जब भगत सिंह ने कहा था- बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत, जानें कैसे की थी तैयारी

नई दिल्लीः क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को गांव बंगा जिला लायलपुर पंजाब (अब पाकिस्तान) में हुआ था। 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग हत्याकांड ने किशोरावस्था में भगत सिंह पर गहरा असर डाला। लाहौर के नेशनल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने देश की आजादी के लिए नौजवान भारत सभा की स्थापना की। वे महान क्रांतिकारी ही नहीं बल्कि अध्ययन, विचार और कलम के धनी भी थे। 23 साल की उम्र में फांसी के फंदे को चूमने वाले भगत सिंह का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है।

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07 अक्टूबर 1930 को सांडर्स हत्याकांड में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गयी। इन पर लाहौर के सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज अफसर जेपी सांडर्स को गोली से उड़ाने का आरोप था। इसके बाद 08 अप्रैल 1929 को दिल्ली की सेंट्रल एसेंबली में न केवल बम धमाका किया बल्कि वहां से भाग निकलने की बजाय खुद की गिरफ्तारी देकर ब्रिटिश हुकूमत के समक्ष चट्टानी हौसले का प्रदर्शन किया। केस की सुनवाई के दौरान भगत सिंह ने कहा कि सेंट्रल हॉल धमाके में उनका इरादा किसी की जान लेना नहीं बल्कि बहरी व्यवस्था को सुनाने के लिए बम धमाके की जरूरत थी।

धमके से पहले असेंबली हॉल का लिया था जायजा

उस ज़माने में काउंसिल हाउस जो कि आज का संसद भवन है, जो दिल्ली की बेहतरीन इमारतों में किया जाता था। काउंसिल हाउस में सेफ़्टी बिल पेश होने से दो दिन पहले 6 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त काउंसिल हाउस के असेंबली हॉल गए थे ताकि ये जायज़ा लिया जा सके कि पब्लिक गैलरी किस तरफ़ हैं और किस जगह से वहाँ बम फेंके जाएंगे। वो ये हर क़ीमत पर सुनिश्चित करना चाहते थे कि उनके फेंके गए बमों से किसी का नुक़सान न हो। बल्कि बहरी व्यवस्था को सुनाने के लिए बम धमाके की जरूरत थी। सिर्फ हाँलाकि ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ पास किया जा चुका था जिसमें मज़दूरों द्वारा की जाने वाली हर तरह की हड़ताल पर पाबंदी लगा दी गई थी, लेकिन ‘पब्लिक सेफ़्टी बिल’ पर अध्यक्ष विट्ठलभाई पटेल ने अभी तक अपना फ़ैसला नहीं सुनाया था। इस बिल में सरकार को संदिग्धों को बिना मुक़दमा चलाए हिरासत में रखने का अधिकार दिया जाना था।

8 अप्रैल को सेंट्रल असेंबली में किया था धमाका

8 अप्रैल, 1929 को सेंट्रल असेंबली में धमाके के बाद भी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के लिए वहां से भाग जाना मुश्किल नहीं था। लेकिन वो रुके रहे। पर्चे फेंकते रहे और क्रांतिकारी नारे लगाते रहे। मकसद देश और दुनिया को संदेश देना था, जिसमें वो पूरी तरह से सफल भी रहे थे। 4 जून को ये मुक़दमा सेशन जज लियोनार्ड मिडिलटाउन की अदालत में स्थानांतरित कर दिया गया। 6 जून को अभियुक्तों ने अपने वक्तव्य दिए। 10 जून को मुकदमा समाप्त हुआ और 12 जून को फ़ैसला सुना दिया गया। अदालत ने भगत सिंह और दत्त को जानबूझ कर विस्फोट करने का दोषी पाया जिससे लोगों की जान जा सकती थी। उन दोनों को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई।

भगत सिंह की ख्वाहिश फांसी की बजाय गोलियों से भून दिया जाए

मुकदमें के दौरान अभियोग पक्ष के गवाह सर सोभा सिंह ने गवाही दी कि उन्होंने भगत सिंह और बटुकेशवर दत्त को बम फैंकते हुए देखा था। हाँलाकि ये दोनों इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील करने के पक्ष में नहीं थे लेकिन बाद में उन्हें ऐसा करने के लिए मना लिया गया। तर्क ये दिया गया कि इससे क्राँति के संदेश का प्रचार होने में मदद मिलेगी। जैसा कि उम्मीद थी हाई कोर्ट ने 13 जनवरी 1930 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की अपील ख़ारिज कर दी और उन्हें 14 सालों के लिए जेल की सलाख़ों के पीछे भेज दिया गया। बाद में साउंडर्स की हत्या के आरोप में भगत सिंग को फाँसी पर लटका दिया हालांकि भगत सिंह की ख्वाहिश थी कि उन्हें फांसी की बजाय गोलियों से भून दिया जाए।

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