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श्री शालिग्राम पूजन महिमा

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स्कन्द पुराण के अनुसार एक समय सब देवताओं तथा भगवान् विष्णु और शिव के द्वारा पार्वती जी की इच्छा के प्रतिकूल कोई कार्य हो गया। इससे उन्होंने देवताओं को मर्त्यलोक में प्रस्तर-प्रतिमा होने का शाप दिया। उसी समय उन्होंने भगवान् विष्णु से कहा- ‘आप भी मर्त्यलोक में शिलारूप होंगे और शिवजी को भी ब्राम्हणों के शाप से लिंगाकार प्रस्तर रूप प्राप्त होगा।’ तब भगवान् विष्णु ने पार्वतीजी को प्रणाम करके कहा- ‘महाव्रते! महादेवि! आप सदैव महादेव जी की प्रिया हैं। सम्पूर्ण भूतों की जननी ! आपको नमस्कार है। आप कल्याणकारी हैं, आपको नमस्कार है।’ तब पार्वती जी ने प्रसन्न होकर कहा ‘जर्नादन! आप शिलारूप में रहकर भी योगीश्वरों को मोक्ष देने वाले होंगे। विशेषतः चातुर्मास्य में सब भक्तों की कामनाएँ पूर्ण करने वाले होंगे। ब्रम्हा जी की प्यारी पुत्री जो गण्डकी नाम वाली नदी है, वह महान जलराशि से भरी हुई और परम पुण्यदायिनी है। उसी के अन्यन्त निर्मल जल में आपका निवास होगा। पुराणों के ज्ञाता आपको चैबीस स्वरूपों में देखेंगे। आपके मुख में सुवर्ण होगा और ‘‘शालिग्राम” आपकी संज्ञा होगी। गोलाकार तेजोमय शरीर अपूर्व शोभा से युक्त होगा। उस शालिग्रामस्वरूप में आप सम्पूर्ण सामर्थ्य से युक्त होकर योगियों को भी मोक्ष देने वाले होंगे शालिग्राम-शिला में व्याप्त हुए आपका जो मनुष्य पूजन करेंगे, उन भक्तों को आप मनोवाछित सिद्धि प्रदान करेंगे। गण्डकी नदी में भगवान् विष्णु शाल शालिग्रामरूप से प्रकट होते हैं। और नर्मदा नदी में भगवान शिव नर्मदेश्वर रूप से उत्पन्न होते हैं। ये दोनों स्वयं प्रकट है, कृत्रिम नहीं।

शालिग्राम शिला में व्याप्त भगवान् विष्णु 24 भेदों से उपलब्ध होते हैं, किन्तु भगवान सदाशिव सदा एक प्रकार से ही नर्मदा से प्रकट होते हैं। जहां गण्डकी के जल में शालिग्राम शिला उपलब्ध होती है, वहां स्नान और जलपान करके मनुष्य ब्रम्ह पद को प्राप्त होता है। गण्डकी से प्रकट होने वाली शालिग्राम शिला का पूजन करके मनुष्य योगीश्वर होता है। भगवान् विष्णु पूजन, पठन, ध्यान और स्मरण करने पर समस्त पापों का नाश करने वाले हैं फिर शालिग्राम शिला में उनकी पूजा की जाय, तो उसके महत्व के विषय में क्या कहना है, क्योंकि शालिग्राम में साक्षात् श्री हरि विराजमान होते हैं। चातुर्मास्य में शालिग्रामगत भगवान् विष्णु को नैवेद्य, फल और जल अर्पण करना विशेष रूप से शुभ होता है। चातुर्मास्य में शालिग्राम शिला सबको पवित्र करती है। जहां शालिग्राम स्वरूप भगवान् विष्णु की पूजा की जाती है, वहां पांच कोस तक के भू-भाग को वे भगवान् पवित्र कर देते हैं। वहाँ कुछ अशुभ नहीं होता। जहाँ लक्ष्मीपति भगवान् शालिग्राम का पूजन होता है, वहाँ वह पूजन ही सबसे बड़ा सौभाग्य है, वही महान् तप है और वही उत्तम मोक्ष है। जहाँ दक्षिणावर्त शंख, लक्ष्मीनारायण स्वरूप शालिग्राम शिला, तुलसी का वृक्ष, कृष्णसार मृग और द्वारका की शिला (गोमतीचक्र) हो, वहाँ लक्ष्मी, विजय, विष्णु और मुक्ति- इन चारों की उपस्थिति होती है।


भगवान् लक्ष्मीनारायण (शालिग्राम) की पूजा करने वाले मनुष्य को भगवान् अति करते है, जिससे वह उसी क्षण मुक्त हो जाता है। पुण्य प्रदान भगवान् विष्णु का ध्यान पापों का नाश करने वाला है। तुलसी की मंजरियों से पूजित हुए भगवान् शालिग्राम पुनर्जन्म का नाश करने वाले हैं। सब प्रकार से यत्न करके उन्ही जगदीश्वर विष्णु का सेवन करना चाहिये। वे सम्पूर्ण संसार में व्याप्त होकर स्थित हैं। स्कन्ध पुराण के अनुसार जो मनुष्य शालिग्राम में स्थित भगवान् विष्णु का पूजन करते हैं, भक्ति उनसे दूर नहीं है। जिसका मन भगवान् शालिग्राम के चिन्तन में लगा हुआ है, उसके द्वारा जो कुछ भी शुभ कर्म किया जाता है, वह अक्षय होता है। चातुर्मास्य में इसका विशेष महात्म्य है। जहाँ शालिग्राम-शिला और द्वारका की शिला दोनों का संगम हो, वहाँ मनुश्य के लिये मुक्ति दुर्लभ नहीं है जिस भूमि में सैकड़ों पापों से युक्त मनुष्यों द्वारा भी शालिग्राम की शिला पूजी जाती है, वहाँ यह शिला पांच कोस तक के प्रदेश को पवित्र करती है। यह शालिग्रामशिला तेजोमय पिण्ड है, साक्षात् ब्रह्मस्वरूप है। इसके दर्शनमात्र से भी तत्काल सब पापों का नाश हो जाता है।

शालिग्राम शिला की उपस्थिति से सब तीर्थ और देव मन्दिर पवित्र हो जाते हैं तथा समस्त नदियां तीर्थत्व को प्राप्त होती हैं। शालिग्राम शिला की सन्निधिमात्र से सर्वत्र सम्पूर्ण क्रियाएं शोभन होती हैं। जिसके घर में शुभ शालिग्राम शिला का कोमल तुलसी दलों द्वारा पूजन होता है, वहाँ यमराज अपना मुंह नहीं दिखाते। ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य तथा सद् शूद्रों को भी शालिग्राम शिला के पूजन का अधिकार है। शूद्रों में केवल असत् नास्तिक शूद्र के लिये शालिग्राम शिला का पूजन निषेध है। स्त्रियों में भी पवित्रता के लिये उसके पूजन को निषेध नहीं किया गया है। जो शालिग्राम शिला के ऊपर चढ़ायी हुई माला अपने मस्तक पर धारण करते हैं, उनके सहस्त्रों पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। जो शालिग्राम शिला के आगे दीपदान करते हैं, उनका कभी यमपुर में निवास नहीं होता। जो शालिग्राम में व्याप्त भगवान् विष्णु की मनोहर पुष्पों द्वारा पूजा करते हैं तथा जो भगवान् विष्णु के शयनकाल ( चातुर्मास्य) में शालिग्राम शिला के पंचामृत से स्नान कराते हैं, वे मनुष्य संसार बंधन में कभी नहीं पड़ते। मुक्ति के आदिकारण निर्मल शालिग्रामगत श्रीहरि को अपने हृदय में स्थापित करके जो प्रतिदिन भक्तिपूर्वक उनका चिन्तन करता है, वह भक्ति और मोक्ष का भागी होता है। जो सब समय में, विशेषतः चातुर्मास्यकाल में भगवान् शालिग्राम के ऊपर तुलसीदल की माला चढ़ाता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। तुलसीदेवी भगवान् विष्णु को सदा प्रिय है शालिग्राम महाविष्णु के स्वरूप हैं और तुलसीदेवी 5 साक्षात् लक्ष्मी हैं। इसलिये चन्दन चर्चित सुगन्धित जल से तुलसीमंजरी सहित शालिग्राम शिलारूप श्रीहरि को नहलाकर जो तुलसी की मंजरियों से उनका पूजन करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं को पाता है।

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उत्तम पुष्पों से पूजित भगवान् शालिग्राम का दर्शन करके मनुष्य सब पापों से शुद्धचित्त होकर श्रीहरि में तन्मयता को प्राप्त होता है। शालिग्राम-शिला के चैबीस भेद है। पहले केशव हैं, उनकी पूजा करनी चाहिये। दूसरे मधुसूदन, तीसरे संकर्षण, चौथे दामोदर, पाँचवें वासुदेव, छठें प्रद्युम्न, सातवें विष्णू आठवें माधव, नवें अनन्तमूर्ति, दसवें पुरूषोत्तम, ग्यारहवें अधोक्षज, बारहवें जनार्दन, तेरहवें गोविन्द, चैदहवें त्रिविक्रम, पंद्रहवें श्रीधर, सोलहवें हृशीकेष, सत्रहवें नृसिंह, अठारहवें विश्वयोनि, उन्नीसवें वामन, बीसवें नारायण, इक्कीसवें पुण्डरीकाक्ष, बाईसवें उपेन्द्र तेइसवें हरि और चैबीसवें श्रीकृष्ण कहे गये हैं। ये चैबीस मूर्तियां चैबीस एकादशियों से सम्बन्ध रखती हैं। साल भर में चैबीस एकादशियां और ये चैबीस मूर्तियाँ पूजी जाती हैं। इनकी नित्य पूजा करने वाला मनुष्य शक्तिमान् होता है।

लोकेंद्र चतुर्वेदी ज्योतिर्विद