नई दिल्लीः मध्य कालीन युग के महान कवि संत कबीर दास की जयंती प्रतिवर्ष ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है और इस बार 14 जून को उनकी जयंती है। माना जाता है कि इसी पूर्णिमा को विक्रमी संवत् 1455 सन् 1398 में उनका जन्म काशी के लहरतारा ताल में हुआ था। हालांकि उनके जन्म को लेकर अलग-अलग मत हैं। कुछ लोगों का मानना है कि कबीर का जन्म एक मुस्लिम परिवार में हुआ था जबकि कुछ उन्हें जन्म से हिन्दू मानते हैं और उनका मानना है कि उनका जन्म एक जुलाहे के घर हुआ था।
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जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान ।।
कुछ अन्य का मानना है कि जन्म से तो कबीर मुसलमान थे लेकिन उन्होंने गुरु रामानंद से हिन्दू धर्म का ज्ञान प्राप्त किया । हालांकि तमाम मत-मतांतर के बावजूद सभी विद्वान कबीर का जन्मस्थान काशी को मानते हैं। दोनों ही सम्प्रदायों में उन्हें बराबर का सम्मान प्राप्त था और दोनों सम्प्रदायों के लोग उनके अनुयायी थे। संत कबीरदास के लेखन में बीजक, सखी ग्रंथ, कबीर ग्रंथवाली और अनुराग सागर शामिल हैं। कबीर को दो पंक्ति के दोहे से कई लोगों का जीवन संवर चुका है। उनकी जयंती पर आप अपने दोस्तों और प्रियजनों को ये शुभकामना संदेश भेज सकते हैं।
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोए।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए।।
वह ऐसा दौर था, जब चारों तरफ जात-पात, छुआछूत, धार्मिक पाखंड, अंधश्रद्धा से भरे कर्मकांड, मुल्ला-मौलवी तथा पंडित-पुरोहितों के ढोंग और साम्प्रदायिक उन्माद का बोलबाला था। सदैव कड़वी और खरी बातें करने वाले स्वच्छंद विचारक संत कबीर दास को कई बार हिन्दू-मुसलमान दोनों ही समुदायों से धमकियां भी मिलीं लेकिन वे विचलित नहीं हुए और समाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधश्रद्धा, अंधविश्वास, आडम्बरों तथा सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना करते हुए उन्होंने समाज में प्रेम, सद्भावना, एकता और भाईचारे की अलख जगाई। धर्म के नाम पर आम जनता को दिग्भ्रमित करने वाले काजी, मौलवी, पंडितों, पुरोहितों को आईना दिखाते हुए कबीर दास ने कहा:-
काजी तुम कौन कितेब बखानी।
झंखत बकत रहहु निशि बासर।।
उन्होंने अपना सारा जीवन देशाटन और साधु-संतों की संगति में व्यतीत कर दिया और अपने उन्हीं अनुभवों को उन्होंने मौखिक रूप से कविताओं अथवा दोहों के रूप में लोगों को सुनाया। लोगों को बड़ी आसानी से अपनी बात समझाने के लिए उन्होंने उपदेशात्मक शैली में लोक प्रचलित और सरल भाषा का प्रयोग किया। उनकी भाषा में ब्रज, अवधी, पंजाबी, राजस्थानी तथा अरबी फारसी के शब्दों का मेल था। अपनी कृति सबद, साखी, रमैनी में उन्होंने काफी सरल और लोकभाषा का प्रयोग किया है। गुरु के महत्व को सर्वोपरि बताते हुए समाज को उन्होंने ज्ञान का मार्ग दिखाया। गुरु की महिमा का उल्लेख करते हुए वह कहते हैं:-
गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय।।
एक ही ईश्वर को मानने वाले कबीर दास निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे। कबीरपंथी संत कबीर को एक अलौकिक अवतारी पुरुष मानते हैं। धार्मिक एकता के प्रतीक और अंधविश्वास तथा धर्म व पूजा के नाम पर आडम्बरों के घोर विरोधी रहे संत कबीर ने अपना सम्पूर्ण जीवन समाज सुधार के कार्यों में लगा दिया था।
सब धरती काजग करूं, लेखनी सब वनराज।
सात समुद्र की मसि करूं, गुरु गुण लिखा न जाए।।
अपने उपदेशों में उनका कहना था कि वृक्ष कभी अपने फल स्वयं नहीं खाते, न ही नदियां कभी अपने लिए जल का संचय करती हैं, इसी प्रकार सज्जन व्यक्ति अपने शरीर को अपने लिए नहीं बल्कि परमार्थ में लगाते हैं। अपनी रचनाओं में उन्होंने सदैव हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर दिया और हिन्दू या इस्लाम धर्म को नहीं मानते हुए जीवन पर्यन्त पूर्ण रूप से धर्मनिरपेक्ष मूल्यों तथा मानव सेवा के प्रति समर्पित रहे।
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होए।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोए।।
कबीर दास ने अपने दोहों में लिखा कि मनुष्य अपना सारा जीवन दूसरों की बुराइयां देखने में ही लगा रहता है लेकिन वह अपने भीतर झांककर नहीं देखता। अगर वह ऐसा करे तो उसे पता चलेगा कि उससे बुरा तो संसार में और कोई नहीं है। इसलिए हर व्यक्ति को चाहिए कि वह सबसे पहले अपने भीतर की बुराइयों को दूर करे।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय।।
कहा जाता है जब उनकी मृत्यु तो उनका शरीर कमल के फूलों का ढेर बन गया था। उन पुष्पों को उनके हिन्दू-मुस्लिम शिष्यों ने आपस में बांटकर अपने-अपने धर्मों के अनुरूप उनका अंतिम संस्कार किया। मुस्लिम शिष्यों ने मगहर में उनकी कब्र बनाई जबकि हिन्दू शिष्यों ने अवशेषों का अग्निदाह सम्पन्न कर राख को काशी ले जाकर समाधिस्थ किया। इसी स्थान को काशी में वर्तमान में ‘कबीर चौरा’ नाम से जाना जाता है।
दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय।।
कबीर दास के देहावसान के बाद उनके पुत्र तथा शिष्यों ने उनकी रचनाओं को बीजक के नाम से तीन भागों (सबद, साखी और रमैनी) में संग्रहीत किया और बाद में उनकी रचनाओं को ‘कबीर ग्रंथावली’ के नाम से संग्रहीत किया गया।
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