Thursday, December 26, 2024
spot_img
spot_img
spot_imgspot_imgspot_imgspot_img
Homeफीचर्डजैव विविधता पर मंडराता खतरा

जैव विविधता पर मंडराता खतरा

जैव विविधता की समृद्धि ही धरती को रहने तथा जीवन यापन के योग्य बनाती है किन्तु विडम्बना है कि निरन्तर बढ़ते प्रदूषण रूपी राक्षस वातावरण पर इतना खतरनाक प्रभाव डाल रहा है कि जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की अनेक प्रजातियां धीरे-धीरे लुप्त हो रही हैं। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 20 दिसम्बर 2013 को अपने 68वें सत्र में 3 मार्च के दिन को ‘विश्व वन्यजीव दिवस’ के रूप में अपनाए जाने की घोषणा की। अगर भारत में कुछ जीव-जंतुओं की प्रजातियों पर मंडराते खतरों की बात करें तो जैव विविधता पर दिसम्बर 2018 में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (सीबीडी) में पेश की गई छठी राष्ट्रीय रिपोर्ट से पता चला था कि अंतर्राष्ट्रीय ‘रेड लिस्ट’ की गंभीर रूप से लुप्तप्रायः और संकटग्रस्त श्रेणियों में भारतीय जीव प्रजातियों की सूची वर्षों से बढ़ रही है। इस सूची में शामिल प्रजातियों की संख्या में वृद्धि जैव विविधता तथा वन्य आवासों पर गंभीर तनाव का संकेत है। भारत में इस समय नौ सौ से भी अधिक दुर्लभ प्रजातियां खतरे में बताई जा रही हैं। यही नहीं, विश्व धरोहर को गंवाने वाले देशों की सूची में दुनियाभर में भारत का चीन के बाद सातवां स्थान है।

भारत का समुद्री पारिस्थितिकीय तंत्र करीब 20444 जीव प्रजातियों के समुदाय की मेजबानी करता है, जिनमें से 1180 प्रजातियों को संकटग्रस्त तथा तत्काल संरक्षण के लिए सूचीबद्ध किया गया है। अगर देश में प्रमुख रूप से लुप्त होती कुछेक जीव-जंतुओं की प्रजातियों की बात करें तो कश्मीर में पाए जाने वाले हांगलू की संख्या सिर्फ दो सौ के आसपास रह गई है, जिनमें से करीब 110 दाचीगाम नेशनल पार्क में हैं। इसी प्रकार आमतौर पर दलदली क्षेत्रों में पाई जाने वाली बारहसिंगा हिरण की प्रजाति अब मध्य भारत के कुछ वनों तक ही सीमित रह गई है। वर्ष 1987 के बाद से मालाबार गंधबिलाव नहीं देखा गया है। हालांकि माना जाता है कि इनकी संख्या पश्चिमी घाट में फिलहाल दो सौ के करीब बची है। दक्षिण अंडमान के माउंट हैरियट में पाया जाने वाला दुनिया का सबसे छोटा स्तनपायी सफेद दांत वाला छछूंदर लुप्त होने के कगार पर है। एशियाई शेर भी गुजरात के गिर वनों तक ही सीमित हैं।

France, Aug 26 (ANI): Prime Minister Narendra Modi in the session on ‘Biodiversity, Oceans, Climate’, at the G7 Summit, in Biarritz on Monday. (ANI Photo)

देश में हर साल बड़ी संख्या में बाघ मर रहे हैं, हाथी कई बार ट्रेनों से टकराकर मौत के मुंह में समा रहे हैं, इनमें से कईयों को वन्य तस्कर मार डालते हैं। कभी गांवों या शहरों में बाघ घुस आता है तो कभी तेंदुआ और घंटों-घंटों या कई-कई दिनों तक दहशत का माहौल बन जाता है। यह सब वन क्षेत्रों के घटने और विकास परियोजनाओं के चलते वन्य जीवों के आश्रय स्थलों में बढ़ती मानवीय घुसपैठ का ही परिणाम है कि वन्य जीवों तथा मनुष्यों का टकराव लगातार बढ़ रहा है और वन्य प्राणी अभयारण्यों की सीमा पार कर बाघ, तेंदुए इत्यादि वन्य जीव अब अक्सर बेघर होकर भोजन की तलाश में शहरों का रुख करने लगे हैं, जो कभी खेतों में लहलहाती फसलों को तहस-नहस कर देते हैं तो कभी इंसानों पर जानलेवा हमले कर देते हैं। ‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर’ (आईयूसीएन) के मुताबिक भारत में पौधों की करीब 45 हजार प्रजातियां पाई जाती हैं और इनमें से भी 1336 प्रजातियों पर लुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। इसी प्रकार फूलों की पाई जाने वाली 15 हजार प्रजातियों में से डेढ़ हजार प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं।

पर्यावरण वैज्ञानिकों के मुताबिक प्रदूषण तथा स्मॉग भरे वातावरण में कीड़े-मकोड़े सुस्त पड़ जाते हैं। प्रदूषण का जहर अब मधुमक्खियों तथा सिल्क वर्म जैसे जीवों के शरीर में भी पहुंच रहा है। रंग-बिरंगी तितलियों को भी इससे काफी नुकसान हो रहा है। यही नहीं, अत्यधिक प्रदूषित स्थानों पर तो पेड़-पौधों पर भी इसका इतना बुरा प्रभाव पड़ रहा है कि हवा में सल्फर डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन तथा ओजोन की अधिक मात्रा के चलते पेड़-पौधों की पत्तियां भी जल्दी टूट जाती हैं। पर्यावरण विशेषज्ञों का स्पष्ट कहना है कि अगर इस ओर जल्द ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में स्थितियां इतनी खतरनाक हो जाएंगी कि धरती से पेड़-पौधों तथा जीव-जंतुओं की कई प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी। पृथ्वी पर पेड़ों की संख्या घटने से अनेक जानवरों और पक्षियों से उनके आशियाने छिन रहे हैं, जिससे उनका जीवन संकट में पड़ रहा है।

वन्य जीवों को विलुप्त होने से बचाने के लिए भारत में पहला कानून ‘वाइल्ड एलीकेंट प्रोटेक्शन एक्ट’ ब्रिटिश शासनकाल में 1872 में बनाया गया था। 1927 में ब्रिटिश शासनकाल मं ही ‘भारतीय वन अधिनियम’ बनाकर वन्य जीवों का शिकार तथा वनों की अवैध कटाई को अपराध की श्रेणी में रखते हुए दंड का प्रावधान किया गया। 1956 में एकबार फिर ‘भारतीय वन अधिनियम’ पारित किया गया और वन्य जीवों के बिगड़ते हालातों में सुधार के लिए 1983 में ‘राष्ट्रीय वन्य जीव योजना’ की शुरुआत की गई, जिसके तहत कई नेशनल पार्क और वन्य प्राणी अभयारण्य बनाए गए। हालांकि नेशनल पार्क बनाने का सिलसिला ब्रिटिश काल में ही शुरू हो गया था, जब सबसे पहला नेशनल पार्क 1905 में असम में बनाया गया था और उसके बाद दूसरा नेशनल पार्क ‘जिम कार्बेट पार्क’ 1936 में बंगाल टाइगर के संरक्षण के लिए उत्तराखण्ड में बनाया गया था लेकिन आज नेशनल पार्कों की संख्या बढ़कर 103 हो गई है और देश में कुल 530 वन्य जीव अभयारण्य भी हैं, जिनमें 13 राज्यों में 18 बाघ अभयारण्य भी स्थापित किए गए हैं।

आजादी के बाद से देश में वन्य जीवों के संरक्षण के लिए कई परियोजनाएं चलाई जा रही हैं, जिनमें ‘कस्तूरी मृग परियोजना 1970’, ‘प्रोजेक्ट हुंगल 1970’, ‘गिर सिंह परियोजना 1972’, ‘बाघ परियोजना 1973’, ‘कछुआ संरक्षण परियोजना 1975’, ‘गैंडा परियोजना 1987’, ‘हाथी परियोजना 1992’, ‘गिद्ध संरक्षण परियोजना 2006’, ‘हिम तेंदुआ परियोजना 2009’ इत्यादि शामिल हैं। इस तरह की कई परियोजनाएं शुरू किए जाने के बावजूद शेर, बाघ, हाथी, गैंडे इत्यादि अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। भारत फिलहाल जैव विविधता पर करीब दो अरब डॉलर खर्च कर रहा है और इसे वन्य जीवों के संरक्षण के लिए चलाई जा रही परियोजनाओं की सफलता ही माना जाना चाहिए कि जहां 2006 में देश में व्यस्क बाघों की संख्या 1411 थी, वह 2010 में बढ़कर 1706, 2014 में 2226 और 2018 में 2967 हो गई। हालांकि बाघों की बढ़ी संख्या का यह आंकड़ा अभी संतोषजनक नहीं है क्योंकि इसी देश में कभी बाघों की संख्या करीब 40 हजार हुआ करती थी।

सरकारी योजनाओं की सफलता का ही असर है कि आईयूसीन द्वारा शेर जैसी पूंछवाले बंदरों की संख्या बढ़ने के कारण इन्हें 25 लुप्तप्रायः जानवरों की सूची से हटा दिया गया है। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार 2011 में भारत में जानवरों की 193 नई प्रजातियां भी पाई गई।

माना कि धरती पर मानव की बढ़ती जरूरतों और सुविधाओं की पूर्ति के लिए विकास आवश्यक है लेकिन यह हमें ही तय करना होगा कि विकास के इस दौर में पर्यावरण तथा जीव-जंतुओं के लिए खतरा उत्पन्न न हो। अगर विकास के नाम पर वनों की बड़े पैमाने पर कटाई के साथ-साथ जीव-जंतुओं तथा पक्षियों से उनके आवास छीने जाते रहे और ये प्रजातियां धीरे-धीरे धरती से एक-एक कर लुप्त होती गई तो भविष्य में उससे उत्पन्न होने वाली भयावह समस्याओं और खतरों का सामना हमें ही करना होगा। बढ़ती आबादी तथा जंगलों के तेजी से होते शहरीकरण ने मनुष्य को इस कदर स्वार्थी बना दिया है कि वह प्रकृति प्रदत्त उन साधनों के स्रोतों को भूल चुका है, जिनके बिना उसका जीवन ही असंभव है।

यह भी पढ़ेंः-मन की बात में जल संरक्षण का समर्थन

आज अगर खेतों में कीटों को मारकर खाने वाले चिडि़या, मोर, तीतर, बटेर, कौआ, बाज, गिद्ध जैसे किसानों के हितैषी माने जाने वाले पक्षी भी तेजी से लुप्त होने के कगार हैं तो हमें आसानी से समझ लेना चाहिए कि हम भयावह खतरे की ओर आगे बढ़ रहे हैं और हमें अब समय रहते सचेत हो जाना चाहिए। हमें अब भली-भांति समझ लेना होगा कि पृथ्वी पर जैव विविधता को बनाए रखने के लिए सबसे जरूरी और सबसे महत्वपूर्ण यही है कि हम धरती की पर्यावरण संबंधित स्थिति के तालमेल को बनाए रखें।

योगेश कुमार गोयल

सम्बंधित खबरें
- Advertisment -spot_imgspot_img

सम्बंधित खबरें