किंवदंती न बन जाए स्वाधीनता संग्राम और सेनानियों की शहादत

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आजादी का पर्व फिर हमारे सामने है। 15 August 2024 को आजादी के 77 वर्ष पूरे हो जाएंगे। देश साल दर साल इस राष्ट्रीय पर्व को परम्परागत ढंग से मनाता चला आ रहा है, लेकिन समय के साथ सब कुछ बदलता चला जा रहा है। अब इस प्रकार के कार्यक्रमों में आजादी की गाथाओं, सेनानियों की शहादत और अंग्रेजों की क्रूरता के किस्सों का जिक्र तक नही होता है, बल्कि विकास के आंकड़ों का विश्लेषण और सरकार की नीतियों का बखान किया जाता है। सेनानियों के नाम पर उन चंद लोगों का जिक्र किया जाता है, जिन्होंने आजादी के बाद सत्ता का भरपूर सुख प्राप्त किया। देश में चल रही अधिकांश पाठ्यपुस्तकों और इतिहास के पाठ्यक्रमों से सेनानियों के नाम और उनकी वीरता के किस्से गायब होते जा रहे हैं।

मात्र 77 वर्ष बाद हालत यह है कि आज की युवा पीढ़ी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बारे में पूछे जाने पर गांधी, नेहरु, सुभाष, आजाद का नाम बताने के बाद शांत हो जाता है। सवाल उठता है कि अभी तो एक सदी भी नहीं बीती है, फिर आगे क्या आजादी के लिए कुर्बानी देने वाले, क्रूरता झेलने वाले सेनानियों के किस्से अमानवीय यातनाओं के किस्से विस्मृत हो जाएंगे क्योंकि हमने इन सबको संजोने के लिये कोई उपाय नहीं किए हैं। जिस युवा पीढ़ी को हम देश का दायित्व सौपेंगे, उनको अधिकृत रुप से बताने के लिए हमारे पास कोई साधन नहीं है।

ब्रिटिश शासन के जबड़े में फंसे देश को आजादी दिलाने के लिए भारतीयों के संघर्ष का एक लम्बा इतिहास है। यदि 1857 की क्रांति को ही पहला प्रयास मान लिया जाए, तो भी 90 साल तक चली लड़ाई के बाद 1947 में हम आजाद हो पाए। इन 90 वर्षों में देश ने अमानवीय यातनाओं और क्रूरता का एक लम्बा दौर देखा और सहन किया है। ओडिशा के 12 वर्षीय बाजी राउत को नाव से नदी पार न कराने पर अंग्रेजों ने गोली मार दी थी। काकोरी लूट कांड में शामिल देश के 05 युवाओं पं. राम प्रसाद बिस्मिल 30 वर्ष, अशफाक उल्ला खां वारसी 27 वर्ष, ठाकुर रोशन सिंह 36 वर्ष और राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी 26 वर्ष को फांसी पर लटका दिया गया था। इस घटना में शामिल बताए गए चन्द्रशेखर आजाद (25 वर्ष) ने पुलिस से घिरने के बाद खुद को गोली मार ली।

खुदीराम बोस को 18 वर्ष 08 माह की आयु में मुजफ्फरपुर षडयंत्र में दोषी बताते हुए फांसी पर लटका दिया गया। सेंट्रल एसेम्बली में बम फेंकने के आरोप में भगत सिंह 23 वर्ष, सुखदेव 23 वर्ष और राजगुरु 22 वर्ष को एक साथ फांसी पर लटका दिया गया। 1857 की क्रांति की अगुवाई करने वाले 29 वर्षीय सिपाही मंगल पांडेय हों या फिर जलियावाला बाग में नरसंहार के दोषी जनरल की हत्या करने वाले उधम सिंह सबको मौत की ही सजा दी गई। यह तो चंद नाम बतौर उदाहरण हैं, जो यह भी साबित करते हैं कि अंग्रेजों के निशाने पर देश की युवा बिग्रेड थी। वह देश के नौजवानों को ऐसी अमानवीय सजा देते थे, जिसे देखकर हर कोई सिहर जाए और आजादी के विद्रोह का बिगुल शांत हो जाए।

वीर गाथाओं पर मूढ़ खड़े कर रहे प्रश्नचिन्ह

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आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले सेनानी अथवा अंग्रेज शासकों की क्रूरता के साक्षी लोगों की संख्या अब गिनी-चुनी होगी, जो आने वाले समय में समाप्त हो जाएगी। आज 77 वर्ष बाद जब देशवासी आजादी के इतिहास जानने का प्रयास करते हैं, तो पता चलता है कि देश में लम्बे समय तक चले स्वाधीनता आंदोलन का कोई समेकित इतिहास कहीं उपलब्ध नहीं है। इतनी कम अवधि में ही हालत यह है कि तमाम वीर गाथाओं पर लोग प्रश्न चिन्ह उठाने लगे हैं, तो युवा पीढ़ी उसे किवदंती बताने लगी है। कितनी घटनाएं समय के साथ विस्मृत होती जा रही है। देश के अनेक स्थानों पर अंजान शहीद के नाम पर बनी तमाम मूर्तियां अब अपनी आभा खो रही हैं क्योंकि कोई उनकी देखभाल करने वाला नहीं है।

इसी प्रकार अनेकों स्थान पर सेनानियों की जानकारी देने वाले शिलापट्ट भी अराजक तत्वों द्वारा तोड़ दिए गए अथवा वह स्थान ही अतिक्रमण का शिकार हो गया। इतना सब कुछ होने के बाद भी देश और प्रदेश की सरकारें इस मामले में गम्भीर नहीं हो रही है, जबकि विश्व इतिहास के तमाम अध्याय बताते हैं कि जब भी दुनिया का कोई देश किसी राष्ट्रीय त्रासदी से गुजर कर उसमें विजय हासिल करता है, तो वह देश की भावी पीढ़ियों को उस संघर्ष से वास्तविक परिचय कराने के लिए भी उसका दस्तावेजीकरण कराता है, लेकिन भारत का दुर्भाग्य है कि आजादी के बाद सत्ता में आयी कांग्रेस सरकार ने 90 वर्षों तक ब्रिटिश शासन के विरुद्ध चली स्वाधीनता की लड़ाई का कोई दस्तावेजीकरण नहीं कराया। अपने पड़ोसी देश चीन का ही उदाहरण लें तो हम देखते हैं कि चीन ने भी सर्वहारा हितों की स्थापना के लिए सांस्कृतिक क्रांति की शुरुआत करके अपने ही सामंतवाद से लंबा संघर्ष किया था और जब चीनी क्रांतिकारियों को निर्णायक विजय मिली तो इस संघर्ष के अगुवा रहे ’माओ त्से तुंग’ ने बाकायदा आयोग बनाकर इस समूचे संघर्ष का दस्तावेजीकरण कराया, जो करीब 100 भाग में संकलित हुआ।

इसी प्रकार रूस ने वोल्सेविक क्रांति के बाद संघर्षों का दस्तावेजीकरण कराया था, लेकिन उपनिवेशवाद के विरुद्ध सबसे लंबी लड़ाई लड़ कर जीत हासिल करने वाले भारत में उस महान संघर्ष का दस्तावेजीकरण नहीं कराया गया है। आजादी के बाद भी हम इस मामले में बेपरवाह रहे। कांग्रेस ने दुनिया के सबसे बड़े विस्थापन भारत-पाकिस्तान के बंटवारे का भी अधिकृत दस्तावेजीकरण नहीं करवाया। यही वजह है कि इन हृदयविदारक घटनाओं को हमारे तमाम तथाकथित बुद्धिजीवी और राजनैतिक दल अपने स्वार्थ के लिए तोड़-मरोड़ कर पेश करते रहते हैं और देश दुनिया के लोग उसे सच मान लेते हैं।

शहीदों का आंकड़ा नहीं

आजादी आंदोलन का दस्तावेजीकरण न होने के कारण एक और समस्या आती है। आज देश में कोई भी यह बता पाने में सक्षम नहीं है कि उस संग्राम में कितने लोग और कौन-कौन शहीद हुआ। समूचे भारत को छोड़ दिया जाए तो आज छोटे से छोटे राज्यों के पास यह आंकड़ा नहीं है। हम भूमि, वृक्ष से लेकर पशु-पक्षियों तक के आंकड़े जारी करते हैं, लेकिन शहीदों से जुड़े आंकड़े कोई जारी नहीं करता हैं। यही कारण है कि इसे लेकर इतिहासकारों में बड़ा मतभेद है। किसी के मुताबिक इस आजादी की लड़ाई में 12,000 लोग शहीद हुए, किसी के मुताबिक 80,000 से ज्यादा लोग इस संघर्ष में मारे गए, तो कुछ इतिहासकारों का मत लाखों लोगों के शहीद होने की बात कहता है।

लाखों लोगों की शहादत का आंकड़ा अगर सच नहीं, तो सच के करीब जरुर लगता है। अगर उत्तर प्रदेश के प्रयागराज, फतेहपुर, कानपुर, कानपुर देहात, बस्ती जैसे कुछ जनपदों में बचे बूढ़े दरख्त, पीपल, नीम का पेड़, फांसी इमली, बावनी इमली, सबलपुर गांव की नीम आदि पर दी गई फांसी के बारे चर्चित कहानियों पर भरोसा करें तो यह संख्या ही हजारों में पंहुच जाती है। देश के शहीदों की संख्या के बारे में जानने के कोई दस्तावेज न होने के कारण कई बार सार्वजनिक मंच पर हम बेबस नजर आते हैं। कुछ वर्ष पूर्व ऑस्ट्रेलिया के 02 रिसर्च स्कॉलर डायलन सुलिवन और जैसन हिकेल ने अपने शोध में भारत में 1880 से लेकर 1920 तक के महज 40 सालों में ब्रिटिश शासकों की क्रूरता के चलते 10 करोड़ भारतीयों के मारे जाने का दावा किया था।

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इस दावे को जांचने के लिए हमारी सरकारों ने कोई प्रयास नहीं किया, इसलिए इसके पक्ष या विरोध में कुछ कहना सही नहीं होगा। वरिष्ठ पत्रकार भारत सिंह कहते हैं कि अभी भी बहुत कुछ नहीं बिगड़ा है। यदि सरकार प्रयास करे तो आजादी के इतिहास, शहीदों की संख्या, क्रूरता की घटनाओं से जुड़े तमाम साक्ष्य मिल जाएंगे और हम उन्हें देशभक्ति ग्रंथ के रुप में सजों कर आगे आने वाली पीढ़ी को सौंप सकते हैं। यदि कोई सरकार ऐसा कर पाती है, तो इतिहास में उसका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित किया जाएगा।

हरि मंगल

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