आधुनिक तरीकों से करें तोरई की खेती, मिलेगा अच्छा मुनाफा

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लखनऊःआधुनिक तरीकों से करें तोरई की खेती, मिलेगा अच्छा मुनाफा अन्य राज्यों में फसल का लाभ लेने का तरीका भिन्न है। यहां के किसान आज भी पुराने तरीके से ही तोरई का उत्पादन कर रहे हैं। यह बेल पर लगने वाली सब्जी होती है, इसलिए किसान समझते हैं कि अपने लिए यह खुद जगह बना लेगी। कई स्थानों में इसके फैलने के लिए जगह बनाई जाती है, जबकि लखनऊ और आस-पास के किसान इसके लिए ज्यादा व्यवस्था नहीं करना चाह रहे हैं। यही कारण है कि यह महंगी होती है। किसान बोने के बाद इसे जमीन पर ही फैलने के लिए छोड़ देते हैं। यह अनेक प्रोटीनों के साथ खाने में भी स्वादिष्ट होती है। इसकी खेती को व्यावसायिक भी कहा जाता है। उत्पादक यदि इसकी खेती वैज्ञानिक विधि से करें, तो इसकी फसल से अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। अमौसी, पिपरसंड, चकौली और सतरिख में बड़े पैमाने पर तोरई बोई गई है, लेकिन यह खेतों में जमीन पर ही फैल रही है।

ऊंचाई वाले पौधे देते हैं ज्यादा फल

यदि तोरई को जमीन से ऊंचाई पर जाने के लिए जगह बना दिया जाए तो जमीन खाली हो जाएगी। इसमें धनिया, मूली और गाजर जैसी फसल को जगह दिया जा सकता है। पहले खेत में तोरई का बीज डाल दें। उसके बाद सिंचाई की पतली नालियां बनाएं और तोरई के बीज की दूरी पर बाकी फसल का सहारा लें। यह फसल सब्जी की होती हैं। गर्मी के मौसम में तोरई, मूली, गाजर और धनिया की पत्ती काफी महंगी होती है। इसका किसानों को बड़ा लाभ मिलता है।

हर मिट्टी में ले सकते हैं उत्पादन

चिकनी तोरई की उन्नत खेती के लिए किसान आज दिन भर मेहनत कर रहे हैं। तोरई की सफल खेती के लिए उष्ण और नम जलवायु उत्तम मानी गई है। अंकुरण और फसल बढवार के लिए 20 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट तापक्रम होना अति-अवाश्यक है। तोरई को विभिन्न प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है, किन्तु उचित जल निकास धारण क्षमता वाली जीवांशयुक्त हल्की दोमट भूमि इसकी सफल खेती के लिए सर्वोत्तम मानी गई है। नदियों के किनारे वाली भूमि भी इसकी खेती के लिए उपयुक्त रहती है। कुछ अम्लीय भूमि में भी इसकी खेती की जा सकती है। तोरई के सफल उत्पादन के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें। इसके बाद 2 से 3 बार हैरो या कल्टीवेटर से मिट्टी को भुरभुरी बना लें और पाटा लगाकर खेत को समतल बना लें।

अलग-अलग आकार के होते हैं फल

  • पंजाब में सदाबहार किस्म के पौधे मध्यम आकार के होते हैं। फल 20 सेंटीमीटर लम्बे और 3 से 5 सेंटीमीटर चैड़े होते है। इसके फल पतले, कोमल, गहरे हरे रंग के होते हैं।
  • पूसा नसदार में फलों पर उभरी धारियां बनी रहती है। इसके फल हरे हल्के पीले रंग के होते हैं। यह बुवाई के 80 से 90 दिन बाद तैयार हो जाते हैं। यह किस्म जायद में उगाने के लिए उपयुक्त है। इसके बीजों पर छोटे-छोटे उभार होते हैं।
  • सरपुतिया किस्म में फल छोटे और गुच्छों में लगते हैं। एक गुच्छे में 4 से 7 फल लगते है। बुवाई के 60 से 70 दिनों बाद फल तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं। यह किस्म मैदानी भागो में अधिक प्रचलित है।
  • कोयम्बूर की अवधि 100 से 110 दिन है। फल पहली तुड़ाई के लिए 70 दिन में तैयार हो जाते हैं। फल बहुत लम्बे पतले और बहुत कम बीज वाले होते हैं। इसकी प्रति हेक्टेयर उपज 250 से 270 क्विंटल है।
  • पीकेएम 1- फल गहरे हरे रंग के और उन पर धारियां होती है। फल का भार 300 ग्राम होता है। बुवाई के 80 दिन बाद पहली तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते है।

बीज की गुणवत्ता का रखें ध्यान

तोरई का बीज उन्नत किस्म का होना चाहिए। यह गर्मी में चार या छह दिन में अंकुरित हो जाता है। सर्दी में इसके लिए तापमान कम नहीं हो अन्यथा उगेगा नहीं। बीज की गुणवत्ता से समझौता नहीं किया तो यह जल्द ही उग आएगा। खरीफ में इसकी बुवाई का समय जून से जुलाई का उत्तम होता है और ग्रीष्मकालीन फसल के लिए जनवरी से मार्च उपयुक्त होता है। बीज का शोधन इसलिए आवश्यक है, क्योकि तोरई फसल को फफूंदी रोग अत्याधिक नुकसान पहुंचाते हैं। बीज को बुवाई से पहले थीरम या बाविस्टीन की 3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित करना अच्छा रहता है। तोरई की खेती 2.5 से 3 मीटर की दूरी पर नालियाँ बनाकर इसकी बुवाई करते हैं। जो मेड़ें बनती है, उसमे 50 सेंटीमीटर की दूरी पौधे से पौध रखते हुए इसकी बुवाई करते है। बीज की गहराई 3 से 4 सेंटीमीटर रखें।

खाद और उर्वरक

तोरई की अच्छी खेती के लिए खेत की तैयारी करते समय सड़ी कम्पोस्ट या गोबर की खाद 200 से 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से आखिरी जुताई के समय मिट्टी में मिला देनी चाहिए। इसके आलावा 120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 100 किलोग्राम फास्फोरस और 80 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर के हिसाब से तत्व के रूप में देते है। आखिरी जुताई करते समय आधी नाइट्रोजन की मात्रा, फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा को खेत में मिला देना चाहिए है।

सातवें दिन करें सिंचाई

वैसे खरीफ के फसल में बरसात का पानी लगता है, इसलिए सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। फिर भी कभी-कभी सूखा पड़ जाता है और पानी समय से नहीं बरसता है। इन दिनों आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए और गर्मियों वाली फसल की 5 से 7 दिन के अंतर से सिचाई करें।

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निराई से करें खर-पतवार पर नियंत्रण

तोरई फसल के साथ उगे खर-पतवारों को निकालकर नष्ट करते रहंे। इसमें कुल 2 से 3 निराइयां पर्याप्त होंगी और यदि खेत में खर-पतवार अधिक उगता है, तो बुवाई से पहले खेत में बासालीन 48 ई सी 1.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में मिला देना चाहिए। इससे खर-पतवार पर शुरू के 35 से 40 दिन तक नियंत्रण रहेगा।