खूंटी: झारखंड के जनजातीय समाज को सबसे गड़ा पर्व है सरहुल। सरहुल मानव और प्रकृति के अन्योन्याश्रय संबंध को दर्शाने वाला सबसे बड़ा त्योहार है। सरहुल प्रकृति के संरक्षण का संदेश देने वाला पर्व है। गैर ईसाई जनजातियों का यह सबसे बड़ा त्योहार है। उरांव समाज में इसे खद्दी, हो और संथाली समाज में बाहा और मुंडा जनजाति में इसे सरहुल और खड़िया समाज में इसे जांकोर कहा जाता है।
सरहुल होली के बाद चैत महीने में मनाया जाता है। वैसे प्रकृति का पर्व सरहुल झारखंड के अलावा ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, असम सहित अन्य आदिवासी बहुल क्षेत्र में पारंपरिक ढंग से मनाया जाता है। हालांकि, क्षेत्र के अनुसार सरहुल मनाने का तरीका और पूजा विधि बदल जाती है। झारखंड में सरहुल की शुरुआत चैत्र महीने के शुक्त पक्ष की तृतीया तिथि से होती है और पूर्णिमा तक मनाया जाता है। रांची सहित अन्य शहरी इलाकों में सरहुल सामूहिक रूप से एक ही दिन मनाया जाता है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में अलग-अलग दिनों में अलग-अलग गांवों में सरहुल मनाया जाता है। त्योहार मनाया जाता है।
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प्रकृति के साथ क्रांति का प्रतीक है सरहुल: विधायक
सरहुल के संबंध में तोरपा के विधायक और सरना समाज के जाने माने नेता कोचे मुंडा बताते हैं कि झारखडं प्रकृति से भरा राज्य है। झारखंड ही नहीं दूसरे राज्यों का जनजातीय समाज प्रकृति की हर तरीके से पूजा-आराधना करता है, चाहे वह पहाड़ हो, नदी हो या फसल हो अथवा पेड़-पौधे हों। विधायक मुंडा ने कहा कि जनजाति समाज प्रकृति के काफी करीब होता है।
उन्होंने बताया कि सरहुल दो शब्दों के मेल से बना है सर और हुल। सर का अर्थ होता है सरई या सखुआ और हुल का अर्थ होता है क्रांति। इसलिए सरहुल को क्रांति का प्रतीक भी माना जाता है। कर्रा प्रखंड के जोजोदाग गांव के हरि पाहन बताते हैं कि सरहुल दिवसीय पर्व है। इसमें सरई या सखुआ फूल का सबसे अधिक महत्व है। पर्व के अंतिम दिन गांव के पाहन द्वारा हर घर के दरवाजे पर सरई फूल खोंसा जाता है, जिसे फूलखोंसनी कहा जाता है।
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