नारद संहिता के अनुसार जिस दिन फाल्गुन मास कृष्ण पक्ष चतुर्दशी तिथि आधी रात के योगवाली हो उस दिन जो शिवरात्रि व्रत करता है, वह अनन्त फल को प्राप्त करता है। इस सम्बन्ध में तीन पक्ष हैं- चतुर्दशी को प्रदोषव्यापिनी, निशीथ (अर्धरात्रि) व्यापिनी एवं उभयव्यापिनी। व्रतराज, निर्णयसिन्धु तथा धर्मसिन्धु आदि ग्रन्थों के अनुसार निशीथव्यापिनी चतुर्दशी-तिथि को ही ग्रहण करना चाहिए। अतः चतुर्दशी तिथि का निशीथव्यापिनी होना ही मुख्य है, परन्तु इसके अभाव में प्रदोषव्यापिनी के ग्राह्य होने से यह पक्ष गौण है। इस कारण पूर्वा या परा दोनों में जो भी निशीथव्यापिनी चतुर्दशीतिथि हो, उसी में महाशिवरात्रि व्रत करना चाहिये ।
चतुर्दशी के स्वामी शिव
ज्योतिशास्त्र के अनुसार प्रतिपदा आदि 16 तिथियों के अग्नि आदि देवता स्वामी होते हैं, अतः जिस तिथि का जो देवता स्वामी होता है, उस देवता का उस तिथि में व्रत-पूजन करने से उस देवता की विशेष कृपा उपासक को प्राप्त होती है। चतुर्दशी तिथि के स्वामी शिव है अथवा शिव की तिथि चतुर्दशी है। अतः इस तिथि की रात्रि में व्रत करने के कारण इस व्रत का नाम ‘शिवरात्रि’ होना उचित ही है। इसीलिये प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी में शिवरात्रि व्रत होता है, जो महाशिवरात्रि व्रत कहलाता है। शिवभक्त प्रत्येक कृष्ण चर्तुदशी का व्रत करते हैं, परन्तु फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को अर्धरात्रि में ज्येतिर्लिंग का प्रादुर्भाव होने से यह पर्व महाशिवरात्रि के नाम से विख्यात हुआ। इस व्रत को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री -पुरूष और बाल-युवा-वृद्ध आदि सभी कर सकते हैं। जिस प्रकार श्रीराम, श्रीकृष्ण, वामन और नृसिंह जयंती तथा प्रत्येक एकादशी का व्रत हर एक को करना चाहिये, उसी प्रकार महाशिवरात्रि व्रत भी सभी को करना चाहिये। इसे न करने से दोष लगता है।
व्रत का महत्व
शिवपुराण में बताया गया है कि महाशिवरात्रि व्रत करने से व्यक्ति को भोग एवं मोक्ष दोनों ही प्राप्त होते हैं । ब्रह्मा, विष्णु तथा पार्वतीजी के पूछने पर भगवान् सदाशिव ने बताया कि महाशिवरात्रि व्रत करने से महान पुण्य की प्राप्ति होती है। मोक्षार्थी को मोक्ष की प्राप्ति कराने वाले चार व्रतों का नियमपूर्वक पालन करना चाहिये। ये चार व्रत हैं- भगवान् शिव की पूजा, रूद्रमन्त्रों का जप, शिवमन्दिर में उपवास तथा काशी में देहत्याग । शिवपुराण में मोक्ष के चार सनातन मार्ग बताये गये हैं। इन चारों में भी शिवरात्रि व्रत का विशेष महत्व है। अतः इसे अवश्य करना चाहिये। यह सभी के लिये धर्म का उत्तम साधन है। निष्काम अथवा सकामभाव से सभी मनुष्यों, वर्णों, आश्रमों, स्त्रियों, बालकों तथा देवताओं आदि के लिये यह महान व्रत परम हितकारक माना गया है। प्रत्येक मास के शिवरात्रि व्रतों में भी फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी में होने वाले महाशिवरात्रि व्रत का शिवपुराण में विशेष माहात्म्य बताया गया है।
रात्रि ही क्यों ?
अन्य देवताओ का पूजन, व्रत आदि जबकि प्रायः दिन में ही होता है, तब भगवान शंकर को रात्रि ही क्यों प्रिय हुई और वह भी फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशीतिथि ही क्यों ? इस जिज्ञासा का समाधान विद्वानों ने बताया है कि ‘भगवान शंकर संहारशक्ति और तमोगुण के अधिष्ठाता हैं, अतः तमोमयी रात्रि से उनका स्नेह (लगाव) होना स्वाभाविक ही है। रात्रि संहारकाल की प्रतिनिधि है, उसका आगमन होते ही सर्वप्रथम प्रकाश का संहार, जीवों की दैनिक कर्मचेष्टाओं का संहार और अन्त में निद्रा द्वारा चेतनता का ही संहार होकर सम्पूर्ण विश्व संहारिणी रात्रि की गोद में अचेतन होकर गिर जाता है। ऐसी दशा में प्राकृतिक दृष्टि से शिव का रात्रि प्रिय होना सहज ही हृदयंगम हो जाता है। यही कारण है कि भगवान शंकर की आराधना न केवल इस रात्रि में ही वरन् सदैव प्रदोष (रात्रि के प्रारम्भ होने) के समय में की जाती है।’
शिवरात्रि का कृष्ण पक्ष में होना भी साभिप्राय ही है। शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा पूर्ण (सबल) होता है और कृष्णपक्ष में क्षीण । उसकी वृद्धि के साथ-साथ संसार के सम्पूर्ण रसवान पदार्थों में वृद्धि और क्षय के साथ-साथ उनमें क्षीणता होना स्वाभाविक एवं प्रत्यक्ष है। क्रमशः घटते-घटते वह चन्द्रमा अमावस्या को बिल्कुल क्षीण होता है। चराचर जगत् के यावन्मात्र मन के अधिष्ठाता उस चन्द्र के क्षीण हो जाने से उसका प्रभाव अण्ड- पिण्डवाद के अनुसार सम्पूर्ण भूमण्डल के प्राणियों पर भी पड़ता है और उन्मना जीवों के अन्तःकरण में तामसी शक्तियां प्रबुद्ध होकर अनेक प्रकार के नैतिक एवं सामाजिक अपराधों का कारण बनती हैं। इन्हीं शक्तियों का अपर नाम आध्यात्मिक भाषा में भूत-प्रेतादि है और शिव को इनका नियामक (नियन्त्रक) माना जाता है। दिन में यद्यपि जगदात्मा सूर्य की स्थिति से आत्मतत्व की जागरूकता के कारण ये तामसी शक्तियां अपना विशेष प्रभाव वहीं दिखा पाती हैं, किन्तु चन्द्रविहीन अन्धकारमयी रात्रि के आगमन के साथ ही वे अपना प्रभाव दिखाने लगती हैं। इसलिये जैसे पानी आने से पहले ही पुल बांधा जाता है, उसी प्रकार इस चन्द्रक्षय (अमावस्या) तिथि के आने से सद्यःपूर्व ही उन सम्पूर्ण तामसी वृत्तियों के एकमात्र अधिष्ठाता भगवान आशुतोष की आराधना करने का विधान शास्त्रकारों ने किया है। विशेषतया कृष्णचतुर्दशी की रात्रि में शिवाराधना का रहस्य है।
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी का रहस्य
जहां तक प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के शिवरात्रि कहलाने की बात है, वे सभी शिवरात्रि ही कहलाती है और पंचागों में उन्हें इसी नाम से लिखा जाता है, परन्तु फाल्गुन की शिवरात्रि महाशिवरात्रि के नाम से पुकारी जाती है। जिस प्रकार अमावस्या के दुष्प्रभाव से बचने के लिये उससे ठीक एक दिन पूर्व चतुर्दशी को यह उपासना की जाती है, उसी प्रकार क्षय होते हुए वर्ष के अन्तिम मास चैत्र से ठीक एक मास पूर्व फाल्गुन में ही इसका विधान शास्त्रों में मिलता है, जो कि सर्वथा युक्तिसंगत ही है। साथ ही रूद्रों के एकादश संख्यात्मक होने के कारण भी इस पर्व का 11वें मास (फाल्गुन) में सम्पन्न होना इस व्रतोत्सव के रहस्य पर प्रकाश डालता है।
उपवास – रात्रि जागरण क्यों ?
ऋषि-महर्षियों ने समस्त आध्यात्मिक अनुष्ठानों में उपवास को महत्वपूर्ण माना जाता है। गीता के अनुसार- उपवास विषय विषय-निवृत्ति का अचूक साधन है। अतः आध्यात्मिक साधना के लिये उपवास करना परमावश्यक है। उपवास के साथ रात्रि जागरण के महत्व पर गीता का यह कथ अत्यन्त प्रसिद्ध हैकृ‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।’ इसका सीधा तात्पर्य यही है कि उपवासादि द्वारा इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण करने वाला संयमी व्यक्ति ही रात्रि में जागकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील हो सकता है। अतः शिवोपासना के लिये उपवास एवं रात्रि जागरण के अतिरिक्त रात्रि प्रिय शिव से भेंट करने का समय रात्रि के अलावा और कौन समय हो सकता है, इन्हीं सब कारणों से इस महान् व्रत में व्रतीजन उपवास के साथ रात्रि में जागरण शिव पूजा करते हैं।
पूजाविधि
शिवपुराण के अनुसार व्रती पुरूष को प्रातःकाल उठकर स्नान-संध्या आदि कर्म से निवृत्त होने पर मस्तक पर भस्म का त्रिपुण्ड, तिलक और गले में रूद्राक्ष माला धारण कर शिवालय में जाकर शिवलिंग का विधिपूर्वक पूजन एवं शिव को नमस्कार करना चाहिये ।
देवदेव महादेव नीलकण्ठ नमोऽस्तु ते ।
कर्तुमिच्छाम्यहं देव शिवरात्रिव्रतं तव ।।
तव प्रसादाददेवेश निर्विघ्नेन भवेदिति ।
कामाद्याः शत्रवो मां वै पीडां कुर्वन्तु नैव हि ।।
अर्थात हे देवदेव! हे महादेव! हे नीलकण्ठ! आपको नमस्कार है। हे देव! मैं आपका शिवरात्रि व्रत करना चाहता हूँ। हे देवेश्वर! आपकी कृपा से यह व्रत निर्विघ्न पूर्ण हो और काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रु मुझे पीड़ित न करें।
रात्रिपूजा
दिन भर अधिकारानुसार शिवमन्त्र का यथाशक्ति जप करना चाहिये अर्थात् जो द्विज हैं और जिनका विधिवत् यज्ञोपवीत-संस्कार हुआ है तथा नियमपूर्वक यज्ञोपवीत धारण करते हैं, उन्हें ‘ऊँ नमः शिवाय’ मन्त्र का जप करना चाहिये, द्विजेतर एवं स्त्रियां हैं, उन्हें प्रणवरहित ‘शिवाय नमः’ परन्तु जो मन्त्र का ही जप करना चाहिये। रूग्ण, अशक्त और वृद्धजन दिन में फलाहार ग्रहण कर रात्रि-पूजा कर सकते हैं, वैसे यथाशक्ति बिना फलाहार ग्रहण किये रात्रि पूजा करना उत्तम है। रात्रि के चारों प्रहरों की पूजा का विधान शास्त्रकारों ने किया है। सांयकाल स्नान करके किसी शिव मन्दिर में जाकर या घर पर ही (यदि नर्मदेश्वर अथवा अन्य इसी प्रकार का शिवलिंग हो) सुविधानुसार पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर और तिलक एवं रूद्राक्ष धारण करके पूजा करे। अच्छा तो यह है कि किसी वैदिक विद्वान ब्राह्मण के निर्देशन में वैदिक मन्त्रों से रूद्राभिषेक का अनुष्ठान कराया जाय।
व्रती को पूजा की सामग्री अपने पास में रखनी चाहिये ऋतुकाल के फल-पुष्प, गन्ध (चन्दन), बिल्वपत्र, धतूरा, धू, दीप, और नैवेद्य आदि द्वारा चारों प्रहर की पूजा करनी चाहिए। दूध, दही, घी, शहद और शक्कर से अलग-अलग तथा सबको एक साथ मिलाकर पंचामृत से शिव को स्नान कराकर जलधारा से उनका अभिषेक करना चाहिये । चारों पूजनों में पंचोपचार अथवा षोडशोपचार, यथालब्धोपचार से पूजन करते समय शिवपंचाक्षर ( नमः शिवाय) – मन्त्र से अथवा रूद्रपाठ से भगवान् का जलाभिषेक करना चाहिये । भव, शर्व, रूद्र, पशुपति, उग्र, महान्, भीम और ईशान-इन 8 नामों से पुष्पांजलि अर्पित कर भगवान की आरती और परिक्रमा करनी चाहिये। अन्त में भगवान् शम्भु इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये।
नियमो महादेव कृतश्चैव त्वदाज्ञया ।
विसृज्यते मया स्वामिन् व्रतं जातमनुत्तमम् ॥
व्रतेनानेन देवेश यथाशक्तिकृतेन च ।
सन्तुष्टो भव शर्वाद्य कृपां कुरू ममोपरि ।।
अर्थात् ‘हे महादेव! आपकी आज्ञा से मैने जो व्रत किया, हे स्वामिन्! वह परम उत्तम व्रत पूर्ण हो गया। अतः जब उसका विसर्जन करता हूँ। हे देवेश्वर शर्व! यथाशक्ति किये गये इस व्रत से आप देवेश्वर शव! यथाशक्ति किये गये इस व्रत से आप आज मुझ पर कृपा करके संतुष्ट हों।’
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अशक्त होने पर यदि चारों प्रहर की पूजा न हो सके तो पहले प्रहर की पूजा अवश्य करनी चाहिये और अगले दिन प्रातःकाल पुनः स्नानकर भगवान् शंकर की पूजा करने के पश्चात् व्रत की पारणा करनी चाहिये। स्कन्दपुराण के अनुसार इस प्रकार अनुष्ठान करते हुए शिवजी का पूजन, जागरण और उपवास करने वाले मनुष्य का पुनर्जन्म नहीं होता। इस महान् पर्व के विषय में एक आख्यान के अनुसार शिवरात्रि के दिन पूजन करती हुई किसी स्त्री का आभूषण चुरा लेने के अपराध में मारा गया से कोई व्यक्ति इसलिये शिवजी की कृपा से सद्गति को प्राप्त हुआ, क्योंकि चोरी करने के प्रयास में वह 8 प्रहर भूखा-प्यासा और जागता रहा। इस कारण अनायास ही व्रत हो जाने से शिवजी ने उसे सद्गति प्रदान कर दी। इस व्रत की महिमा का पूर्णरूप से वर्णन करना मानव शक्ति से बाहर है। अतः कल्याण के इच्छुक सभी मनुष्यों को यह व्रत करना चाहिये।
लोकेंद्र चतुर्वेदी ज्योतिर्विद