यूं ही नहीं कोई गोस्वामी बन जाता

श्रीराम को जन-जन का राम बना देने वाले गोस्वामी तुलसीदास को जन-जन का कवि कहा जाता है। तुलसीदास को आखिर गोस्वामी क्यों कहा जाता है, यह जानना दिलचस्प है। दरअसल गोस्वामी का अर्थ है, इंद्रियों का स्वामी अर्थात जिसने अपनी इंद्रियों को वश में कर लिया हो यानी जितेन्द्रिय। तुलसीदास पत्नी के धिक्कारने पर सांसारिक मोहमाया से विरक्त होकर संन्यासी अर्थात जितेन्द्रिय या गोस्वामी हो गए थे। इसी परिप्रेक्ष्य में तुलसीदास को गोस्वामी की उपाधि से विभूषित किया जाने लगा। महान ग्रंथ ‘श्री रामचरित मानस’ के रचयिता और मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास जी की जयंती विक्रमी संवत् के अनुसार हर साल श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को मनाई जाती है, जो इस वर्ष 4 अगस्त को मनाई जा रही है। विक्रमी संवत् 1554 में उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के राजापुर में जन्मे तुलसीदास ने जीवन की मुसीबतों से हार मानने के बजाय तमाम कठिनाइयों का डटकर मुकाबला किया।

तुलसीदास का विवाह दीनबंधु पाठक की विदुषी पुत्री रत्नावली से हुआ था। तुलसीदास रत्नावली पर अत्यंत मुग्ध थे और उससे बहुत प्रेम करते थे। एक दिन की बात है, रत्नावली अपने मायके गई हुई थी लेकिन तुलसीदास को उसकी याद सता रही थी। रात का समय था, मूसलाधार बारिश हो रही थी, ऐसे मौसम में भी तुलसीदास उफनती नदी को पार कर पत्नी से मिलने देर रात उसके मायके जा पहुंचे। रत्नावली अपने पति तुलसीदास के इस कृत्य पर बहुत लज्जित हुई और ताना मारते हुए तुलसीदास को कहा कि जितना प्रेम हाड़-मांस के मेरे इस शरीर से कर रहे हो, यदि उतना ही प्रेम प्रभु श्रीराम से किया होता तो भवसागर पार हो गए होते। लज्जित अवस्था में पत्नी द्वारा मारे गए ताने ने तुलसीदास के जीवन की दिशा बदल डाली। उसके बाद उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और वे भगवान राम की भक्ति में रम गए।

उसी दौरान एक दिन स्वामी नरहरिदास उनके गांव आए, जिन्होंने तुलसीदास को दीक्षा देते हुए आगे के जीवन की राह दिखाई। उसके बाद तुलसीदास ने रामकथा में ही सुखद समाज की कल्पना करते हुए इसे आदर्श जीवन का मार्ग दिखाने का माध्यम बना लिया। गुरु नरहरिदास से शिक्षा-दीक्षा लेने के बाद ही उन्हें रामचरित मानस लिखने की प्रेरणा मिली। गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित इसी ‘रामचरित मानस’ को आज भी देशभर में एक महान ग्रंथ के रूप में बड़े ही आदर और सम्मान से साथ देखा जाता है। तुलसी ने वैसे अपने जीवनकाल में कवितावली, दोहावली, हनुमान बाहुक, पार्वती मंगल, रामलला नहछू, विनयपत्रिका, कवित्त रामायण, बरवै रामायण, वैराग्य संदीपनी इत्यादि कुल 12 पुस्तकों की रचना की किन्तु उन्हें सर्वाधिक ख्याति रामचरित मानस के जरिये ही मिली। हालांकि जब उन्होंने रामचरित मानस की रचना की थी, उस जमाने में संस्कृत भाषा का प्रभाव बहुत ज्यादा था, इसलिए आंचलिक भाषा में होने के कारण शुरुआत में इसे मान्यता नहीं मिली थी लेकिन सरल भाषा में होने के कारण कुछ ही समय बाद यह ग्रंथ जन-जन में बहुत लोकप्रिय हुआ।

गोस्वामी तुलसीदास को कुछ विद्वान सम्पूर्ण रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी मानते हैं। महर्षि वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में रचित ‘रामायण’ को आधार मानकर गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना सरल अवधी भाषा में की थी। अवधी खासकर उत्तर भारत में जनसाधारण की भाषा है, इसीलिए सरल अवधी भाषा में होने के कारण रामचरित मानस अत्यधिक प्रसिद्ध हो गई। यही कारण है कि गोस्वामी तुलसीदास को जन-जन का महाकवि और कविराज माना जाता है। वे दुनिया के पहले ऐसे कवि है, जो अपनी रचनाओं को ही अपने माता-पिता कहते थे।

रामचरित मानस के जरिये मनुष्य के संस्कार की कथा लिखकर उन्होंने इस रामकाव्य को भारतीय संस्कृति का प्राण तत्व बना दिया। तुलसीदास के अनुसार तुलसी के राम सब में रमते हैं और वे नैतिकता, मानवता, कर्म, त्याग द्वारा लोकमंगल की स्थापना करने का प्रयास करते हैं। उन्होंने रामचरित मानस को जरिया बनाकर समस्त भारतीय समाज को भगवान श्रीराम के रूप में ऐसा दर्पण दिया है, जिसके सामने हम बड़ी आसानी से अपने गुण-अवगुणों का मूल्यांकन करते हुए अपनी मर्यादा, करुणा, दया, शौर्य, साहस और त्याग का आकलन कर श्रेष्ठ इंसान बनने की ओर प्रवृत्त हो सकते हैं। रामभक्ति के पर्याय बने गोस्वामी तुलसीदास ने सत्य और परोपकार को सबसे बड़ा धर्म तथा त्याग को जीवन का मंत्र मानते हुए अपनी रचनाओं के माध्यम से असत्य, पाखंड, ढ़ोंग और अंधविश्वासों में डूबे समाज को जगाने का हरसंभव प्रयास किया।

योगेश कुमार गोयल