने पर ताबड़तोड़ लाठियां बरसाई जिससे बुरी तरह से घायल लाला जी का 17 नवंबर 1928 को निधन हो गया। इस तरह शेर-ए-पंजाब की आवाज हमेशा के लिए थम गयी।

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