महाराजा अग्रसेन को समाजवाद का अग्रदूत कहा जाता है। अपने क्षेत्र में सच्चे समाजवाद की स्थापना हेतु उन्होंने नियम बनाया था कि उनके नगर में बाहर से आकर बसने वाले प्रत्येक परिवार की सहायता के लिए नगर का प्रत्येक परिवार उसे एक सिक्का व एक ईंट देगा। जिससे आने वाला परिवार स्वयं के लिए मकान व व्यापार का प्रबंध कर सके। महाराजा अग्रसेन ने शासन प्रणाली में एक नयी व्यवस्था को जन्म दिया था। उन्होंने वैदिक सनातन आर्य सस्कृति की मूल मान्यताओं को लागू कर राज्य में कृषि-व्यापार, उद्योग, गौ पालन के विकास के साथ-साथ नैतिक मूल्यों की स्थापना की थी।
मान्यतानुसार मर्यादा पुरुषोतम भगवान श्रीराम की चैंतीसवी पीढ़ी में सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल के महाराजा वल्लभ सेन के घर में द्वापर के अन्तिम काल और कलियुग के प्रारम्भ में अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को महाराजा अग्रसेन का जन्म हुआ। जिसे दुनिया भर में अग्रसेन जयंती के रूप में मनाया जाता है। राजा वल्लभ के अग्रसेन और शूरसेन नामक दो पुत्र हुये थे। अग्रसेन महाराज वल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र थे। महाराजा अग्रसेन के जन्म के समय गर्ग ऋषि ने महाराज वल्लभ से कहा था कि यह बालक बहुत बड़ा राजा बनेगा। इसके राज्य में एक नई शासन व्यवस्था उदय होगी और हजारों वर्ष बाद भी इनका नाम अमर होगा। उनके राज में कोई दुखी या लाचार नहीं था। बचपन से ही वे अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय थे। वे एक धार्मिक, शांति दूत, प्रजा वत्सल, हिंसा विरोधी, बली प्रथा को बंद करवाने वाले, करुणानिधि, सब जीवों से प्रेम, स्नेह रखने वाले दयालू राजा थे।
महाराजा अग्रसेन एक सूर्यवंशी क्षत्रिय राजा थे। जिन्होंने प्रजा की भलाई के लिए वणिक धर्म अपना लिया था। महाराज अग्रसेन ने नाग लोक के राजा कुमद के यहां आयोजित स्वयंवर में राजकुमारी माधवी का वरण किया। इस विवाह से नाग एवं आर्य कुल का नया गठबंधन हुआ। महाराजा अग्रसेन समाजवाद के प्रर्वतक, युग पुरुष, राम राज्य के समर्थक एवं महादानी थे। माता लक्ष्मी की कृपा से श्री अग्रसेन के 18 पुत्र हुये। राजकुमार विभु उनमें सबसे बड़े थे। महर्षि गर्ग ने महाराजा अग्रसेन को 18 पुत्र के साथ 18 यज्ञ करने का संकल्प करवाया।
माना जाता है कि यज्ञों में बैठे 18 गुरुओं के नाम पर ही अग्रवंश की स्थापना हुई। ऋषियों द्वारा प्रदत्त अठारह गोत्रों को महाराजा अग्रसेन के 18 पुत्रों के साथ उनके द्वारा बसायी 18 बस्तियों के निवासियों ने भी धारण कर लिया। आपसी प्रेमभाव बनाये रखने के लिए एक सर्वसम्मत निर्णय हुआ कि अपने पुत्र और पुत्री का विवाह अपनी बस्ती में नहीं दूसरी बस्ती में करेंगे। आगे चलकर यह व्यवस्था गोत्रों में बदल गई जो आज भी अग्रवाल समाज में प्रचलित है।
महाराजा वल्लभ के निधन के बाद अपने नये राज्य की स्थापना के लिए महाराज अग्रसेन ने अपनी रानी माधवी के साथ सारे भारतवर्ष का भ्रमण किया। इसी दौरान उन्हें एक जगह शेर तथा भेड़िये के बच्चे एक साथ खेलते मिले। उन्हें लगा कि यह दैवीय संदेश है जो इस वीरभूमि पर उन्हें राज्य स्थापित करने का संकेत दे रहा है। ऋषि मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नये राज्य का नाम अग्रेयगण रखा गया जिसे अग्रोहा नाम से जाना जाता है। वह जगह आज के हरियाणा के हिसार के पास है। आज भी यह स्थान अग्रहरि और अग्रवाल समाज के लिए तीर्थ के समान है। यहां महाराज अग्रसेन और मां लक्ष्मी देवी का भव्य मंदिर है। अग्रसेन अपने छोटे भाई शूरसेन को प्रतापनगर का राजपाट सौंप दिया। महाराजा अग्रसेन अग्रवाल जाति के पितामह थे।
उन्होंने परिश्रम और उद्योग से धनोपार्जन के साथ-साथ उसके समान वितरण और आय से कम खर्च करने पर बल दिया। जहां एक ओर वैश्य जाति को व्यवसाय का प्रतीक तराजू प्रदान किया वहीं दूसरी ओर आत्म-रक्षा के लिए शस्त्रों के उपयोग की शिक्षा पर भी बल दिया। उस समय यज्ञ करना समृद्धि, वैभव और खुशहाली की निशानी माना जाता था। महाराज अग्रसेन ने बहुत सारे यज्ञ किए। एक बार यज्ञ में बली के लिए लाए गये घोड़े को बहुत बैचैन और डरा हुआ देख उन्हें विचार आया कि ऐसी समृद्धि का क्या फायदा जो मूक पशुओं के खून से सराबोर हो। उसी समय उन्होंने पशु बली पर रोक लगा दी। इसीलिए आज भी अग्रवंश समाज हिंसा से दूर रहता है।
महाराज अग्रसेन ने 108 वर्षों तक राज किया। महाराज अग्रसेन ने एक ओर हिन्दू धर्म ग्रंथों में वैश्य वर्ण के लिए निर्देशित कर्म क्षेत्र को स्वीकार किया और नए आदर्श स्थापित किए। उनके जीवन के मूल रूप से तीन आदर्श हैं- लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था, आर्थिक समरूपता एवं सामाजिक समानता। एक निश्चित आयु प्राप्त करने के बाद कुलदेवी महालक्ष्मी से परामर्श पर वे आग्रेय गणराज्य का शासन अपने ज्येष्ठ पुत्र विभु के हाथों में सौंपकर तपस्या करने चले गए।
कहते हैं कि एक बार अग्रोहा में बड़ी भीषण आग लगी। उस पर किसी भी तरह काबू ना पाया जा सका। उस अग्निकांड से हजारों लोग बेघरबार हो गये और जीविका की तलाश में भारत के विभिन्न प्रदेशों में जा बसे। पर उन्होंने अपनी पहचान नहीं छोड़ी। वे सब आज भी अग्रवाल ही कहलवाना पसंद करते हैं और उसी 18 गोत्रों से अपनी पहचान बनाए हुए हैं। आज भी वे सब महाराज अग्रसेन द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण कर समाज की सेवा में लगे हुए हैं।
वैसे महाराजा अग्रसेन पर अनगिनत पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। सुप्रसिद्ध लेखक भारतेंदु हरिश्चंद्र जो खुद भी अग्रवाल समुदाय से थे, उन्होंने 1871 में अग्रवालों की उत्पत्ति नामक एक प्रामाणिक ग्रंथ लिखा है। जिसमें विस्तार से इनके बारे में बताया गया है। 24 सितंबर 1976 में भारत सरकार द्वारा 25 पैसे का डाक टिकट महाराजा अग्रसेन के नाम पर जारी किया गया था। सन 1995 में भारत सरकार ने दक्षिण कोरिया से 350 करोड़ रुपये में एक विशेष तेल वाहक पोत (जहाज) खरीदा, जिसका नाम महाराजा अग्रसेन रखा गया। राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 10 का आधिकारिक नाम महाराजा अग्रसेन पर है।
आज का अग्रोहा ही प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित अग्रवालों का उद्गम स्थान आग्रेय है। अग्रोहा हिसार से 20 किलोमीटर दूर महाराजा अग्रसेन राष्ट्र मार्ग संख्या 10 के किनारे एक साधारण गांव के रूप में स्थित है। जहां पांच सौ परिवारों की आबादी रहती है। इसके समीप ही प्राचीन राजधानी अग्रेह (अग्रोहा) के अवशेष के रूप में 650 एकड भूमि में फैला महाराजा अग्रसेन धाम है। जो महाराज अग्रसेन के अग्रोहा नगर के गौरव पूर्ण इतिहास को दर्शाता है। आज भी यह स्थान अग्रवाल समाज में पांचवें धाम के रूप में पूजा जाता है।
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अग्रोहा विकास ट्रस्ट ने यहां पर बहुत सुंदर मन्दिर, धर्मशालाएं आदि बनाकर यहां आने वाले अग्रवाल समाज के लोगो के लिए बहुत सुविधायें उपलब्ध करवायी हैं। इतिहास में महाराज अग्रसेन परम प्रतापी, धार्मिक, सहिष्णु, समाजवाद के प्रेरक महापुरुष के रूप में उल्लेखित हैं। देश में जगह-जगह महाराजा अग्रसेन के नाम पर बनायी गयी स्कूल, अस्पताल, बावड़ी, धर्मशालाएं आदि महाराजा अग्रसेन के जीवन मूल्यों का आधार हैं। जो मानव आस्था के प्रतीक हैं।
रमेश सर्राफ धमोरा