चमोली में हिमनद का टूटना सामान्य घटना नहीं है। यह प्रकृति का प्रतीक प्रतिकार है। कल-कल छल-छल बहने वाली नदी जब गरजने लगे तो पलभर में विनाश का भयावह मंजर उपस्थित कर देती है। हम मानवों के लिए चमोली में हुई प्राकृतिक घटना एक तरह की सीधी चेतावनी है कि हम प्रकृति के मामले में हस्तक्षेप अविलंब बंद करें। कुदरत के भी बर्दाश्त करने की अपनी सीमा होती है। जब हम मनुष्य अपने मामलों में हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं कर पाते तो प्रकृति से ऐसी अपेक्षा कैसे कर लेते हैं?
पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन होते रहते हैं। प्रकृति अपना नियमन खुद करती रहती है लेकिन जब-जब मनुष्य ने प्रकृति की मांद में घुसने की कोशिश की है, उसे जोर का झटका लगा है। अबतक हुए कुदरती हादसों में 90 प्रतिशत की वजह इंसानी खुराफात ही रही है। हम यह नहीं कह सकते कि हमें हिमालयों के ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने की जानकारी नहीं थी। 2019 के अध्ययन में ही हमें इस बात का पता चल गया था कि हिमालय क्षेत्र में ग्लोबल वार्मिंग की वजह से दोगुनी गति से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। विगत चार दशकों में हिमनद का आकार एक चौथाई घट गया है। हिमालयीय इलाकों में ग्लोबल वार्मिंग की वजह बढ़ता प्रदूषण, पहाड़ों पर सड़कों का निर्माण, बड़े बांधों का निर्माण भी है।
उत्तराखंड ने पहले भी कई प्राकृतिक आपदाएं झेली हैं। उसने वर्ष 1991 में उत्तरकाशी में आया भयावह भूकम्प की त्रासदी झेली है। 1998 का मालपा भूकंप देखा है और 1999 में चमोली में धरती को कांपते देखा है। 2013 की भयंकर बाढ़ और केदारनाथ की तबाही देखी है। धन-जन के इतने अपरिमित नुकसान के उपरांत भी आखिर हम मनुष्य सुधरना क्यों नहीं चाहते? मौजूदा हादसे में ही हमने 150 से अधिक लोगों और 4 खरब से अधिक धन संपदा का नुकसान झेला है। उत्तराखंड को चीन और तिब्बत से जोड़ने वाला एकमात्र मोटर पुल भी नष्ट हो गया है। इस पुल के जरिए भारतीय सैनिक आसानी से चीन तक पहुंच सकते थे।
यह हादसा उस समय हुआ है जब चीन और भारत के बीच पूर्वी लद्दाख को लेकर सैन्य तनातनी के हालात हैं। इसे भारत को किसी बड़े सैन्य झटके से कम नहीं आंका जा सकता। झूला पुल टूटने से कई गांवों का संपर्क उत्तराखंड से टूट चुका है। सवाल यह है कि पर्यावरणविदों की तमाम चिंताओं के बाद भी हम हिमनदों के बेहद करीब जाकर बड़े बांध क्यों बना रहे हैं? माना कि बिजली उत्पादन विकास के लिए बेहद जरूरी है लेकिन यह काम छोटे बांधों से भी हो सकता है। उत्तराखंड या हिमालयीय क्षेत्र के किसी भी राज्य की सरकार को यह तो सोचना ही होगा कि उसे कितने बांधों की जरूरत है।प्रकृति के कितने सीमित दोहन से उसकी विकास की जरूरतें पूरी हो जाएंगी। पर्यावरण संरक्षण और विकास के बीच संतुलन का मॉडल तय किए बिना किया गया कोई भी विकास दुख ही देगा, जबतक देश इसपर विचार नहीं करेगा, उसकी आंखों के समक्ष इसी तरह मौत के मंजर उपस्थित होते रहेंगे। चाहकर भी हमें संभलने का मौका नहीं मिलेगा।
ग्लेशियरों का पिघलना और टूटना ग्लोबल वार्मिंग की वजह से समझ में आता है लेकिन सर्दी में हिमनद टूटने से वैज्ञानिक भी हैरान हैं। पर्यावरणविद तो यह भी कहते हैं कि एक सप्ताह पूर्व तक जब ऋषिगंगा के जल अधिग्रहण क्षेत्र में झील थी ही नहीं तो अचानक वहां झील कैसे प्रकट हो गई? ऋषिगंगा जल विद्युत परियोजना और तपोवन जल विद्युत परियोजना में निर्माण कार्य कुछ माह पूर्व ही आरम्भ हुआ था। केदारनाथ हादसे की वजह भी अचानक झील का फूटना ही था। प्रकृति से छेड़छाड़ के नतीजे तत्काल भले सामने न आएं लेकिन इसके दूरगामी नतीजों को नकारा नहीं जा सकता। हिमालयीय क्षेत्र के 200 से अधिक हिमखंड अगर जलकुंड में तब्दील हो चुके हैं तो यह विचारणीय तथ्य है।
इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि हिमालयीय क्षेत्र में हुई किसी भी तरह की उथल-पुथल का असर देश के मैदानी इलाकों पर भी पड़ता है।केदारनाथ हादसे के बाद उत्तराखंड में पर्वतीय इलाकों में निर्माण गतिविधियों पर रोक लगा दी गई थी लेकिन इसके बाद भी कुछ लोग खनन और निर्माण गतिविधियों में जुटे रहे, यह हादसा इसका प्रमाण है। जो सतर्कता किसी हादसे के बाद बरती जाती है, वैसी सतर्कता अगर पहले ही बरती जाती तो इस तरह की हृदय विदारक घटनाओं का सामना न करना पड़ता। अब भी समय है,हम प्रकृति से छेड़छाड़ का सिलसिला बन्द करें। बांधों और सड़कों के बनने से भी पर्वतों की जड़ें कमजोर हो रही हैं।
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हादसों के अपने सबक होते हैं, उनसे हम कुछ सीखें ही नहीं तो यह किसका दोष है? हादसों पर मुआवजे देना ही काफी नहीं है। नुकसान रहित विकास की पृष्ठभूमि भी तय करनी होगी और कुछ इस तरह की कार्ययोजना बनानी होगी कि विकास भी हो जाए और कुदरत के कोप भी न झेलने पड़ें। भू पारिस्थितिकीय संतुलन का ध्यान रखकर किया गया विकास ही देश को आगे ले जा सकता है। मदद और मरहम की राजनीति तो ठीक है लेकिन राजनीतिक चिंतन तो इस बात के होने चाहिए कि इस तरह की घटनाएं दोबारा न हों।
सियाराम पांडेय