दम तोड़ रहा है जरियागढ़ का परंपरागत कांसा बर्तन उद्योग, पेशे से विमुख हो रही है नयी पीढ़ी

बर्तन
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रांचीः पिछले लगभग एक सदी से चल रहा झारखंड के जरियागढ़ का परंपरागत कांसा बर्तन घरेलू उद्योग आवश्यक संरक्षण और पूंजी तथा समुचित बाजार के अभाव में दम तोड़ रहा है। आज तक न तो इस ओर सरकार का ध्यान गया और न ही प्रशासन का। परिणाम हुआ कि परंपरागत बर्तन कारीगर अपने पेशे से विमुख होते गये और सैकड़ों लोग रोजगार की तलाश में अपना पुश्तैनी पेशा त्याग कर बाहर चले गये। पहले जब स्टील नहीं था, तब लोग इन्हीं धातुओं की थाली में भोजन करते थे, लेकिन स्टील के चलन में आने के बाद अब इनकी थालियों का उपयोग विवाह के दौरान ही किया जाता है।

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खूंटी जिले के कर्रा प्रखंड का जरियागढ़ एक प्रमुख गांव है। पहले जरियागढ़ छोटानागपुर की एक रियासत थी। इसे जरियागढ़ स्टेट कहा जाता था। लगभग सौ साल पहले ओड़िशा से बर्तन कारीगरों के कई परिवार जरियागढ़ में बस गये। ये कारीगर कांसा बर्तनों का निर्माण करते हैं। कांसे की थाली, कटोरी, घंट और घंटा का निर्माण यहां होता है। आज भी लगभग 60 -70 परिवार कांसा बर्तन निर्माण के पुश्तैनी धंधे से जुड़े हैं। बर्तन बनाने वाले इन कारीगरों को कसेरा या कसगढ़िया अथवा ठठेरा कहा जाता है।

हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी दो जून की रोटी जुटा नहीं पाते कारीगर

गांव के बुर्जुग कारीगर हरि साहू और बलराम साहू बताते हैं कि हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी वे परिवार के लिए दो जून की रोटी ढंग से जुटा नहीं पाते। यही कारण है कि आज की युवा पीढ़ी अपने परंपरागत पेशे से हटकर दूसरे व्यवसाय को अपना रही है। बलराम साहू कहते हैं कि हर रोज रात एक बजे से बर्तन निर्माण का काम शुरू होता है। बर्तन बनाने के लिए कम से कम पांच कारीगरों की जरूरत होती है। पांच व्यक्ति के मिले बिना बर्तन निर्माण हो ही नहीं सकता। कसेरा कारीगर मजदूरी पर दूसरे लोगों के यहां काम करते हैं। बर्तन बनाने का सिलसिला रात एक बजे से सुबह नौ बजे तक चलता है। उसके बाद कारीगर तैयार होकर बर्तन की गठरी पीठ पर या साइकिल पर लाद कर उन्हें बेचने के लिए निकल जाते हैं। इसे भौंरी घुमाना या फेरी कहते हैं।

सौ साल में भी नहीं बदली गांव की सूरत

झारखंड का जरियागढ़ बर्तन उद्योग के लिए जाना जाता है। जरियागढ़ में कांसा बर्तन का घरेलू उद्योग लगभग सौ सालों से चल रहा है। कारीगर बताते हैं कि दिन भर की मेहनत के बाद मुश्किल से तीन सौ रुपये की कमाई हो पाती है। वैसे भी कांसा की बढ़ती कीमत के कारण इसकी मांग लगातार घट रही है। बड़े- बड़े उद्योगों में बनने वाले कांसा, पीतल, स्टील आदि के बाजार ने कांसा के घरेलू उद्योग की कमर ही तोड़ दी है। इसके बाद भी भुखमरी से बचने के लिए वे अपने पुश्तैनी धंधे से जुड़े हुए हैं। यहां आज भी जरियागढ़ के कसगढ़िया टोली में सौ से अधिक परिवार रहता है, पर एक दो लोगों को छोड़कर किसी कारीगर का पक्का मकान नहीं है। घरों की स्थिति देखकर ही अंदाजा हो जाता है कि सौ साल में भी न गांव की सूरत बदली और न ही कसेरा परिवार के जीवन स्तर में सुधार आया।

कारीगर कृष्ण महाराणा कहते हैं कि कुंभकार से लेकर दोना-पत्तल बनाने वालों तक को आधुनिक मशीनें दी गयीं, पर कांसा बर्तन निर्माण की समस्याओं की ओर किसी का ध्यान नहीं दिया गया।आज भी कांसा की थाली, कटोरी, घंट आदि का निर्माण पुराने परंपरागत तरीके से होता है। बर्तन निर्माण की नयी तकनीक की जानकारी और प्रशिक्षण कभी इन कारीगरों को नहीं दिया जाता। कारीगर शांतनु साहू, गोखुल साहू, रधणीर साहू, मेघनाथ साहू जैसे कारीगर कहते हैं कि यदि कांसा बर्तन के घरेलू उद्योग को संरक्षण और सहायता नहीं दी गयी, तो वह दिन दूर नहीं जब यह पेशा हमेशा के लिए खत्म हो जायेगा।

कसेरा जाति के किसी व्यक्ति को नहीं मिली सरकारी नौकरी

जरियागढ़ के कसगढ़िया टोली में रहने वाले कसेरा जाति के लोगों की आबादी लगभग पांच सौ है। इसके बाद भी आज तक कसेरा जाति के किसी भी व्यक्ति को सरकारी नौकरी नहीं मिली। लोगों का आरोप है कि कसेरा जाति के उपनाम अलग-अलग होने से उन्हें जाति प्रमाणपत्र बनवाने में भी काफी कठिनाई होती है। इसको लेकर कई बार विधायकों और सांसदों को ज्ञापन सौंपा गया, पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।

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