विश्व के किसी भी धर्म या संप्रदाय के किसी भी ग्रन्थ का जन्म-दिन नहीं मनाया जाता, परन्तु सनातन धर्म में जयंती मनायी जाती है तो केवल श्रीमद्भगवतगीता की क्योंकि अन्य ग्रन्थ किसी मनुष्य द्वारा लिखे या संकलित किये गये हैं जबकि गीता का जन्म स्वयं श्रीभगवान के श्रीमुख से हुआ है यथा
या स्वयं पद्धनाभस्य मुखपद्भाद्धिनिःसृता ।।
गीता जी का जन्म धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में श्रीभगवान के विभूतिस्वरूप मार्गशीर्ष मास में उनकी प्रिय तिथि शुक्ल पक्ष की एकादशी को हुआ था। यह तिथि मोक्षदा एकादशी के नाम से विख्यात है। गीता एक सार्वभौम भक्ति ग्रन्थ है। यह किसी देश, काल, धर्म, सम्प्रदाय या जाति विशेष के लिये नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव जाति के लिये है। इसे स्वयं श्रीभगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर कहा है। इसलिये इस ग्रन्थ में कहीं भी ‘श्रीकृष्ण उवाच’ शब्द नहीं आया है बल्कि ‘श्रीभगवानुवाच’ का प्रयोग किया गया है। जिस प्रकार गाय के दूध को बछड़े के बाद सभी धर्म, सम्प्रदाय के लोग पान करते हैं, उसी प्रकार यह गीता ग्रन्थ भी सबके लिये जीवन प्रथेय स्वरूप है। सभी उपनिषदों का सार ही गोस्वरूप गीता माता हैं, इसे – 03 पदहने वाले गोपाल श्रीकृष्ण हैं। अर्जुनरूपी बछड़े के दुहने वाले गोपाल श्रीकृष्ण है। अर्जुनरूपी बछड़ें के पीने से निकलने वाला महान् अमृतसदृश दूध ही गीतामृत है
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः ।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ।।
इस प्रकार वेदों और उपनिषदों का सार, इस लोक और परलोक दोनों में मंगलमय मार्ग दिखाने वाला, कर्म, ज्ञान और भक्ति- तीनों मार्गों द्वारा मनुष्य को परमश्रेय के साधन का उपदेश करने वाला, सबसे ऊंचे ज्ञान, सबसे विमल कृष्ण भक्ति, सबसे उज्जवल कर्म, यम, नियम, त्रिविध तप, अहिंसा, सत्य और दया के उपदेश के साथ-साथ धर्म के लिये धर्म का अवलम्बन कर, अधर्म को त्यागकर धर्मयुद्ध का उपदेश करने वाला यह अद्भुत ग्रन्थ है। इसके छोटे-छोटे 18 अध्यायों में इतना सत्य, इतना ज्ञान, इतने ऊंचे गम्भीर सात्विक उपदेश व भक्तिसूत्र भरे हैं, जो मनुष्य को नीची-से-नीची दशा से उठाकर भगवान के चरणों में बैठा देने की शक्ति रखते हैं। मनुष्य का कर्तव्य क्या है ? इसका बोध कराना ही गीता का लक्ष्य है। गीता में कुल 18 अध्याय हैं, जो महाभारत के भीष्मपर्व में सन्निहित हैं। गीता सर्वशास्त्रमयी है। योगेश्वर श्रीकृष्ण जी ने किसी धर्म विशेष के लिये नहीं, अपितु मनुष्यमात्र के लिये उपदेश किये हैं- कर्म योग करो कर्म योग करना कर्तव्य है, यह कर्म योग निष्कामभाव से होना चाहिये अर्थात् कृष्ण भगवान को मन से निरन्त स्मरण करते हुए कर्म करना ही कर्मयोग है।
गीता हमें जीवन जीने की कला सिखाती है जीवन जीने की शिक्षा देती है। केवल इस एक श्लोक के उदाहरण से ही इसे अच्छी प्रकार से समझा जा सकता है
सुखदुःखे समे कृत्वा लामालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।।
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हम सब बड़े भाग्यवान् कि हमें इस संसार भव सागर अंधकार से प्रकाश दिखाने वाला यह छोटा किन्तु अक्षय स्नेहपूर्ण धर्मदीप एवं भक्तिदीप प्राप्त हुआ हमारा भी यह लाभ मनुष्यमात्र तक पहुंचाने का सतत प्रयास करें। इसी निमित्त गीता-जयन्ती महापर्व मनाया जाता इस पर जनता-जनार्दन में गीता-प्रचार साथ ही श्रीगीताजी शिक्षा जीवन में उतारने की स्थायी योजना बनानी चाहिये। इस हेतु निम्न कार्यक्रम किये जाने चाहिये
(1) गीता-ग्रन्थ पूजन।
(2) गीता के वक्ता भगवान श्रीकृष्ण, उसके श्रोता नर स्वरूप भक्तप्रवर अर्जुन तथा उसे महाभारत में ग्रंथित करने वाले भगवान व्यासदेव का पूजन
(3) गीता का यथासाध्य व्यक्तिगत और सामूहिक पारायण ।
(4) गीता भक्ति-तत्व को समझाने तथा उसके प्रचार-प्रसार के लिये सभाओं, प्रवचन, व्याखान और गोष्ठियों का आयोजन ।
(5) विद्यालयों और महाविद्यालयों में गीता-पाठ, गीता पर व्याख्यान का आयोजन।
(6) गीता ज्ञान सम्बन्धी परीक्षा का आयोजन तथा उसमें उत्तीर्ण छात्र छात्राओं को पुरस्कार वितरण।
(7) श्रीगीताजी की शोभायात्रा निकालना आदि।
लोकेंद्र चतुर्वेदी ज्योतिर्विद