आजादी के दीवाने : पुलिस की गोली शिकार बने थे क्रांतिवीर नलिनीकांत बागची

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कोलकाताः भारत के 75वें स्वतंत्रता दिवस की आहट के साथ ही आजादी के संग्राम में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले वीरों की गाथाएं याद आने लगती हैं। आजादी की लड़ाई में तमाम नामी लोगों को याद किया जाता है, लेकिन इनके अलावा तमाम ऐसे वीरों के भी नाम हैं, जिन्हें इतिहास में कभी महत्व नहीं दिया गया। ऐसा ही एक नाम है नलिनी कांत बागची का। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ इनकी क्रांति का जज्बा ऐसा था कि शरीर में जहर फैल गया, आंखों से साफ दिखना बंद हो गया लेकिन इनकी बंदूकों से गोलियां चलनी बंद नहीं हुईं। सैकड़ों अंग्रेज सिपाहियों के बीच खड़े थे लेकिन लगातार फायरिंग करते रहे और दर्जनों गोरों को मौत के घाट उतार कर आखिरकार मां भारती की वेदी पर अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया।

पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में 1896 को जन्मे नलिनी कांत बागची को 1918 की क्रांति के लिए याद किया जाता है। बंगाल क्रान्तिकारियों का गढ़ था। इसी से घबराकर अंग्रेजों ने राजधानी कोलकाता से हटाकर दिल्ली में स्थापित की थी। इन्हीं क्रांतिकारियों में एक नलिनी कान्त बागची भी देश की आजादी के लिए अपनी जान हथेली पर लिये रहते थे। एक बार बागची अपने साथियों के साथ गुवाहाटी के एक मकान में रह रहे थे। सब लोग सारी रात बारी-बारी जागते थे, क्योंकि पुलिस उनके पीछे पड़ी थी। एक बार रात में पुलिस ने मकान को घेर लिया। जो क्रान्तिकारी जाग रहा था, उसने सबको जगाकर सावधान कर दिया। सबने निश्चय किया कि पुलिस के मोर्चा संभालने से पहले ही उन पर हमला कर दिया जाये। निश्चय करते ही सभी गोलीवर्षा करते हुए पुलिस पर टूट पड़े। अचानक हमला होने से पुलिस वाले हक्के बक्के रह गये। वे अपनी जान बचाने के लिए छिपने लगे। इसका लाभ उठाकर क्रान्तिकारी वहां से भाग गये और जंगल में जा पहुंचे।

वहां भूखे प्यासे कई दिन तक वे छिपते रहे, पर पुलिस उनका पीछा करती रही। जैसे तैसे तीन दिन बाद उन्होंने भोजन का प्रबन्ध किया। वे भोजन करने बैठे ही थे कि पहले से बहुत अधिक संख्या में पुलिस बल ने उन्हें घेर लिया। वे समझ गये कि भोजन आज भी उनके भाग्य में नहीं है। सभी भोजन को छोड़कर फिर भागे, पर पुलिस ने उन्हें घेर लिया। मुठभेड़ में तीन क्रान्तिकारी मारे गये और तीन बच कर भाग निकले। उनमें बागची भी थे। भूख के मारे उनकी हालत खराब थी। फिर भी वे तीन दिन तक जंगल में ही भागते रहे। इस दौरान एक जंगली कीड़ा उनके शरीर से चिपक गया। उसका जहर भी उनके शरीर में फैलने लगा। फिर भी वे किसी तरह हावड़ा पहुंच गये। हावड़ा स्टेशन के बाहर एक पेड़ के नीचे वे बेहोश होकर गिर पड़े। सौभाग्यवश नलिनीकान्त का एक पुराना मित्र उधर से निकल रहा था। वह उन्हें उठाकर अपने घर ले गया। कुछ दिन में नलिनी ठीक हो गये। ठीक होने पर नलिनी मित्र से विदा लेकर कुछ समय अपना हुलिया बदलकर बिहार में छिपे रहे।

चुप बैठना उनके स्वभाव में नहीं था। अतः वे अपने साथी तारिणी प्रसन्न मजूमदार के पास ढाका आ गये। लेकिन ब्रिटिश पुलिस जिसमें निचले स्तर पर सिर्फ वेतन और मेडल के लालच में लड़ने वाले तथाकथित भारतीय भरे पड़े थे। 15 जून 1918 को हिंदुस्तानी सिपाहियों से भरी ब्रिटिश पुलिस ने उस मकान को भी घेर लिया, जहां से वे अपनी राष्ट्रहित की गतिविधियां चला रहे थे। उस समय तीन क्रान्तिकारी वहां थे। दोनों ओर से गोलीबारी शुरू हो गयी। पास के मकान से दो पुलिस वालों ने इधर घुसने का प्रयास किया, पर क्रान्तिवीरों की गोली से दोनों घायल हो गये। क्रान्तिकारियों के पास सामग्री बहुत कम थी, अतः तीनों दरवाजा खोलकर गोली चलाते हुए बाहर भागे। नलिनी की गोली से पुलिस अधिकारी का टोप उड़ गया था लेकिन उनकी संख्या बहुत अधिक थी। अन्ततः नलिनी गोली से घायल होकर गिर पड़े। ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और बग्घी में डालकर अस्पताल ले गये। लेकिन अगले दिन 16 जून, 1918 को नलिनीकान्त बागची ने दम तोड़ दिया।

नलिनी कांत का बचपन बिहार के पटना और भागलपुर में बीता था जहां से उन्होंने क्रांति की मशाल जलाई थी। अंतिम बार जब अंग्रेजों से उनकी मुठभेड़ हुई तब उन्होंने चैतन्य दे नाम के व्यक्ति के घर में शरण ली थी। नलिनी की मौत के बाद पुलिस ने चैतन्य को धर दबोचा और उन्हें 10 साल तक जेल में बंद रखा। पश्चिम बंगाल सरकार ने इस वीर शहीद की याद में मुर्शिदाबाद के बरहमपुर में एक सड़क का नाम उन्हीं के नाम पर रखा है। इसके अलावा बरहमपुर-जालंगी के बीच राज्य सड़क पर एक ब्रिज भी बनाया गया है जिसका नाम नलिनी कांत बागची के नाम पर रखा गया है।

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