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आंवला नवमी: धार्मिक व आयुर्वेदिक महत्व

पंच दिवसीय दीपावली पर्व के बाद कार्तिक शुक्ल नवमी को आंवला नवमी का पर्व मनाया जाता है। इस दिन व्रत रखा जाता है और आंवले के वृक्ष का पूजन किया जाता है। इसे कूष्मांड नवमी, अक्षय नवमी, धात्री नवमी के रूप में भी मनाया जाता है। इस दिन व्रत के साथ आंवले के वृक्ष के नीचे पूजन करके दूध की धारा गिराते हुए पितरों का तर्पण किया जाता है।

इस दिन आंवले के वृक्ष के नीचे बैठकर भोजन करने, ब्राह्मणों को भोजन कराने तथा आंवले के दान का भी महत्व है। आंवला नवमी के दिन जो भी शुभ कार्य किया जाता है उसमें सदा लाभ व उन्नति होती है। उस काम का कभी क्षय नहीं होता इसलिए इस दिन की पूजा से अक्षय फल का वरदान मिलता है।

मान्यता है कि इसी दिन द्वापर युग का प्रारंभ हुआ था। वृंदावन में होने वाली परिक्रमा इसी दिन से प्रारम्भ होती है। मान्यता है उस परिक्रमा में श्रद्धालुओं का साथ देने स्वयं श्रीकृष्ण आते हैं। आंवला नवमी के दिन पूजा करने के लिए सूर्योदय से पहले उठकर स्नान कर लेना चाहिये। फिर आंवले के पेड़ की पूजा करनी चाहिए। पेड़ पर कच्चा दूध, हल्दी रोली लगाने के बाद परिक्रमा की जाती है। महिलाएं आंवले के वृक्ष की 108 परिक्रमा करती हैं।

जनश्रुति है कि अक्षय नवमी या आंवला नवमी के दिन मां लक्ष्मी ने पृथ्वी लोक में भगवान विष्णु एवं शिव की पूजा आंवले के रूप में की थी और इसी वृक्ष के नीचे बैठकर भोजन किया था। आंवला नवमी के दिन कम से कम एक आंवला जरूर सेवन करना चाहिये। वैसे तो पूरे कार्तिक मास में ही स्नान दान का बहुत महत्व होता है किन्तु शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन स्नान, पूजन, तर्पण और अन्नदान करने से हर मनोकामना पूर्ण होती है। गुप्तदान करना भी अत्यंत शुभ माना जाता है।

 

आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से आंवला पादप साम्राज्य का फल है। यह मैंगोलियोफाइटा विभाग और वर्ग का फल है तथा इसकी जाति रिबीस है और प्रजाति का नाम आर-यूवा- क्रिस्पा तथा वैज्ञानिक नाम रिबीस यूवा क्रिस्पा है। यह फल देने वाला वृक्ष है। यह करीब 20 फीट से 25 फीट तक लंबा होता है। यह भारतीय उप महाद्वीप के अतिरिक्त यूरोप और अफ्रीका में भी पाया जाता है। हिमालयी क्षेत्र और प्रायद्वीप भारत में आंवले के पौधे बहुतायत में मिलते हैं। इसके फल सामान्य रूप से छोटे होते हैं। लेकिन प्रसंस्कृत पौधे में थोड़े बड़े फल लगते हैं। इसके फल हरे, चिकने और गूदेदार होते हैं। संस्कृत में इसे अमृता, अमृतफल, आमलकी, पंचरसा आदि नामों से जानते हैं।

भारत में वाराणसी का आंवला सबसे अच्छा माना जाता है। यह वृक्ष कार्तिक माह में फलता है। आयुर्वेद में आंवले का सर्वाधिक महत्व है, एक प्रकार से यह भारतीय आयुर्वेद का मूलाधार है। चरक के मतानुसार आंवला शारीरिक अवनति को रोकने वाला, कल्याणकारी तथा धात्री (माता के समान रक्षा करने वाला) कहा गया है। वे कहते हैं कि आंवला सर्वश्रेष्ठ औषधि है। यह रक्तषोधक, रुचिकारक, अजीर्ण आदि में लाभदायक तथा दृष्टि को तीव्र करने वाला, वीर्य को मजबूत करने वाला तथा आयु की वृद्धि करता है।

 

लोकप्रिय आयुर्वेदिक ग्रंथ भेषज्य रत्नावली में 20 से अधिक योग आंवले के नाम से बताये गये हैं। ग्रंथों में आंवले को रक्तषोधक, रुचिकारक, ग्राही एवं मूत्रल बताया गया है। जिससे यह रक्त पित्त, वातावरण, रक्तप्रदर, बवासीर, अजीर्ण, अतिसार, प्रमेह ,श्वास रोग, कब्ज, पांडु रोग एवं क्षय रोगों का शमन करता है। मानसिक श्रम करने वाले व्यक्तियों को वर्ष भर नियमित रूप से किसी भी रूप में आंवले का सेवन करना चाहिये। आंवले का नियमित सेवन करने से मानसिक शक्ति बनी रहती है।

आंवला विटामिन-सी का सर्वोतम प्राकृतिक स्रोत है। इसमें विद्यमान विटामिन-सी नष्ट नहीं होता। विटामिन-सी एक ऐसा नाजुक तत्व होता है जो गर्मी के प्रभाव से समाप्त हो जाता है, लेकिन आंवले का विटामिन-सी नष्ट नहीं होता। ताजा आंवला खाने में कसैला, मधुर, शीतल, हल्का एवं मृदु रेचक या दस्तावर होता है। आंवले का प्रयोग सौंदर्य प्रसाधन के रूप में भी होता है। आंवले की चटनी, मुरब्बा तो बनता ही है, आंवले का उपयोग च्यवनप्राश बनाने में भी किया जाता है। हिंदू धर्म में आंवले का पेड़ व फल दोनों ही पूज्य हैं, अतः एक प्रकार से आंवला नवमी का यह पर्व पर्यावरण संरक्षण के लिये भी प्रेरित करता है।

मृत्युंजय दीक्षित

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