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क्रांति का गवाह है कानपुर का बूढ़ा बरगद, जहां 133 देशभक्तों को अंग्रेजों ने दी थी फांसी

कानपुरः 15 अगस्त को भारत देश की आजादी के 75 वर्ष पूरे हो जाएंगे। इस अवसर पर केंद्र सरकार की पहल पर पूरे देश में आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। देश को आजाद करने में चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, मंगल पाण्डेय और हजारों क्रांतिकारियों ने हंसते-हंसते अपने प्राणों को मां भारती के चरणों में समर्पित कर दिया था। दरअसल 1857 से 1947 तक स्वतंत्रता के लिए चल रही क्रांति में कान्हापुर जो आज उद्योग नगरी कानपुर के नाम से जाना जाता है, अहम योगदान रहा है। कानपुर में आज भी कई ऐसे स्थान हैं, जो स्वतंत्रता संग्राम के समय की याद दिलाते हैं। उन्हीं में से एक है कानपुर का बूढ़ा बरगद, जहां पर अब शहीद स्थल बना दिया गया है। इस बूढ़े बरगद की टहनियों से 133 देशभक्तों को अंग्रेजों ने फांसी के फंदे से लटका दिया था। इसी शहादत स्थल पर एक शिलापट पर उस बूढ़े बरगद की दास्तां उकेरी गई है, जो इन देशभक्तों की शहादत का आज भी गवाह बना हुआ है।

कानपुर सेंट्रल स्टेशन से करीब ढाई किलोमीटर दूर नाना राव पार्क में एक बूढ़ा बरगद था, जो सन 1857 से 1947 की दास्ता बयां कर रहा है। यह बूढ़ा बरगद आज से करीब आठ साल पहले आंधी तूफान में टूटकर गिर गया था, लेकिन आज भी उसकी तने से उपजा पौधा अपने पुरखों की यादों को संजोए रखा है और वह उन 133 लोगों की शहादत को याद दिलाता है जिन्हें अंग्रेजों ने उस बूढ़े बरगद की टहनियों से लटकाकर मार डाला था। शहादत स्थल पर लगे शिलापट पर जो शब्द लिखे हैं, उसे पढ़ने वालों के आंख में आज भी आंसू और रौंगटे खड़े हो जाते हैं।

अंग्रेजों ने 133 देशभक्तों को बरगद की टहनियों से लटकाया
‘‘आखिर क्यों जानना चाहते हो मेरे बारे में? अगर इसकी गहराई और अंग्रेजों द्वारा देशभक्तों पर उठाये गए जुल्म की कहानी जो शिलापट पर लिखी है इसे पढ़ेंगे तो आपको भारतवासी होने का गर्व महसूस होगा। सुनों, मैं केवल जड़, तना व पत्तियों युक्त वटवृक्ष नहीं बल्कि गुलाम भारत से आज तक के इतिहास का साक्षी हूं। मैंने अनगिनत बसंत देखे व पतझड़ देखे है। चार जून 1857 का वह दिन भी जब मेरठ से सुलगती आजादी की चिंगारी कानपुर भी शोला बन गई। मैंने नाना साहब की अगुवाई में तात्याटोपे की वीरता देखी,रानी लक्ष्मी बाई का बलिदान देखा और देखी अजीमुल्ला खां की शहादत, वह दिन भी याद है, जब बैरकपुर छावनी में मेरे सहोदर पर लटकाकर क्रांति के अग्रदूत मंगल पाण्डेय को फांसी दी गई थी, जिससे देशवासी दहल उठे। वह दिल दहलाने वाला दिन आज भी नहीं भूल पाता जब 133 देशभक्तों को अंग्रेजों ने मेरी शाखाओं पर फांसी के फंदे पर लटकाया था। उस दिन मैं बहुत चीखा और चिल्लाया, चीखते-चीखते गला रुंध गया। आंखों के आंसू रो-रोकर सूख गये।

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कम्पनी बाग से बदलकर हुआ नाना राव पार्क
कानपुरवासी आज भी कम्पनी बाग को कंपनी बाग ही कहते हैं, लेकिन सरकारी दस्तावेज में नाम बदल चुका है। नया नाम है नानाराव पार्क। यह नाम उन्हीं नानाराव के नाम पर रखा गया है, जिन्होंने कानपुर में क्रांति की ज्वाला से अंग्रेजों को झुलसाया था। जिनके इशारे पर सत्तीचैरा कांड और बीबीघर कांड हुआ था।

कानपुर से रची गई काकोरी कांड की योजना
देश को आजादी दिलाने के लिए कानपुर में कई योजनाएं बनी हैं। इसमें एक योजना काकोरी कांड भी शामिल है। इतिहास के जानकार बताते हैं कि नौ अगस्त 1925 को हुए काकोरीकांड की योजना डीएवी हॉस्टल से रची गई थी। काकोरी कांड से पहले से दस दिन पहले चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, अशफाक उल्ला खां, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी समेत कई क्रांतिकारी दयानंद एंग्लोवैदिक (डीएवी) हॉस्टल पहुंच गए थे। इन क्रांतिकारियों के लिए पनाहगार बना डीएवी कॉलेज आज भी इतिहास के पन्नों में पढ़ा जा सकता है।

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