भारत की प्रमुख सप्त सरिताओं में से एक नर्मदा और तीन प्रमुख महानदियों में से एक सोन की उद्गम स्थली अमरकंटक को एक प्रसिद्ध तीर्थ के रूप में जाना जाता है। समुद्र तल से साढ़े तीन हजार फुट की ऊंचाई पर बसा महाभारतकालीन वंश गुल्म तीर्थ या कालिदासकालीन आम्रकूट तीर्थ या आधुनिक अमरकंटक प्राचीन काल से अनेक ऋषि-मुनियों की तपोभूमि रह चुका है। महाभारत के वन पर्व के अनुसार शौण और नर्मदा का उद्गम वंश गुल्म तीर्थ है, जहां स्नान करने, आचमन करने, यहां तक कि जल स्पर्श करने से भी वाजिमेघ यज्ञ का फल प्राप्त होता है। मध्य प्रदेश के इस गौरव तीर्थ के अमरकण्ठ नामकरण की कथा पुराण प्रसिद्ध सती देह त्याग कथा से जुड़ी हुई है। पार्वती का अपने पिता दक्ष प्रजापति के घर जाकर पति भगवान शिव की निंदा सुनने के प्रायश्चित स्वरूप यज्ञवेदी में कूदकर देह त्याग करना और क्रोधित शिव का सती के मृत देह को कंधों पर रखकर तांडव करना, सारे विश्व के लिए संकट का कारण बन गया। तब भगवान विष्णु ने सती के देह को एक-एक कर 52 टुकड़े में काटकर शिवजी से अलग कर दिया।
ये टुकड़े जहां-जहां गिरे, वहां-वहां भारतीय भूगोल को रेखांकित करता हुआ एक-एक तीर्थ बन गया। उत्तर-पश्चिम अविभाजित भारतीय सीमांत मरुभूमि में बना हिंगलाज तीर्थ हिंगल या ब्रह्म रंध्र के गिरने से तो कलकत्ता का कालीघाट बना देवी की उंगुली गिरने से। इसी प्रकार असम कामाख्या तीर्थ में गिरी मां की योनि तो अमरकण्ठ में गिरा देवी का कण्ठा। इस प्रकार अमरकंटक का महत्व केवल नर्मदा उद्गम के रूप में ही नहीं, वरन् शक्तिपीठ के रूप में भी है। अमरकंटक मैकल पर्वत पर स्थित है। यह मैकल पर्वत विंध्व पर्वत श्रृंखला और सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला संधि पर्वत है। इसे पुराणकालीन पर्वत का अंग माना जाता है। इसी मैकल पर्वत के कारण नर्मदा को मैकलसुता और शोणभद्र को मैकलसुत भी कहा जाता है। यह एक भौगोलिक चमत्कार ही है कि एक ही स्थान से निकली दो नदियां बिल्कुल विपरीत दिशाओं में बहती हैं। सोन बिहार में पटना के पास गंगा में मिलती है, तो नर्मदा गुजरात के भड़ौच नामक स्थान में अरब सागर का आलिंगन करती है। मैकल, कपिल आदि ऋषियों की तपोभूमि अमरकंटक का वैसे तो निश्छल सौंदर्य से परिपूर्ण हर कोना दर्शनीय है फिर भी कुछ प्रमुख स्थानों के बारे में उल्लेख करना प्रासंगिक होगा।
अहिल्याबाई होल्कर ने कराया था मंदिरों का पुनरुद्धार
नर्मदा के उद्गम कुण्ड परिक्षेत्र में जो मुख्य मंदिर है, उनमें आमने-सामने दो गृह हैं, जिसमें से एक में मां नर्मदा तथा दूसरे में पार्वती (सती) की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। उद्गम कुण्ड जो कि ग्यारह कोणीय है, से नर्मदा नदी निसृत होती है। कुण्ड के चारों ओर की परिधि में जो मंदिर बने हैं, वे कलचुरी कालीन हैं। इन मंदिरों का पुनरुद्धार इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने कराया था। इस कुण्ड को कोटितीर्थ भी कहते हैं। कपिलधारा नर्मदा के द्वारा बनाया गया पहला जल प्रपात है। कुण्ड परिक्षेत्र से लगभग 06 कि.मी. की दूरी पर पश्चिम में स्थित इस प्रपात में नर्मदा लगभग 80 फुट की ऊंचाई से नीचे गिरती है। कहते हैं कि यह स्थली कभी महामुनि कपित की साधना स्थली थी। इसी एक ही किमी के बाद घने वन प्रांत में नर्मदा अपना दूसरा जल प्रपात बनाती है जिसे ‘‘दूध धारा’ कहते हैं। कुछ लोग इसे दोधार के नाम से भी पुकारते हैं। नर्मदा उद्गम कुण्ड से लगभग 03 किमी पूर्व में माई की बगिया तथा वहां से लगभग डेढ़ किमी आगे ‘‘सोनमुड़ा’’ स्थल है। जनश्रुतियों में माई की बगिया को मां नर्मदा की क्रीड़ास्थली के रूप में जाना जाता है। यहां पर जगप्रसिद्ध बकावली के पौधे होते हैं। इसके फूलों को नेत्रों की औषधि के रूप में मान्यता प्राप्त है।
माई की बगिया के अंदर की ओर जाने पर एक मंदिर के दर्शन होते हैं। इस अर्वाचीन मंदिर का निर्माण कुछ ही वर्षों पूर्व हुआ है। मंदिर के बाद से ही पर्वत शिखर पठार की सीमा समाप्त होती है और नीचे है विस्तृत घाटी में घना जंगल। इसी जंगल के सीने को चीर कर पेन्ड्रा रोड से अमरकंटक संपर्क सड़क सर्पिल गति से आगे बढ़ती है। सोनमुड़ा को नट शोणभद्र अर्थात् सोन की जन्मस्थली माना जाता है। सोनमूड़ा से वापस लौटते समय नर्मदा उद्गम कुण्ड से काफी पहले पातालेश्वर शिव का चमत्कारिक मंदिर है। मान्यता है कि यहां प्रतिवर्ष श्रावण माह में किसी एक सोमवार को भी मां नर्मदा स्वयं शिवलिंग का अभिषेक करने आती हैं। इस दौरान शिवलिंग की जल-लहरी प्राकृतिक रूप से जलपूर्ण हो जाती है। वर्ष के एक ही दिन, वह भी सोमवार को ही शिवलिंग का जल से प्राकृतिक रूप से अभिषिक्त होना शायद विज्ञान की भाषा में नहीं समझाया जा सकता है। सोनभद्र के उद्गम सोनमुड़ा के दक्षिण में भृगु कमण्डल नामक स्थल है। कहते हैं कि यह भृगु ऋषि की तपस्थली थी। उनके कमण्डल से होकर गंगा निकली है, जो आगे चलकर नर्मदा से मिल जाती है। वैसे भृगु कमण्डल तक जाना थोड़ा कठिन कार्य है। कहा जाता है कि विषपान करने के उपरांत विष की ज्वाला से पीड़ित भगवान शिव जालेश्वर पर्वत पर आकर बैठे थे। ज्वाला से पीड़ित होने के कारण ही पर्वत का नामकरण ज्वालेश्वर या जालेश्वर पड़ा। कुछ लोगों के अनुसार ज्वालेश्वर पर्वत के दुर्गम स्थानों में ऐसी विशाल गुफाएं हैं, जिसके ऊंचे शीर्ष पर संस्कृत श्लोक उत्कीर्ण हैं। इन प्रस्तर लेखों के बारे में अधिक अनुसंधान की आवश्यकता है।
शिवरात्रि पर होता है विशाल मेले का आयोजन
अमरकंटक में इसके अतिरिक्त अक्षयवट, घनीपानी, शम्भूधारा और सिद्ध विनायक आदि दर्शनीय स्थल है। आधुनिक दर्शनीय स्थलों में कुछ मंदिर आश्रम शामिल हैं। इनमें से श्रीराम कृष्ण, विवेकानंद कुटीर, कल्याण बाबा का आश्रम, तुरीय आश्रम, बर्फानी बाबा का आश्रम आदि प्रमुख हैं। कल्याण आश्रम के विपरीत दिशा में कुछ समय पूर्व एक मनोहारी कृत्रिम झील का निर्माण किया गया है, यहां नौकायन की सुविधा उपलब्ध है। पर्यटक तथा श्रद्धालु अपनी अमरकंटक यात्रा को इसके माध्यम से दिलकश बना सकते हैं। अमरकंटक में शिवरात्रि पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें सैकड़ों श्रद्धालु शामिल होते हैं। अमरकंटक में यात्रियों के ठहरने के लिए कई धर्मशालाएं, आश्रम एवं होटल आदि उपलब्ध हैं। अमरकंटक दक्षिण-पूर्व रेलवे के कटनी-बिलासपुर रेलमार्ग पर कटनी जंक्शन से 167 कि.मी. की दूरी पर अनूपपुर जंक्शन एवं 217 कि.मी. की दूरी पर पैन्ड्रा रोड स्टेशन से लगभग 26 कि.मी. (बस द्वारा) पर स्थित है।
ज्योतिप्रकाश खरे