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सुअरों को बचाने लिए अब नहीं दी जाएगी खरगोशों की बलि, वैज्ञानिकों ने बनाया नया टीका

Pigs.
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नई दिल्लीः सूअरों को क्लासिकल स्वाइन फीवर से बचाने का टीका बनाने के लिए अब देश में खरगोशों की बलि नहीं चढ़ेगी, क्योंकि स्वदेशी तकनीक से विकसित टीका बहुत जल्द बाजार में आने वाला है। सेल कल्चर विधि से विकसित यह टीका काफी सस्ता भी होगा। देश के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित क्लासिकल स्वाइन फीवर टीका के साथ-साथ भेड़ों होने वाले चेचक के टीके का व्यावसायिक उत्पादन का अधिकार हाल ही में अहमदाबाद की एक कंपनी को मिला है।

ये दोनों टीके भारतीय कृषि अनुसंधन परिषद (आईसीएआर) के तहत आने वाले भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (आईवीआरआई), इज्जतनगर के वैज्ञानिकों ने तैयार किए हैं।

आईसीएआर के उपमहानिदेशक (पशु विज्ञान) डॉ. भूपेंद्र नाथ त्रिपाठी ने बताया, "देश में क्लासिकल स्वाइन फीवर के टीके की सालाना 1.8 करोड़ खुराक की जरूरत है, जिसकी पूर्ति के लिए पहले के टीके पर्याप्त नहीं थे और उसकी इम्यूनिटी भी कम थी, लेकिन नये टीके की इम्यूनिटी भी ज्यादा है और ये काफी सस्ते भी हैं। व्यावसायिक उत्पादन शुरू होने के बाद वर्तमान जरूरतों की पूर्ति के लिए पर्याप्त टीके तैयार होने में देर नहीं लगेगी, क्योंकि महज चार फ्लास्क में वैक्सीन की सारी जरूरतें पूरी हो जाएंगी।"

डॉ. त्रिपाठी ने बताया, "पहले के टीके की कीमत जहां 20 से 25 रुपये पड़ती है, वहां नये टीके महज दो रुपये में आएंगे। खास बात यह है कि इसके लिए अब खरगोशों की बलि देने की जरूरत नहीं होगी और नये टीके का एक डोज ही काफी होगा क्योंकि इसकी इम्यूनिटी दो साल तक बनी रहती है।"

वैज्ञानिक बताते हैं कि नया टीका सुरक्षित, शक्तिशाली और 100 फीसदी सुरक्षा प्रदान करता है और टीकाकरण के 14 दिनों 24 महीनों तक पशु के शरीर में रोग-प्रतिरोधी क्षमता बनाए रखता है।

सूअरों में होने वाली वायरल जनित बीमारी को क्लासिकल स्वाइन फीवर कहते हैं। इस रोग में सूअर को उच्च ज्वर होता है और त्वचा पर रक्त स्राव, कान, पेट व अन्य अंगों का रंग नीला पड़ जाता है और पक्षाघात से पीड़ित होने से पशु की मौत हो जाती है। इस बीमारी में मृत्यु दर 100 फीसदी है।

पहले से मौजूद टीका

देश में 1964 से इस बीमारी की रोकथाम के लिए लैपिनाइज्ड सीएसएफ वैक्सीन (वेब्रिज, यूके) का इस्तेमाल किया जा रहा है। इस टीके को बनाने के लिए खरगोशों को मारना पड़ता था। वैज्ञानिक बताते हैं कि एक खरगोश से इस टीके के 50 डोज तैयार किए जाते थे जो काफी महंगे होने के साथ-साथ अपर्याप्त भी थे। इस एक टीके की कीमत 20 से 25 रुपये पड़ती है।

टीके की जरूरत

देश में 90.6 लाख सूअरों को टीके लगाने के लिए 1.8 करोड़ टीके की सालाना जरूरत है। वैज्ञानिक बताते हैं कि सेल कल्चर से विकसित नये टीके से देश की जरूरतों की पूर्ति आसानी से हो जाएगी।

शीपपॉक्स भेड़ों में होने वाली संक्रामक वायरल है जिसमें पशु के पूरे शरीर में फफोले पड़ जाते हैं और गांठ भी पड़ जाती है। इस बीमारी से मृत्यु दर 50 फीसदी है। विशेषज्ञ बताते हैं कि भेड़ों में होने वाली चेचक की इस बीमारी से देश में सालाना करीब 125 करोड़ रुपये का आर्थिक नुकसान होता है और इस नुकसान से बचने के लिए एकमात्र उपाय है भेड़ों का टीककरण। लिहाजा, आईवीआरआई ने भेड़ के स्वेदेसी आईसोलेट (एसपीपीवी स्रिन 38/00स्ट्रेन) का उपयोग करके एक लाइव एटेनुएटेड शीपपॉक्स टीका तैयार किया है। परीक्षण में यह टीका सुरक्षित और प्रभावी साबित हुआ है।

वैज्ञानिक बताते हैं कि इस टीके का एक डोज 48 महीने तक भेड़ की रक्षा करता है। इन दोनों टीकों का व्यावसायीकरण केंद्रीय कृषि मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले कृषि अनुसंधान परिषद एवं शिक्षा विभाग (डेयर) के एग्रीइनोवट के माध्यम से किया गया है।

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क्लासिकल स्वाइन फीवर और शीप पॉक्स टीके के व्यावसायिक उत्पादन के लिए आईसीएआर-आईवीआरआई ने बीते सप्ताह अहमदाबाद की कंपनी हेस्टर बायोसाइंसेस के साथ दो समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किए। इस मौके पर आईसीएआर के महानिदेशक और डेयर के सचिव डॉ. त्रिलोचन महापात्र भी मौजूद थे। विशेषज्ञ बताते हैं कि मेक इन इंडिया पहले के तहत विकसित ये दोनों टीके देश को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में एक सार्थक प्रगति के उदाहरण हैं।