Wednesday, January 1, 2025
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पांच राज्यों में चुनाव सेमीफाइनल तो नहीं?

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मानव सभ्यता के विकास में अब तक जितनी भी शासन प्रणाली या व्यवस्था अस्तित्व में आई हैं, उनमें जन भागीदारी की दृष्टि से लोकतंत्र को सर्वाधिक उत्कृष्ट माना गया है। आधुनिक युग में पुरानी व्यवस्था को खत्म कर लोकतंत्र को लाने और उसे स्थायित्व प्रदान करने के पीछे चार क्रांतियों की भूमिका है। ये हैं – 1688 की इंग्लैंड की क्रांति, 1776 की अमेरिकी क्रांति, 1789 की फ्रांस की राज्य क्रांति तथा 19वीं सदी की औद्योगिक क्रांति। अमेरिकी क्रांति से लोक प्रभुत्व का सिद्धांत तथा फ्रांस की क्रांति से स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुत्व के मूल्य अस्तित्व में आए। औद्योगिक क्रांति से इस सिद्धांत का विस्तार मानव समाज के आर्थिक जीवन तक हुआ। भारत का संविधान इन्हीं मूल्यों पर आधारित है। हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली इसी संविधान से संचालित है। वैसे भारत में इसकी जड़े प्राचीन काल में स्थापित गणराज्य में मिलती है। 2500 वर्ष पूर्व स्थापित वैशाली गणराज्य इसका उदाहरण है जहां लोकतांत्रिक प्रणाली और उसके मूल्य स्थापित थे। डॉ. अंबेडकर ने भी भारतीय संविधान में स्थापित समता, स्वतंत्रता व बंधुत्व को आयातित की जगह भारतीय समाज में उसके मौजूद होने की बात कही है।

भारतीय लोकतंत्र किस ओर….

वर्तमान समय में दुनिया में और भारत में लोकतंत्र के क्या हालात हैं? इस संबंध में समाज वैज्ञानिकों तथा राजनीति वैज्ञानिकों का अध्ययन और शोध जो सामने आया है, इसका निष्कर्ष यही है कि दुनिया में लोकतंत्र डगमगाने लगा है। विशेष तौर से नवउदारवादी व्यवस्था के आने के बाद से लोकतंत्र में गिरावट देखी जा रही है। जहां लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण हुआ है, वहीं निरंकुशता और तानाशाही की प्रवृत्ति बढ़ी है। ट्रंप, पुतिन जैसे राष्ट्राध्यक्षों के उदय को इसी रूप में लिया गया है। इस वर्ष वी डेम वेरायटी ऑफ डेमोक्रेसी की जो रिपोर्ट आई है, उसमें भारत का स्थान 108वें पर है तथा यह उन शीर्ष 10 देशों में है जहां लोकतंत्र निरंकुश हुआ है। इसी साल प्रकाशित एक दूसरी रिपोर्ट भी गौरतलब है जो ‘इंस्टीट्यूट फॉर डेमोक्रेसी एंड इलेक्टरल असिस्टेंस’ की है। इसके अनुसार भारत समतावादी घटक सूचकांक में 123वें और उदारवादी लोकतंत्र की सूची में 97 स्थान पर है। समता और उदारता को लोकतंत्र की विशेषता माना गया है। इस संबंध में भारतीय लोकतंत्र क्षरण की ओर है।

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इंदिरा गांधी के शासन काल के दौरान भारतीय लोकतंत्र में घुन लगा। उन्होंने देश में इमरजेंसी लगाई जिसे भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय माना जाता है। सत्तर के दशक में हिन्दी के मशहूर कवि रघुवीर सहाय ने इसी को लेकर कविता लिखी जो काफी चर्चित रही है। वे कहते हैं ‘लोकतंत्र का अंतिम क्षण है/कहकर आप हंसे/सबके सब हैं भ्रष्टाचारी/कहकर आप हंसे’। लोकतंत्र और भ्रष्टाचार के बीच चोली-दामन के रिश्ता का आरम्भ इसी दौर में हुआ जो समय के साथ मजबूत होता गया है। फिर भी यहां के लोकतंत्र की अपनी विशेषता है। इसका आधार समय पर चुनाव का होना है जो जन भागीदारी का पहला सोपान है। विपक्ष भले इवीएम को मुद्दा बनाए और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाए लेकिन इसी से सरकारों का गठन होता है और सरकार बदल भी जाती हैं।

18वीं लोकसभा चुनाव के पहले पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होंगे। ये हैं मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम। 9 अक्टूबर को चुनाव आयोग की ओर से चुनाव प्रोग्राम की घोषणा की गई। 17 नवम्बर को मध्य प्रदेश, 23 नवम्बर को राजस्थान, 7 और 17 नवम्बर को छत्तीसगढ़, 30 नवम्बर को तेलंगाना तथा 7 नवम्बर को मिजोरम में वोट डाले जाएंगे। इन चुनावों का नतीजा 3 दिसम्बर को आएगा। पांच राज्यों में होने वाले चुनाव में सर्वाधिक नजर तीन हिंदी भाषी राज्यों – मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ पर सबकी है क्योंकि यहां की कुल लोकसभा सीट 65 है जिनमें कांग्रेस के सदस्यों की संख्या मात्र तीन है। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है। मध्य प्रदेश में भाजपा की, तेलंगाना में भारतीय राष्ट्र समिति (बीआरएस) की और मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट (एम एन एफ) की। क्या राज्यों के चुनाव नतीजे लोकसभा के परिणाम को प्रभावित करेंगे और करेंगे भी तो कहां तक? राज्यों के इस चुनाव को लोकसभा से पहले सेमीफाइनल कहा जा रहा है? क्या ऐसा है?

मिजोरम में एनडीए का पलड़ा भारी

मिजोरम भारत का एक छोटा (आबादी की दृष्टि से) उत्तर पूर्वी राज्य है जिसकी जनसंख्या 11 लाख से कुछ अधिक है। वहां साक्षरता सर्वाधिक है 91.03 प्रतिशत। वहां विधानसभा की कुल सीट 40 है जिसमें एम एन एफ के 27, जोराम पीपुल्स मूवमेंट (जेड पी एम) के 6, कांग्रेस के पांच और भाजपा एवं तृणमूल कांग्रेस के एक-एक विधायक हैं। एम एन एफ के अतिरिक्त चार दलों की कुल विधायक संख्या मात्र 13 है जिससे दो गुना से अधिक संख्या एम एन एफ के विधायकों की है। वहां एम एन एफ और उसके नेता जोरामथंगा, जो वहां 2018 से मुख्यमंत्री हैं, को चुनौती देने वाला ना कोई दल है ना कोई नेता। एम एन एफ की जीत सुनिश्चित है और जोरामथंगा का मुख्यमंत्री बनना भी निश्चित है। इस राज्य की स्थापना 20 फरवरी 1987 को हुई थी। 1986 में तत्त्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ मिजोरम शांति समझौता हुआ था। कांग्रेस के मुख्यमंत्री पांच बार बने। सबसे अधिक कार्यकाल लालथन हवला का रहा। दिसंबर 2018 से वहां मिजो नेशनल फ्रंट की सरकार है जो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एन डी ए) में है। लोकसभा और राज्यसभा की यहां से एक-एक सीट है। मिजोरम में एन डी ए का पलड़ा एम एन एफ के कारण भारी रहेगा।

तेलंगाना में केसीआर का विकल्प नहीं

तेलंगाना एक नया राज्य है। इसकी स्थापना 2 जून 2014 को हुई। यहां विधानसभा की 119, विधान परिषद की 40, लोकसभा की 17 और राज्यसभा के कुल 7 सीट है। जनसंख्या साढ़े तीन करोड़ से अधिक है। इस राज्य के निर्माण के बाद से तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव‘के सी आर’ हैं। उनकी पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति ( टीआरएस) को अक्टूबर 2022 से भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) से जाना जाता है। यह नई पार्टी तेलुगू देशम पार्टी से निकली तथा 27 अप्रैल 2001 को इसकी स्थापना हुई। 119 सदस्यों वाली तेलंगाना विधानसभा में बी आर एस के 101 विधायक हैं। विधान परिषद में इसकी सदस्य संख्या 34 है । लोकसभा में 9 और राज्यसभा में 7 सांसद हैं। इस पार्टी ने आरंभ में कांग्रेस से गठबंधन किया फिर टी डी पी से और उसके बाद भाजपा के गठबंधन एन डी ए से। 2014 के विधानसभा चुनाव में इसने स्वतंत्र ढंग से चुनाव लड़कर जीत हासिल की। 2018 के विधानसभा चुनाव में इसे 88, कांग्रेस को 19, ओवैसी की पार्टी 2, तेलंगाना तेलुगू देशम पार्टी को दो, भाजपा को एक, ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक को एक और निर्दलीय को एक सीट प्राप्त हुई थी। लोकसभा में तेलंगाना से बी आर एस के 9, भाजपा के चार, कांग्रेस के तीन और ए आई एम आई के एक सांसद हैं। विधानसभा चुनाव में केसीआर को चुनौती देने वाला ना कोई दल है ना नेता। भाजपा के चुनाव अभियान का प्रमुख पहलू वंशवाद आौर परिवारवाद है। वह इसे लेकर कांग्रेस और केसीआर पर हमला करती है। केसीआर की पार्टी बी आर एस की जीत की पूरी संभावना है। फिलहाल तेलंगाना में केसीआर का विकल्प न तो भाजपा के पास है और न कांग्रेस के पास। हां, दूसरे नम्बर पर कौन रहेगा, इसके लिए भाजपा और कांग्रेस के बीच टक्कर है।

मध्यप्रदेश में भाजपा मजबूत

हिंदी प्रदेशों के कारण ही भाजपा केंद्र में सत्तारूढ़ हुई और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कोई क्षेत्रीय दल प्रमुख नहीं है। मध्य प्रदेश में विधानसभा की कुल 230 सीट है जिनमें भाजपा के 128, कांग्रेस के 98, बसपा के एक और तीन निर्दलीय विधायक हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बीडी शर्मा की भूमिका टिकट बंटवारे में सीमित है। भाजपा की केंद्रीय चुनाव समिति में भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और अन्य वरिष्ठ नेता हैं। अब राज्यों में राज्य प्रमुखों से अधिक केन्द्र की भूमिका है। सब कुछ केंद्र के मातहत है। लोकसभा की यहां की 29 सीटों में से कांग्रेस को मात्र एक, राज्यसभा की 11 सीटों में से कुल 3 सीटें हैं। कांग्रेस में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की भूमिका प्रमुख है। कमलनाथ कांग्रेस के यहां राज्य अध्यक्ष हैं। शिवराज सिंह चैहान मध्य प्रदेश के 19 वें मुख्यमंत्री हैं। वे चार बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं। 2018 में मध्य प्रदेश कांग्रेस की सरकार बनी थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से अपने अनुयायियों के साथ अपने को भाजपा में शामिल किया। कांग्रेस के स्थान पर भाजपा की सरकार बनी। मध्य प्रदेश के चुनाव में कांग्रेस की जीत की संभावना क्षीण है। भाजपा यहां मजबूत है और दूसरी बात कि यहां उसकी सरकार है। इसका लाभ भी मिलेगा।

राजस्थान बदलाव की ओर

राजस्थान में 1947 से 1962 तक कांग्रेस का शासन था। 1967 में पहली बार भारतीय जनसंघ ने यहां सत्ता का स्वाद चखा। 1972 में पुन कांग्रेस जीती और 1977 के चुनाव के बाद यहां जनता पार्टी की सरकार बनी। भैरो सिंह शेखावत मुख्यमंत्री बने। राजस्थान में भी मुख्य रूप से राजनीतिक दल केवल दो हैं – कांग्रेस और भाजपा। वहां विधानसभा की सीट संख्या 200 है जिसमें अभी कांग्रेस के 108, भाजपा के 78, निर्दलीय 13, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के तीन, राष्ट्रीय लोक दल के एक, माकपा के दो और भारतीय ट्राइबल पार्टी के दो विधायक हैं। आरंभ में इस राज्य में भैरो सिंह शेखावत और मोहनलाल सुखाड़िया का वर्चस्व था। सुखड़िया कांग्रेस के थे। उन्होंने राजस्थान में 17 वर्ष तक शासन किया। शेखावत सत्ता में सदैव नहीं रहे। 1980 में उनकी सरकार को इंदिरा गांधी ने बर्खास्त किया था। बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद भी उनकी सरकार को निलंबित किया गया। शेखावत तीन बार मुख्यमंत्री बने थे। 2002 में उपराष्ट्रपति बनने के बाद शेखावत राज्य की राजनीति से अलग हुए। 1998 में भाजपा प्याज की मूल्य वृद्धि के कारण चुनाव हारी थी। अशोक गहलोत का प्रमुख रूप से आगमन इस समय हुआ था। शेखावत ने उपराष्ट्रपति बनने के बाद वसुंधरा राजे को अपना उत्तराधिकारी बनाया। 2003 से 2008 तक राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे थी।

Vasundhara Raje

2008 के चुनाव में जीतकर अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बने थे। 2013 के चुनाव में भाजपा को 200 में से 163 सीट मिली थी और कांग्रेस को मात्र 21। 2018 के चुनाव में कांग्रेस को जीताने का श्रेय सचिन पायलट को जाता है। 2018 में तीसरी बार अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बने। वे राजस्थान के सबसे लंबे समय के मुख्यमंत्री हैं, 14 वर्ष से अधिक। इनके बाद मुख्यमंत्री का सबसे लंबा कार्यकाल मोहनलाल सुखाड़िया का है। अशोक गहलोत तीन बार मुख्यमंत्री रहे और वसुंधराराजे दो बार। राजस्थान में कांग्रेस का एक भी लोकसभा सांसद नहीं है। कांग्रेस सत्ता में है और वसुंधरा राजे से मोदी नाराज हैं। कांग्रेस और भाजपा दोनों के घर में अंदरूनी लड़ाई है। क्या अशोक गहलोत अपना किला बचा पाएंगे? वैसे राजस्थान में आमतौर पर सरकार बदल जाया करती है। इसी कहानी के दुहराए जाने की संभावना अधिक लगती है।

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की वापसी?

छत्तीसगढ़ में भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर है। यहां विधानसभा की कुल 90 सीट है जिनमें से पिछले चुनाव 2018 में कांग्रेस को 71, भाजपा को 15, बसपा को दो और जेसीसी (जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़) को एक सीट प्राप्त हुई थी। छत्तीसगढ़ में लोकसभा की कुल 11 सीट है, जिसमें कांग्रेस दो सीटों पर जीती थीं। विधानसभा में कांग्रेस की जीत हुई और लोकसभा चुनाव में भाजपा की। जिन तीन हिन्दी प्रदेशों में चुनाव हो रहा है, उसमें यही प्रदेश है जहां कांग्रेस वापसी कर सकती है। भाजपा के लिए भूपेश सिंह बघेल के किले को दरकाना आसान नहीं है। वैसे कोई भी भविष्यवाणी करना उचित नहीं। भारतीय जनता के मूड का अनुमान लगाना आसान नहीं है। अनेक बार एक्जिट पोल को भी मतदताओं ने गच्चा दिया है।

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2024 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले पांच राज्यों के चुनाव होने के करण इसे लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा है। इसमें जीत का जो दरवाजा यहां से खुलेगा, क्या वह लोकसभा चुनाव में भी खुला रहेगा? प्रश्न है क्या इसका प्रभाव 2024 के चुनाव पर पड़ेगा? 2019 में भी यही हालात थे। लेकिन उस वक्त तीनो हिन्दी प्रदेशों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार थी, वह हार गई तथा वहां कांग्रेस जीती। लेकिन लोकसभा चुनाव में इन प्रदेशों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। इसलिए यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है कि राज्यों के चुनाव परिणाम का असर लोकसभा में भी होगा। इसकी मुख्य वजह दोनों के मुद्दे की भिन्नता और परिप्रेक्ष्य है। राज्यों के चुनाव में स्थानीय मुद्दे प्रधान होते हैं। वैसे नरेन्द्र मोदी का जो कद और चेहरा है, उसका लाभ भाजपा को अवश्य मिलेगा। ऐसा हुआ है। लेकिन हर बार हो, यह भी आवश्यक नहीं है। जैसा कर्नाटक के चुनाव में हुआ। वहां भाजपा की सरकार बदल गई। ऊँट किस करवट बैठेगा, इसके लिए 3 दिसम्बर का इंतजार है।

कौशल किशोर

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