हिंदी पर लोगों का भरोसा

Self-reliant India needs education in mother tongue

Self-reliant India needs education in mother tongue

 

भारत-चीन लड़ाई हो या भारत-पाकिस्तान युद्ध या फिर कोरोना से जंग का कठिन दौर, प्रेस ने प्रत्येक ऐसे विकट अवसर पर अपनी महत्ता सिद्ध की है। कहना गलत नहीं होगा कि इसमें हिन्दी पत्रकारिता का स्थान सर्वोपरि है। चाहे हिन्दीभाषी टीवी चैनलों की बात हो या हिन्दी के समाचार पत्र और पत्रिकाओं की, देश की बहुसंख्य आबादी के साथ उसका विशेष जुड़ाव रहा है। इस दृष्टि से राष्ट्र की एकता, अखण्डता एवं विकास की दिशा में हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

हालांकि हिन्दी पत्रकारिता के 197 वर्ष के इतिहास में समय के साथ पत्रकारिता के मायने और उद्देश्य बदलते रहे हैं। बावजूद इसके सुखद स्थिति यह है कि हिन्दी पत्रकारिता के पाठकों या दर्शकों की रुचि में कोई कमी नहीं आई। यह अलग बात है कि अंग्रेजी मीडिया और कुछ अंग्रेजीदां पत्रकारों ने सदैव उसकी प्रामाणिकता एवं विश्वसनीयता पर सवाल उठाने की कोशिश की। फिर भी पिछले कुछ दशकों में हिन्दी पत्रकारिता ने अपनी ताकत का बखूबी अहसास कराया है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी विश्वसनीयता बढ़ी है। यह हिन्दी पत्रकारिता की बढ़ती ताकत का ही नतीजा है कि कुछ हिन्दी अखबारों ने प्रसार संख्या में कुछ अंग्रेजी अखबारों को भी पीछे छोड़ दिया है।

हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत 30 मई, 1826 को कानपुर निवासी पं. युगुल किशोर शुक्ल द्वारा प्रथम हिन्दी समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ के प्रकाशन के साथ हुई थी। उस समय अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला में कई समाचारपत्र निकल रहे थे। ‘उदन्त मार्तण्ड’ 30 मई, 1826 को कलकत्ता (अब कोलकाता) से पहली बार साप्ताहिक के रूप में शुरू किया गया था। पहली बार उसकी केवल 500 प्रति छापी गई थीं। तब कलकत्ता में हिन्दी भाषियों की संख्या काफी कम थी। संसाधनों की भी कमी थी। इस वजह से 04 दिसम्बर 1826 से ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन बंद कर दिया गया। लेकिन इस समाचारपत्र के प्रकाशन के साथ ही हिन्दी पत्रकारिता की ऐसी नींव रखी जा चुकी थी, जिसने बाद में अनेक आयाम स्थापित किए हैं।

‘उदन्त मार्तण्ड’ के बाद अंग्रेजी शासनकाल में अनेक हिन्दी समाचारपत्र और पत्रिकाएं एक मिशन के रूप में निकलते गए। इनमें से कुछ ने सराहनीय सफर तय किया। आजादी के बाद परिस्थितियां बदलीं। हिन्दी पत्रकारिता भी मिशन न रहकर बड़ा व्यवसाय बन गई है। अच्छी बात यह है कि आज भी हिन्दी पाठक और दर्शक अपनी-अपनी पसंद के अखबारों व चैनलों के साथ पूरी शिद्दत से जुड़े हैं। तमाम विरोधाभासों के बावजूद हिन्दी पत्रकारिता आम जनजीवन का अभिन्न अंग बनी हुई है।

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अधिकांश हिन्दी समाचारपत्रों के अब ऑनलाइन संस्करण भी उपलब्ध हैं। विगत कुछ वर्षों में देश में बड़े-बड़े घोटालों का पर्दाफाश करके अनेक सफेदपोशों के चेहरों पर पड़े नकाब उतार फेंकने का श्रेय भी पत्रकारिता जगत को ही जाता है। इसमें हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका को किसी भी लिहाज से कमतर नहीं आंका जा सकता। वर्तमान में हर क्षेत्र में नैतिक मूल्यों में आई बड़ी गिरावट से पत्रकारिता जगत भी अछूता नहीं है। फिर भी इतना संतोष तो किया ही जा सकता है कि अधिकांश अवसरों पर प्रेस ने सराहनीय भूमिका निभाई है। हालांकि आज के पूर्ण व्यावसायिकता के दौर में पत्रकारिता को अव्यावसायिक बनाए रखने की बात करना बेमानी होगा। इसकी वजह यह है कि इससे जुड़े लोगों को भी अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए इसे एक व्यवसाय के रूप में अपनाने की विवशता है। मगर एक वर्ग अब भी पत्रकारिता के मानदंडों के दायरे में रहकर सत्य का दीपक प्रज्ज्वलित कर रहा है।

योगेश कुमार गोयल