गर्मियों के शुरू होने के साथ ही देश के राष्ट्रीय अभ्यारणयों मे दावानल की घटनाएं देखने में आने लगी हैं। चार अभ्यारणयों में सैंकड़ों हेक्टेयर वन जलकर खाक हो गए। कितने वन्य जीव हताहत हुए, यह अभी साफ नहीं है, लेकिन बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान में लगी आग से बचने के लिए बाघों ने घर बदलना शुरू कर दिया है। इसी फेर में एक बाघ ने बाघिन को मार दिया। उद्यान प्रबंधन इस मौत को आपसी संघर्ष की वजह बताकर पल्ला झाड़ रहा है। लेकिन यह संघर्ष एक बाघ के दूसरे बाघ के क्षेत्र में अतिक्रमण करने से छिड़ा था। मध्य-प्रदेश के पन्ना और माधव राष्ट्रीय उद्यान में भी आग की घटनाएं सामने आई है। यही हाल उत्तर-प्रदेश के दुधवा और ओड़िसा के सिमलीपाल नेशनल पार्क का हुआ है। आग लगने के बाद देखने में आया कि वन अमले ने आग न लगे ऐसे पूर्व में कोई उपाय किए ही नहीं थे। आग बुझाने के संसाधन भी देखने में नहीं आए। साफ है, ये घटनाएं वन अमले की लापरवाही का नतीजा है। भारतीय वन सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के अनुसार नवंबर 2020 से जनवरी 2021 तक जंगल में आग की 2984 घटनाएं सामने आ चुकी हैं। इनमें से सबसे ज्यादा 470 उत्तराखंड में दर्ज की गई हैं। यहां फरवरी माह से ही जंगलों में आग सुलग रही है। इस अध्ययन रिपोर्ट से पता चला है कि 95 फीसद आग इंसानी लापरवाही से लगी है।
यूं तो जंगल में आग लगना सामान्य घटना है। लेकिन इसबार करीब दो माह से किसी न किसी जंगल में आग सुलग रही है। दुधवा नेशनल पार्क के किशनपुर क्षेत्र में लगी आग से करीब 100 हेक्टेयर से ज्यादा वन संपदा जलकर राख हो गई है। आशंका है कि वन्य जीव भी चपेट में आ गए हैं। इस आग से जंगल की सीमा पर बसे गांव कटैया, कांप व टांडा डरे हुए हैं। पिछले साल जून में भी इसी क्षेत्र में भीषण आग लगी थी। नतीजतन 70 हेक्टेयर के करीब जंगल राख में तब्दील हो गया था। दुधवा के जंगलों का विस्तार ही पन्ना टाइगर रिर्जव तक है। यहां के जंगलों में आग लगे हुए एक पखवाड़ा बीत चुका है। उत्तर वनमंडल क्षेत्र में आने वाले जंगल में लगी आग बुझाने में वन विभाग का अमला विफल रहा है। इसमें करीब 750 वर्ग किमी क्षेत्र आता है, जबकि 1500 वर्ग किमी का क्षेत्र दक्षिण वनमंडल का है। वहीं, 1500 वर्ग किमी का इलाका पन्ना टाइगर रिर्जव के अंतर्गत है। इसी में कोर एवं बफर क्षेत्र हैं। यह आग अब पन्ना शहर से सटे जंगलों में फैलने लगी है।
उत्तराखंड का भौगोलिक क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किलोमीटर है। इसमें 64.79 प्रतिशत, यानी 34,651.014 वर्ग किमी वन क्षेत्र हैं। इनमें से 24414408 वर्ग किमी क्षेत्र वन विभाग के अधीन हैं। इसमें से करीब 24260.783 वर्ग किमी क्षेत्र आरक्षित वनों की श्रेणी में हैं। शेष 39.653 वर्ग किमी जंगल वन पंचायतों के नियंत्रण में हैं। आरक्षित वनों में से 394383.84 हेक्टेयर भूमि में चीड़ के जंगल हैं और 383088.12 हेक्टेयर बांस एवं शाल के वन हैं। वहीं 614361 हेक्टेयर में मिश्रित वन हैं। लगभग 22.17 फीसदी वन क्षेत्र खाली पड़ा है। चीड़ के जंगल और लैंटाना की झाड़ियां इस आग को फैलाने में सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। दरअसल चीड़ के पत्तों में एक विशेष किस्म का ज्वनलशील पदार्थ होता है। इसकी पत्तियां पतझड़ के मौसम में आग में घी का काम करती हैं। गर्मियों में पत्तियां जब सूख जाती हैं तो इनकी ज्वलनशीलता और बढ़ जाती है। इसी तरह लैंटाना जैसी विषाक्त झाड़ियां आग को भड़काने का काम करती हैं। करीब 40 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र में ये झाड़ियां फैली हुई हैं। इस बार इन पत्तियों का भयावह दावाग्नि में बदलने के कारणों में वर्षा की कमी, जाड़ों का कम पड़ना, गर्मियों का जल्दी आना और तिस पर भी शुरूआत में ही तापमान का बढ़ जाना। इन वजहों से यहां पतझड़ की मात्रा बढ़ी,उसी अनुपात में मिट्टी की नमी घटती चली गई। ये ऐसे प्राकृतिक संकेत थे, जिन्हें वनाधिकारियों को समझने की जरूरत थी। बावजूद विडंबना यह रही कि जब वनखंडों में आग लगने की शुरूआत हुई तो नीचे के वन अमले से लेकर आला अधिकारियों तक ने इसे गंभीरता से नहीं लिया।
वैसे चीड़ और लैंटाना भारतीय मूल के पेड़ नहीं हैं। भारत आए अंग्रेजों ने जब पहाड़ों पर आशियाने बनाए, तब उन्हें बर्फ से आच्छादित पहाड़ियां अच्छी नहीं लगीं। इसलिए वे ब्रिटेन के बर्फीले क्षेत्र में उगने वाले पेड़ चीड़ की प्रजाति के पौधों को भारत ले आए और बर्फीली पहाड़ियों के बीच खाली पड़ी भूमि में रोप दिए। इन पेड़ों को जंगली जीव व मवेशी नहीं खाते हैं, इसलिए अनुकूल प्राकृतिक वातावरण पाकर ये तेजी से फलने-फूलने लगे। इसी तरह लैंटाना भारत के दलदली और बंजर भूमि में पौधारोपण के लिए लाया गया था। यह विषैला पेड़ भारत के किसी काम तो नहीं आया, लेकिन देश की लाखों हेक्टेयर भूमि में फैलकर, लाखों हेक्टेयर उपजाऊ भूमि जरूर लील ली। ये दोनों प्रजातियां ऐसी हैं, जो अपनी छाया में किसी अन्य पेड़-पौधे को पनपने नहीं देती हैं। चीड़ की एक खासियत यह भी है कि जब इसमें आग लगती है तो इसकी पत्तियां ही नष्ट होती हैं। तना और डालियों को ज्यादा नुकसान नहीं होता है। पानी बरसने पर ये फिर से हरे हो जाते हैं। कमोबेश यही स्थिति लैंटाना की रहती है। चीड़ और लैंटाना को उत्तराखंड से निर्मूल करने की दृष्टि से कई मर्तबा सामाजिक संगठन आंदोलन कर चुके हैं, लेकिन सार्थक नतीजे नहीं निकले। अलबत्ता इनके पत्तों से लगी आग से बचने के लिए चमोली जिले के उपरेवल गांव के लोगों ने जरूर चीड़ के पेड़ की जगह हिमालयी मूल के पेड़ लगाने शुरू कर दिए। जब ये पेड़ बड़े हो गए तो इस गांव में 20 साल से आग नहीं लगी। इसके बाद करीब एक सैंकड़ा से भी अधिक ग्रामवासियों ने इसी देशज तरीके को अपना लिया। इन पेड़ों में पीपल, देवदार, अखरोट और काफल के वृक्ष लगाए गए हैं। यदि वन-अमला ग्रामीणें के साथ मिलकर ऐसे उपाय करता तो आज उत्तराखंड के जंगलों की यह दुर्दशा देखने में नहीं आती।
जंगल में आग लगने के कई कारण होते हैं। जब पहाड़ियां तपिश के चलते शुष्क हो जाती हैं और चट्टानें भी खिसकने लगती हैं, तो अक्सर घर्षण से आग लग जाती है। तेज हवाएं चलने पर जब बांस परस्पर टकराते हैं तो इस टकराव से पैदा होने वाले घर्षण से भी आग लग जाती है। बिजली गिरना भी आग लगने के कारणों में शामिल है। ये कारण प्राकृतिक हैं, इन पर विराम लगाना नामुमकिन है। किंतु मानव-जनित जिन कारणों से आग लगती है, वे खतरनाक हैं। इसमें वन-संपदा के दोहन से अटाटूट मुनाफा कमाने की होड़ शामिल है। भू-माफिया, लकड़ी माफिया और भ्रष्ट अधिकारियों के गठजोड़ की तिकड़ी इस करोबार को फलने-फूलने में सहायक बनी हुई है। राज्य सरकारों ने आजकल विकास का पैमाना भी आर्थिक उपलब्धि को माना हुआ है, इसलिए सरकारें पर्यावरणीय क्षति को नजरअंदाज करती हैं। आग लगने की मानवजन्य अन्य वजहों में बीड़ी-सिगरेट भी हैं, तो कभी शरारती तत्व भी आग लगा देते हैं। कभी ग्रामीण पालतू पशुओं के चारे के लिए सूखी व कड़ी पड़ चुकी घास में आग लगाते हैं। ऐसा करने से धरती में जहां-जहां नमी होती है, वहां-वहां घास की नूतन कोंपलें फूटने लगती हैं। जो मवेशियों के लिए पौष्टिक आहार का काम करती हैं। पर्यटन वाहनों के साइलेंसरों से निकली चिंगारी भी आग की वजह बनती है।
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आग से बचने के कारगर उपायों में पतझड़ के दिनों में टूटकर गिर जाने वाले जो पत्ते और टहनियां आग के कारक बनते हैं, उन्हें जैविक खाद में बदलने के उपाय किए जाएं। केंद्रीय हिमालय में 2.1 से लेकर 3.8 टन प्रति हेक्टेयर पतझड़ होता है। इसमें 82 प्रतिशत सूखी पत्तियां और बांंकी टहनियां होती हैं। जंगलों पर वन विभाग का अधिकार प्राप्त होने से पहले तक ज्ञान परंपरा के अनुसार ग्रामीण इस पतझड़ से जैविक खाद बना लिया करते थे। यह पतझड़ मवेशियों के बिछौने के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता था। मवेशियों के मल-मूत्र से यह पतझड़ उत्तम किस्म की खाद में बदल जाता था। किंतु अव्यावहारिक वन कानूनों के वजूद में आने से वनोपज पर स्थानीय लोगों का अधिकार खत्म हो गया। स्थानीय ग्रामीण और मवेशियों का जंगल में प्रवेश वर्जित हो जाने से पतझड़ यथास्थिति में पड़ा रहकर आग का प्रमुख कारण बन रहा है।
प्रमोद भार्गव