सर्वोच्च न्यायालय के सवाल का आखिर कौन देगा जवाब

सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से पूछा है कि कोरोना से निपटने की उसकी राष्ट्रीय कार्य योजना क्या है? क्या टीकाकरण ही अंतिम विकल्प है? यह सवाल देश की सर्वोच्च अदालत ने भले ही किए हैं लेकिन ये सवाल पूरे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। हर आदमी यही जानना चाहता है कि सरकार टीकाकरण तक ही सीमित रहेगी या कोई प्रभावी औषधि भी बनाएगी। कोरोना देश के समूचे स्वास्थ्य तंत्र को चुनौती दे रहा है। वैज्ञानिकों और चिकित्सकों को चुनौती दे रहा है। पूरी दुनिया को अब यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति तत्काल राहत के लिए तो ठीक है लेकिन वह किसी भी रोग का स्थायी निदान नहीं है।

भारतीय चिकित्सा पद्धति ज्यादा मुफीद है। महर्षि सुश्रुत ने अपने गुरु से कहा था कि कोई ऐसा पौधा नहीं, कोई ऐसा पेड़ या वनस्पति नहीं जो किसी न किसी औषधीय गुण से युक्त न हो। जिस देश को अपने औषधीय वानस्पतिक ज्ञान से मृत व्यक्ति को भी जीवित कर देने की सामर्थ्य थी, जिसने पूरी दुनिया को चिकित्सा का ज्ञान दिया था, वह देश कोरोना के समक्ष इतना असहाय कैसे हो गया कि उसकी सबसे बड़ी अदालत को उससे यह पूछना पड़ रहा है कि हम टीका ही लगा सकते हैं या कुछ और भी कर सकते हैं। इस सवाल का जवाब सरकार ही नहीं, चिकित्सा वैज्ञानिकों को भी देना पड़ेगा कि कोरोना रोधी एक अदद औषधि का निर्माण क्यों नहीं कर सके? जिस रोग को गिलोय, अदरक, तुलसी, काली मिर्च, लौंग और शहद से ठीक किया जा सकता है। दूध और हल्दी के सेवन से दूर किया जा सकता है, उसके लिए अरबों-खरबों खर्च करने के बाद भी अगर सरकार आलोचनाओं के घेरे है तो इसकी वजह तलाशी जानी चाहिए। टीका रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है लेकिन वह कोरोना वायरस को मार नहीं सकता लेकिन काली मिर्च, शहद और अदरक के कुछ दिनों के सेवन से कोरोना को हराया जा सकता है। जरूरत सभी चिकित्सा पद्धति को अवसर देने और कठिन परिस्थितियों में उनकी सेवा लेने की है।

एक अध्ययन यह भी कहता है कि शारीरिक गतिविधियों से कोरोना को हराया जा सकता है। भारत में योग और व्यायाम की परम्परा बहुत पुरानी है। गांव-गांव हनुमान मंदिर और मल्लशालाएं हुआ करती थी। जहां लोग सुबह-शाम दंड-बैठक किया करते थे। उस समय कोई रोगी नहीं होता था क्योंकि लोग युक्ताहार विहार का पालन करते थे। इस आधुनिक दौर में व्यक्ति श्रमशील तो रहा नहीं, योग और प्राणायाम से उसने कब का नाता तोड़ लिया है। खान-पान भी उसका दूषित हुआ है। योगाचार्यों, आयुर्वेदाचार्यों को आगे बढ़कर देश का मार्गदर्शन करना चाहिए। ऑक्सीजन की वातावरण में कहीं कोई कमी नहीं है।अपनी जीवन शैली में सामान्य परिवर्तन कर अपने फेफड़ों को इतना मजबूत तो रखा ही जा सकता है कि उन्हें ऑक्सीजन और वेंटिलेटर की जरूरत ही न पड़े।

कोरोना की पहली लहर पर इस देश ने जिस संयम और अनुशासन से विजय हासिल की थी, अगर उसे हल्के में न लिया गया होता तो कदाचित हालात इतने गंभीर न होते । यह किसी से छिपा नहीं है कि लॉकडाउन हटने के बाद मदिरालयों पर कितनी भीड़ उमड़ी थी। दिल्ली में तो लॉकडाउन का अंदेशा होते ही लोगों ने कोरोना की चिंता से मुक्ति पा ली थी। मदिरालयों पर लोग विजयी भाव में जम गए थे । लोग यह जानते हुए कि संक्रमण खतरनाक होता है, सामाजिक दूरी और मास्क जरूरी की अपील की अवहेलना करते नजर आ रहे हैं। इसे जान बूझकर अपने प्राणों को संकट में डालना नहीं तो और क्या कहा जाएगा।

सरकार पर स्वास्थ्य तंत्र की विफलता का आरोप गलत नहीं है लेकिन अपने को स्वस्थ रखने की कसौटी पर हम भारतवासी कितने खरे उतरे हैं। जिस तरह टीकाकरण इस समस्या का स्थानीय निदान नहीं है, उसी तरह लॉकडाउन भी अंतिम विकल्प नहीं है। जीवन और जीविका दोनों ही चलती रहनी चाहिए। धन से कमजोर व्यक्ति मन और तन से भी कमजोर हो जाता है। उसी तरह मन से कमजोर व्यक्ति तन और धन दोनों से कमजोर हो जाता है। तभी तो तन, मन और धन तीनों से कार्य करने की बात कही जाती है। केंद्र सरकार की आलोचना इस बात के लिए की जाती है कि उसने पड़ोसी देशों को टीके भेजे लेकिन आज जब वही देश भारत को वेंटिलेटर, ऑक्सीजन भेज रहे हैं, कोई तकनीकी सहयोग कर रहा है तो कोई आर्थिक सहयोग तो विरोधियों का मुंह बंद होना स्वाभाविक है। ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, जापान, दुबई आदि देशों के सहयोग को वसुधैव कुटुम्बकम की भावना के विस्तार के रूप में देखा जाना चाहिए।

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देश में एक ओर तो जरूरतमंदों को अस्पतालों में बेड नहीं मिल पा रहे, ऑक्सीजन और वेंटिलेटर के अभाव में लोगों की सांसों की डोर टूट रही है, वहीं कुछ लोग ऑक्सीजन और रेमडेसिविर की कालाबाजारी कर आपदा में अवसर तलाश रहे हैं। यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है। सरकार अपने स्तर पर देश और देश के बाहर से ऑक्सीजन लाने के प्रयास कर रही है। ऑक्सीजन और रेमडेसिविर जरूरतमंदों को ही मिले, इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। साथ ही इस समस्या से निपटने के अन्य विकल्प भी तलाशे जाने चाहिए न केवल सरकार के स्तर पर बल्कि आम जन के स्तर पर भी। सरकार लोगों को सुविधा पहुंचने के ढेरों दरवाजे खोल रही है। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम खुद को कितना सचेत पाते हैं। सरकार सुविधाएं दे सकती है, स्वस्थ रहना और उसके लिए अनवरत प्रयास करना तो हम देशवासियों की ही जिम्मेदारी है।

सियाराम पांडेय ‘शांत’