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केरल हाई कोर्ट का निर्णय : मुस्लिम पर्सनल लॉ के बीच पॉक्सो एक्ट

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केरल हाई कोर्ट के निर्णय ने एक बार फिर यह विचार करने पर विवश किया है कि ''मुस्लिम पर्सनल लॉ'' को कितना स्वीकारें? क्योंकि इससे पहले जो दो अदालतों (पंजाब-हरियाणा और दिल्ली ) के निर्णय आए, उन्होंने देश में नई बहस को जन्म दिया था। किंतु कहना होगा कि अभी के फैसले ने संविधान के उस दायरे को ठीक से स्पष्ट कर दिया है, जिसका लाभ उठाकर कई मुस्लिम अपने यहां नाबालिग से संबंध स्थापित कर पर्सनल लॉ बोर्ड की आड़ ले बच निकलते थे। यह मुद्दा इसलिए भी अहम है क्योंकि मुस्लिम पर्सनल लॉ के बहाने एक समुदाय विशेष की नाबालिग लड़की के साथ शारीरिक संबंध बनाने वालों को निकाह के नाम पर छूट मिल जाती है, जबकि ''पॉक्सो एक्ट 2012'' में 18 साल से कम उम्र की लड़कियों से शारीरिक संबंध बनाना कानूनन अपराध है। इसके अतिरिक्त ''बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006'' कहता है, 18 साल से कम उम्र में शादी विधि विरोधी होने से अपराध है। दूसरी ओर पर्सनल लॉ मुस्लिम बच्चियों की शादी 15 साल की उम्र में कर देने को सही ठहराता है। यहां असल मुद्दा यही है कि कौन सही ? क्या 1937 ब्रिटिश राज में शरीयत अधिनियम पारित होने के बाद अस्तित्व में आया यह मुस्लिम लॉ बोर्ड और उसके नियम जोकि भारतीय मुसलमानों में विवाह, तलाक, उत्तराधिकार से संबंधित मामलों में विशेष छूट देते हैं वे ? या वह जो संविधानिक कानून सभी के लिए समान हों इसकी वकालत करते हैं ?

अध्ययन के आधार पर कहें तो मुस्लिम पर्सनल लॉ जिसका आधार (कुरान और शरीयत) है, उसकी कई धाराएं इसलिए असंवैधानिक हैं क्योंकि वह संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), 15 (धर्म के आधार पर भेदभाव का प्रतिषेध) और अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) के उल्लंघनकर्ता के रूप में दिखाई देती हैं, यह बहुविवाह और निकाह-हलाला की प्रथा को मान्यता प्रदान करती हैं। सभी को याद होगा कि 1985 में यह 'मुस्लिम पर्सनल लॉ' उस समय बहुत विवादों में रहा जब शाहबानो केस हुआ । 62 वर्षीय शाह बानो अपने लिए क्या मांग रही थी? सिर्फ अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता। सुप्रीम कोर्ट ने उनकी मांग को सही बताया था, किंतु इस फैसले का मुस्लिम समुदाय ने विरोध किया। फैसले को कुरान के खिलाफ बताया गया । सत्ता में कांग्रेस सरकार थी। सरकार ने तत्कालीन समय में 'मुस्लिम स्त्री (विवाह विच्छेद पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986' पास कर दिया । जोकि गुजारा भत्ता सिर्फ इद्दत की अवधि यानी तलाक के 90 दिनों बाद तक देने की बात करता था, इसके बाद पत्नि के जीवन का क्या ? उस पर यह चुप्पी साधे है।

इस एक केस के बाद जब काशीपुर की शायरा बानो ने ''तीन तलाक'' को चुनौती दी, उस समय भी मुस्लिम पर्सनल लॉ चर्चा में रहा। इस केस में 15 साल तक शादी में रहने के बाद शौहर ने तलाक बोलकर रिश्ता खत्म कर दिया था। शायरा ने 2016 में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। कह सकते हैं कि शायरा बानो पहली मुस्लिम महिला हैं, जिन्होंने तीन तलाक, बहुविवाह और निकाह हलाला पर रोक लगाने की मांग करते हुए उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की थी । निश्चित ही इस हिम्मत के लिए वे धन्यवाद की पात्र हैं। किंतु यहां मुद्दा मुस्लिम पर्सनल लॉ का है। विषय यह है कि भारत में आाखिर मुस्लिम पर्सनल लॉ की आवश्यकता क्यों होनी चाहिए ? क्या कुछ लोगों को इसके बहाने अपनी मनमानी करते रहने की छूट दिया जाना उचित है?

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 भारत के सभी नागरिकों को कानून का समान संरक्षण देता है, लेकिन जब बात व्यक्तिगत मुद्दों ( शादी, तलाक, विरासत, बच्चों की हिरासत) की आती है तो मुसलमानों के ये मुद्दे मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत आ जाते हैं। यहीं से दूसरे अन्य कानूनों की धज्जियां उड़ना शुरू हो जाती हैं। इसलिए ही वर्ष 2016 मार्च महिने में केरल हाई कोर्ट के जज जस्टिस बी केमल पाशा को इसके विरोध में खुलकर सामने आना पड़ा था। उन्होंने कहा- मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत मुस्लिम महिलाओं को समानता का अधिकार नहीं दिया जाता।

कोई ये न भूले कि मुस्लिम पर्सनल लॉ शरीयत, कुरान के प्रावधानों के साथ ही पैगंबर मोहम्मद की शिक्षाओं और प्रथाओं को मानता है। अब स्त्रियों के बारे में कुरान क्या कहता है, यह भी समझ लीजिए । निसा-उकुम हरसुल्लकुम फअतु…। (कुरान मजीद पारा 2 सुरा बकर रुकू 28 आयत 223) तुम्हारी बीबियां तुम्हारी खेतियां हैं । अपनी खेती में जिस तरह चाहो (उस तरह) जाओ । यह अल्लाह का हुक्म है, इस बात को तफसीरे कबीर जिल्द 2, हुज्जतस्सलिसा, सफा 234,मिश्र छापा में और अधिक विस्तार से स्पष्ट किया गया है । औरत के प्रति यह मानसिकता ! इसे पढ़कर कोई भी बता सकता है कि महिलाओं को सिर्फ काम पूर्ति का साधन माना गया है।

यह भी एक तथ्य है कि इस्लाम दो मुस्लिम औरत की गवाही को एक पुरुष के बराबर होना मानता है । इस्लाम में स्त्री एक वस्तु के समान है जिसे बदला जा सकता है। पैगम्बर की एक प्रसिद्ध परंपरा भी है जो कि ''कातिब अल वकीदी'' से संबंधित है । हद तो यह है कि पत्नी की पिटाई का अधिकार तक शौहर को दिया गया है। सऊदी अरब की सरकारी वैबसाइट islamhouse.com के फतवे पृष्ठ 26 पर देख सकते हैं, पति को चार बातों के होने पर पत्नी की पिटाई का अधिकार है । पहला शृंगार को परित्याग करना जबकि उसका शौहर शृंगार का इच्छुक हो। दूसरा जब वह बिस्तर पर बुलाये और स्त्री उस के पास न आए…। औरत ऊंट पर सवारी कर रही हो और उसका पति इच्छा प्रकट करे तो उसे मना नहीं करना चाहिए । ( इब्न ऐ माजाह खण्ड 1 अध्याय 592 पृष्ठ 520 ) पुनः यदि एक पुरुष का मन संभोग करने के लिए उत्सुक हो तो पत्नी को तत्काल प्रस्तुत हो जाना चाहिए भले ही वह उस समय सामुदायिक चूल्हे पर रोटी सेंक रही हो । ( तिरमजी खण्ड 1, पृष्ठ 428 ) तीसरा नमाज़ छोड़ देना। चौथा उस की अनुमति के बिना घर से बाहर निकलना। ऐसे ही अन्य तथ्य एवं आयते हैं जिनका कि अध्ययन किया जा सकता है।

अंत में यही कि केरल हाई कोर्ट में जस्टिस बेचू कुरियन थॉमस ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि पर्सनल लॉ के तहत मुस्लिमों के बीच हुई शादी पॉक्सो एक्ट के दायरे से बाहर नहीं है। क्योंकि पर्सनल लॉ में विवाह वैध होने के बावजूद यदि एक पक्ष नाबालिग है, तो इसे पॉक्सो के तहत अपराध माना जाएगा। वास्तव में यह निर्णय उन तमाम महिलाओं के हक में है जोकि इस्लाम के ऊल-जलूल रीति-रिवाजों के नाम पर रहमान जैसे मुसलमानों को मनमानी करने की खूली छूट देते हैं । रहमान पर आरोप हैं कि उसने पश्चिम बंगाल से नाबालिग का अपहरण किया और फिर उसके साथ रेप किया था। रहमान ने अपने बचाव में कहा कि उसने नाबालिग लड़की से मुस्लिम कानून के तहत शादी कर ली । वस्तुत: अब इस तरह के लोग अपने अपराध से बच नहीं सकते, न्यायालय के इस निर्णय का यह भी एक संदेश है।

डॉ. मयंक चतुर्वेदी